Tuesday, October 14, 2008

मुलाकात 1

एक मुलाक़ात करो हमसे इनायत समझकर,हर चीज़ का हिसाब देंगे क़यामत समझकर,मेरी दोस्ती पे कभी शक ना करना,हम दोस्ती भी करते है इबादत समझकर

मुलाकात

Kisi ne kaha tha..Kisi se na kehnaLagi chot dil pe to khamosh hi rehnaJahan chot khana wahan muskuranaMagr muskurana iss trah se ki ro de zamanaPhool bankar muskurana zindagi hai,Muskurake gum bhulana zindagi hai,Mil ke khush hue to kya hua,Bina mile rishte nibhana zindagi hai....Din beet jaate hain suhaani yaadein bankar,Baatein reh jaati hain kahani bankar,Par Aap hamesha dil ke karib rahenge,Kabhi muskaan to kabhi aankhon mein paani bankarJis ki kurbat mein qarar bahut hai...Uska milna dushwaar bahut hai...Jo mere hathon ki lakeeron mein nahi...Us Shaks se mujhe pyar bahut hai...Kaise kahoon ki tumse milne ki chahat nahi,Bekrar Dil ko abh bhi rahat nahi,Bhula deta magar kya karun,Aap ko bhul jane ki dil ko aadat nahi

