Thursday, March 1, 2012

कौरवो - पांडव परिवार

पाण्डव पाँच भाई थे जिनके नाम हैं -
1. युधिष्ठिर
2. भीम
3. अर्जुन
4. नकुल
5. सहदेव
पाण्डु के उपरोक्त पाँचों पुत्रों में से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की माता कुन्ती थीं तथा नकुल और सहदेव की माता माद्री।
धृतराष्ट्र के सौ पुत्र कौरव कहलाए जिनके नाम हैं -
1. दुर्योधन
2. दुःशासन
3. दुःसह
4. दुःशल
5. जलसंघ
6. सम
7. सह
8. विंद
9. अनुविंद
10. दुर्धर्ष
11. सुबाहु
12. दुषप्रधर्षण
13. दुर्मर्षण
14. दुर्मुख
15. दुष्कर्ण
16. विकर्ण
17. शल
18. सत्वान
19. सुलोचन
20. चित्र
21. उपचित्र
22. चित्राक्ष
23. चारुचित्र
24. शरासन
25. दुर्मद
26. दुर्विगाह
27. विवित्सु
28. विकटानन्द
29. ऊर्णनाभ
30. सुनाभ
31. नन्द
32. उपनन्द
33. चित्रबाण
34. चित्रवर्मा
35. सुवर्मा
36. दुर्विमोचन
37. अयोबाहु
38. महाबाहु
39. चित्रांग
40. चित्रकुण्डल
41. भीमवेग
42. भीमबल
43. बालाकि
44. बलवर्धन
45. उग्रायुध
46. सुषेण
47. कुण्डधर
48. महोदर
49. चित्रायुध
50. निषंगी
51. पाशी
52. वृन्दारक
53. दृढ़वर्मा
54. दृढ़क्षत्र
55. सोमकीर्ति
56. अनूदर
57. दढ़संघ
58. जरासंघ
59. सत्यसंघ
60. सद्सुवाक
61. उग्रश्रवा
62. उग्रसेन
63. सेनानी
64. दुष्पराजय
65. अपराजित
66. कुण्डशायी
67. विशालाक्ष
68. दुराधर
69. दृढ़हस्त
70. सुहस्त
71. वातवेग
72. सुवर्च
73. आदित्यकेतु
74. बह्वाशी
75. नागदत्त
76. उग्रशायी
77. कवचि
78. क्रथन
79. कुण्डी
80. भीमविक्र
81. धनुर्धर
82. वीरबाहु
83. अलोलुप
84. अभय
85. दृढ़कर्मा
86. दृढ़रथाश्रय
87. अनाधृष्य
88. कुण्डभेदी
89. विरवि
90. चित्रकुण्डल
91. प्रधम
92. अमाप्रमाथि
93. दीर्घरोमा
94. सुवीर्यवान
95. दीर्घबाहु
96. सुजात
97. कनकध्वज
98. कुण्डाशी
99. विरज
100. युयुत्सु
(नोटः अलग अलग ग्रंथों में कुछ नामों में परिवर्तन भी मिलते हैं।)
उपरोक्त सौ कौरवों की एक बहन भी थी जिसका नाम था दुश्शला।

देश का गौरव - झाँसी की रानी

झाँसी की रानी
रचनाकार: सुभद्रा कुमारी चौहानसिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (1828 - 17 जून 1858) मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थी । वह् सन् १८५७ के भारतीय स्वतन्त्रता सन्ग्राम की नायिका थी । इनका जन्म काशी (वाराणसी) तथा मृत्यु ग्वालियर में हुई । इनके बचपन का नाम मनिकर्णिका था पर प्यार से मनु कहा जाता था । इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे था और वो एक महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे। इनकी माता भागीरथीबाई एक सुसन्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की म्रत्यु हो गयी । इनका पालन पिता ने ही किया । मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। इनका विवाह सन १८४२ में झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झांसी की रानी बनी । विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया । सन १८५१ में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी । सन १८५३ में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु २१ नवंबर १८५३ में हो गयी । दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया ।
ब्रितानी राजनीति
डलहौजी की राज्य हडपने की नीति के अन्तर्गत ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव जो कि उस समय बालक थे, को झांसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया, तथा झांसी राज्य को ब्रितानी राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया । तब रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया । यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया । ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ ही रानी को झांसी के किले को छोड कर झांसी के रानीमहल मे जाना पडा । पर रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झांसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय कर लिया था ।झांसी का युद्धझांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिन्सा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया । इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया । 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया । रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया । 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झांसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया । दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर् लिया । परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अन्ग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी । रानी झांसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।