रामतिल

रामतिल
जगनी के नाम से आदिवासी बाहुल्‍य क्षेत्रों में पहचानी जाने वाली फसल रामतिल है। मध्‍यप्रदेश में इसकी खेती लगभग 220 हजार हेक्‍टेयर भूमि में की जाती है तथा उपज 44 हजार टन मिलती है। प्रदेश में देश के अन्‍य उत्‍पादक प्रदेशों की तुलना में औसत उपज अत्‍यंत कम (198 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर ) है। मध्‍यप्रदेश में इसकी खेती प्रधान रूप से छिंदवाडा , बैतूल, मंडला, सिवनी, डिन्‍डौरी एवं शहड़ोल जिलों में की जाती है।
रामतिल के बीजों में 35 – 45 प्रतिशत तेल एवं 25 से 35 प्रतिशत की मात्रा पायी जाती है। रामतिल की फसल विषम परिस्थितियों में भी उगाई जा सकती है। फसल को अनुपजाऊ एवं कम उर्वराशक्ति वाली भूमि में भी लिया जा सकता है। इसका तेल एवं बीज पूर्णत: विषैले तत्‍वों से मुक्‍त रहता है तथा यह कीडों बीमारियों जंगली जानवरों तथा पक्षियों से होने वाली क्षति से कम प्रभावित होती है। फसल भूमि का कटाव रोकती है। रामतिल की फसल के बाद उगाई जाने वाली फसल की उपज अच्‍छी आती है। प्रदेश में फसल की उपज को निम्‍नानुसार उन्‍नत कृषि तकनीकी अपनाकर बढ़ाया जा सकता है।
भूमि का चुनाव
फसल को आमतौर पर सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है। उत्‍तम जल निकासी वाली गहरी दुमट भूमि काश्‍त हेतु अच्‍छी होती है।
भूमी की तैयारी
खेत की तैयारी करते समय पिछली फसल की कटाई पश्‍चात हल से दो बाद गहरी जुताई करें तथा 3-4 बाद बखर एवं पाटा चलाकर भूमि को समतल एवं खरपतवार रहित करना चाहिये जिसमें बीज समान गहराई तक पहुंचकर उचित अंकुरण एवं पौध संख्‍या प्राप्‍त हो सके।
जातियों का चुनाव
प्रदेश में फसल की काश्‍त हेतु निम्‍नलिखित अनुशंसित उन्‍नत किस्‍मों को अपनाना चाहिये:
(1) उटकमंड़ – मध्‍यम अवधि में पककर तैयार होने वाली किस्‍म जो कि लगभग 110 दिनों में परिपक्‍व होकर तैयार होती है। बीजों में 43 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है तथा उपज क्षमता औसतन 500 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर है।
(2) नंबर 5 - बीजों का रंग काला मध्‍यम अवधि में (लगभग 105 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों में 40 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है तथा उपज क्षमता औसतन 475 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर है।
(3) आई .जी.पी 76 (सध्‍याढ़ी) मध्‍यम अवधि में (लगभग 105 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों का आकार छोटा होता है तथा बीजों में 40 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। किस्‍म ताप एवं प्रकाश काल हेतु संवेदनशील होती है तथा उपज क्षमता औसतन 475 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर है।
(4) नंबर 71 – जल्‍दी पकने वाली (लगभग 92 -95 दिनों में) किस्‍म है जिसका रंग गहरा काला चमकीला होकर दाना आकार में बड़ा होता है। बीजों में 42 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। पौधों की ऊंचाई ज्‍यादा होती है तथा औसत उपज क्षमता 475 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर है।
(5) बिरसा नाइजर – 1 – किस्‍म जब पककर तैयार होती है तब तने का रंग हल्‍का गुलाबी होता है। मध्‍यम अवधि में (95-100 दिनों में ) पक्‍कर तैयार होती है। बीजों में 41 प्रतिशत तेल पाया जाता है तथा औसत उपज क्षमता 600 – 700 किलोग्राम / हेक्‍टर है।
(6) श्रीलेखा – नई विकसित शीघ्र पकने वाली (86 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों में 41 प्रतिशत तेल पाया जाता है तथा औसत उपज क्षमता 500 किलोग्राम / हेक्‍टर है।
(7) पैयूर – 1 नई विकसित किस्‍म जो कि लगभग 90 दिनों में पककर तैयार होती है। पर्वतीय क्षेत्रों में काश्‍त हेतु उत्‍तम है। बीजों का रंग काला होता है तथा बीजों में 40 प्रतिशत तेल होता है। औसत उपज क्षमता 500 किलोग्राम/ हेक्‍टर है।
(8) जे.एन.सी सी 1 – इसके पकने की अवधि 95 -100 दिन है। बीजों के 35 -38 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। इस किस्‍म की उपज क्षमता औसत 5 -7 क्विंटल प्रति हेक्‍टर है। यह किस्‍म सूखा के लिये सहनशील होती है।
(9) जे.एन.सी -7 इसके पकने की अवधि 95 दिन है। इसका बीज पुष्‍ट तथा काले रंग का होता है। औसत उपज क्षमता 5-50 – 6.50 क्विंटल प्रति हेक्‍टर है। यह सूखा के लिये सहनशील है।
(10) जे.एन.सी. 9 – इसके पकने की अवधि 95 दिन है। इसका बीज पुष्‍ट तथा काले रंग का होता है। औसत उपज क्षमता 5.50 – 7 क्विंटल प्रति हेक्‍टर है। बीजों में 38 – 40 प्रतिशत तेल होता है। यह किस्‍म ताप एवं प्रकाश काल हेतु संवेदनशील होती है।
फसल चक्र
फसल को दलहनी , अनाजवाली फसलों तथा मोटे अनाज वाली फसलों के साथ बोया जाता है। एकल फसल में इसकी उपज मिश्रित फसल की अपेक्षा ज्‍यादा आती है। फसल हेतु कुछ लाभदायक फसल चक्र निम्‍नानुसार है:
फसल क्रम
कुटकी - रामतिल
रागी(अगेती) - रामतिल
उड़द(अगेती) - रामतिल
मिश्रित फसल प्रणाली
रामतिल + कोदो (2:2) रामतिल + कुटकी (2:2)
रामतिल + बाजरा (2:2) रामतिल + मूंग (2:2)
रामतिल + मूंगफली ( 6:2 अथवा 4:2)
बीजोपचार
फसल को भूमिजनित या बीजजनित बीमारियों से बचने के लिये बोनी के पूर्व बीजों को थाइरस अथवा केप्‍टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये।
बोने का समय
फसल की बोनी जुलाई माह के दूसरे सप्‍ताह से अगस्‍त माह के दूसरे सप्‍ताह तक की जा सकती है।
बोने की विधि
सामान्‍यत: 5 -8 किलोग्राम बीज / हेक्‍टर के मान से बोनी हेतु आवश्‍यक होता है। अंतरवर्तीय फसल हेतु बीज की दर कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है। बोनी करते समय बीजों को पूरे खेत (कतारों) में समान रूप से वितरण हेतु बीजों को 1:20 के अनुपात में गोबर की छनी हुई अच्‍छी सड़ी खाद के साथ मिलाकर बोनी करना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
फसल को 10 किलोग्राम नत्रजन + 20 किलोग्राम फास्‍फोरस / हेक्‍टेयर बोनी के समय ओर 10 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्‍टेयर की दर से खड़ी फसल में बोनी के 35 दिन बाद देवें। इसके अलावा स्‍फुर घुलनशील जैव उर्वरक कल्‍चर (पी.एस.बी) भूमि में अनुपलब्‍ध स्‍फुर को उपलब्‍ध कर फसल को लाभ पहुंचाता है। पी.एस.बी. कल्‍चर को बोनी के पूर्व आखरी बखरनी के समय मिटटी में 5 से 7 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर की दर से गोबर की खाद अथवा सूखी मिटटी में मिलाकर खेत में समान रूप से बिखेरें। इस समय खेत में नमी का होना आवश्‍यक होता है।
भूमि में उपलब्‍ध तत्‍वों के परीक्षण उपरांत यदि भूमि में गंधक तत्‍व की कमी पायी जाती है तो 20 – 30 किलोग्राम / हेक्‍टेयर की दर से गंधक का प्रयोग करने पर तेल के प्रतिशत एवं पैदावार में बढ़ोतरी होती है।
कतारों की दूरी
अच्‍दे उत्‍पादन हेतु कतारों में बोनी हेतु अनुशंसा की जाती है। अच्‍छी उपज लेने हेतु बुवाई 30 x 10 से.मी. दूरी पर करें तथा बीज को 3 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिये। पौधों की संख्‍या 3,00,000 पूरे खेत (कतारों) में समान रूप से वितरण हेतु 1:20 के अनुपात में गोबर की छनी हुई खाद के साथ मिलाकर बोनी करना चाहिये।
सिंचाई
रामतिल की फसलों को मुख्‍यत: खरीफ मौसम में वर्षा आधारित स्थिति में यदि सिंचाई का साधन उपलब्‍ध है तो सुरक्षा सिंचाई करना चाहिये। फूल आते समय एवं फल्लियॉ बनते समय सिंचाई देने से उपज में अच्‍छे परिणाम मिलते हैं।
निंदाई – गुडाई
बोनी के 15 -20 दिन पश्‍चात पहली निंदाई करना चाहिये तथा इसी समय आवश्‍यकता से अधिक पौधों को खेत से निकालना चाहिये। यदि आवश्‍यकता हुआ तो दूसरी निंदाई बोनी के करीब 35 -40 दिन बाद (नत्रजन युक्‍त उर्वरकों की खड़ी फसल में छिड़काव के पूर्व ) करना चाहिये। कतारों में बोयी गई फसल में हाथों द्वारा चलने वाला हो अथवा डोरा चलाकर नींदा नियंत्रण करें। रासायनिक नींदा नियंत्रण के लिये ‘’एलाक्‍लोर ‘’ 1.5 किलोग्राम सक्रिय घटक / हेक्‍टेयर की दर से 500 लीटर पानी में छिड़काव अथवा ‘’ लासो ‘’ दानेदार 20 किलोग्राम / हेक्‍टेयर की दर से बोनी के तुरंत बाद एवं अंकुरण के पूर्व भुरकाव करें।
अमरबेल परजीवी संक्रमित क्षेत्रों से प्राप्‍त बीजों का प्रयोग बोनी हेतु नहीं करना चाहिये। यदि अमरबेल के बीज रामतिल के साथ मिल गये हो तो बोनी पूर्व छलनी से छानकर इसे अलग कर देना चाहिये।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
रामतिल पर आनेवाले प्रमुख कीट रामतिल की सूंडी, सतही टिडडी माहों, बिहार रोमिल सूंडी सेमीलूपर आदि हैं। रामतिल की इल्‍ली हरे रंग की होती है जिस पर जामुनी रंग की धारियॉ रहती है। प‍त्तियों को खाकर पौधे की प्रारंभिक अवस्‍था में ही पौधे से रस चूसते हैं जिससे उपज में कमी आती है।
सतही टिडडी के शिशु एवं वयस्‍क फसल की प्रारंभिक अवस्‍थाओं में पत्तियों को काटकर हानि पहुंचाते हैं।
नियंत्रण
(1) रामतिल की इल्‍ली के नियंत्रण के लिये पेराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण का भुरकाव 25 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर की दर से करना चाहिये। इस चूर्ण के उपयोग से सतही टिडडी को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
(2) माहों कीट के नियंत्रण के लिये वावधानी रखकर कीटनाशक दवा का चयन करना चाहिये। क्‍योंकि इसका आक्रमण पौधे पर फूल आने पर होता है। चूंकि रामतिल में परागीकरण होता है अत: ऐसी दवा का प्रयोग नहीं करना चाहिये जिससे मधुमक्‍खियों को नुकसान हो। इण्‍डोसल्‍फान 35 सी.की 1 मिली लीटर मात्रा प्रति 1 लीटर पानी के मान से 600 – 700 लीटर पानी में अच्‍छी तरह से बनाकर प्रति हेक्‍टेयर की दर से छिड़काव करने पर माहों का प्रभावी ढंग से नियंत्रण किया जा सकता है। कीटनाशकों का प्रयोग सुबह या देर शाम न करें।
(ब) रोग
(1) सरकोस्‍पोरा पर्णदाग – इस रोग में पत्तियों पर छोटे धूसर से भूरे धब्‍बे बनते हैं जिसके मिलने पर रोग पूरी पत्‍ती पर फैल जाता है तथा पत्‍ती गिर जाती है। नियंत्रण हेतु बोनी पूर्व बीजों को 0.3 प्रतिशत थायरस से बीजोपचार करें।
(2) अल्‍अरनेरिया पत्‍ती धब्‍बा – इस रोग में पत्तियों पर भूरे, अंडाकार , गोलाकार एवं अनियंत्रित वलयाकार धब्‍बे दिखते हैं। रोग के नियंत्रण हेतु बोनी पूर्व बीजों को 0.3 प्रतिशत थायरस से बीजोपचार करें। जीनेब (0.2 प्रतिशत) अथवा बाविस्‍टीन (0.05 प्रतिशत) या टापसिन (0.25 प्रतिशत) दवा का छिड़काव रोग आने पर 15 दिन के अंतराल से करें।
(3) जड़ सडन – तना अधार एवं जड़ का छिलका हटाने पर फफूंद के स्‍कलेरोशियम होने के कारण कोयले के समान कालापन होता है। नियंत्रण हेतु 0.3 प्रतिशत थायरम से बोनी के पूर्व बीजोपचार करें।
(4) भभूतिया रोग (चूर्णी फफूंद) – रोग में पत्तियों एवं तनों पर सफेद चूर्ण दिखता है। नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत घुलनशील गंधक का फुहारा पद्धति से फसल पर छिड़काव करें।
फसल कटाई
रामतिल की फसल लगभग 100 -120 दिनों में पककर तैयार होती है। जब पौधों की पत्तियां सूखकर गिरने लगे, फल्‍ली का शीर्ष भाग भूरे काले रंग का होकर मुड़ने लगे तब फसल को काट लेना चाहिये। कटाई उपरांत पौधों को गटठों में बॉधकर खेत में खुली धूप में एक सप्‍ताह तक सुखाना चाहिये उसके बाद खलिहान में लकड़ी / डंडों द्वारा पीटकर गहाई करना चाहिये। गहाई के बाद प्राप्‍त दानों को सूपे से फटककर साफ कर लेना चाहिये। बीजों को धूप में अच्‍छी तरह सुखाकर 9 प्रतिशत नमीं पर भंडारण करना चाहिये।
उपज
उचित प्रबंधन से रामतिल की उपज 600 -700 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर तक प्राप्‍त होती है जो कि मुख्‍यत: अच्‍छी वर्षा एवं उन्‍नत तकनीक के अंगीकरण से प्राप्‍त होती है।

मूंगफली

मूंगफली
मूंगफली म.प्र. की एक प्रमुख तिलहनी फसल है। राज्‍य में इसकी उत्‍पादकता स्थिर नहीं है। इसका प्रमुख कारण वर्षा की अनिश्चित्‍ता, सूखा पड़ना अथवा कभी- कभी लगातार वर्षा होना तथा किसानों द्वारा इस फसल की उन्‍नत कृषि कार्यमाला को न अपनाना आदि है।
भूमि का चुनाव
पानी का अच्‍छा निकास, हल्‍की से मध्‍यम रेतीली कछारी या दुमट भूमि उपयुक्‍त है।
भूमि की तैयारी
तीन साल के अन्‍तराल में एक बार गहरी जुताई करें इसके बाद दो बार देशी हल या कल्‍टीवेटर चलायें एवं बखर चलाकर पाटा लगाना चाहिए।
बीज दर
100 – 120 किलोग्राम/ हेक्‍टर दाने बोने से 3.33 लाख के लगभग पौध संख्‍या प्राप्‍त होती है।
उन्‍नत जातियॉं
किस्‍म
पकने की अवधि
फलियॉं कि.ग्रा./ हे.
तेल प्रतिशत
अन्‍य विवरण
फूलो प्रगति (जे.एल. – 24)
95 -100
1500-2400
50.8
अगेती उन्‍नत जाति है तथा पूरे देश में इसे सफलतापूर्वक लगाया जा रहा है। इसे ग्रीष्‍म ऋतु में नहीं लगाना चाहिए। यह किस्‍म खरीफ एवं ग्रीष्‍म के लिये उपयुक्‍त है। यह मध्‍यम से भारी मिटटी के लिये उपयुक्‍त है। यह कालर राट रोगी रोधी किस्‍म है मध्‍यम से भारी मिटटी के लिये उपयुक्‍त है। इसको खरीफ एवं गर्मी दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है। 3 -4 दाने वाली लम्‍बी फली इसमें रूट राट (जड़सडन) का प्रभाव कम पाया गया है। दोनों ही मौसम में उगाया जा सकता है। खरीफ मौसम के लिये अनुसंशित ।
जूनागढ़ – 11 (एस.बी. -11)
107-150
1000-1500
49.5
ए.के. 12 – 24
105- 110
1000- 1500
48.5
गंगापुरी
95-100
1500-2000
48
ज्‍योति
105-110
1500-2000
53.3
जे.जी.एन -3
100 – 105
1500- 2000
50

बीजोपचार
3 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बनडेजिम दवा/ किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें। पौधों के सूखने की समस्‍या वाले क्षेत्र में 2 ग्राम थीरम + 1 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम / किलो ग्राम बीज मिलाकर उपचारित करें या जैविक उपचार ट्रायकोडर्मा 4 ग्राम चूर्ण / किलो ग्राम बीज की दर से उपयोग करें। इसके पश्‍चात 10 ग्राम / किलो ग्राम बीज के मान से रायजोबियम कल्‍चर (मूंगफली) से भी उपचार करें।
बोने का समय
वर्षा प्रारंभ होने पर जून के मध्‍य से लेकर जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक बोनी करना चाहिए।
बोने का तरीका
बोनी कतारों में सरता दुफन या तिफन से लगभग 4 -6 से.मी. गहराई पर करना चाहिए। कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे की दूरी 8 – 10 से.मी. रखना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
भूमि की तैयारी के समय गोबर की खाद 5 -10 टन/ हेक्‍टर प्रयोग करें। उर्वरक के रूप में 20 किलोग्राम नत्रजन , 40 – 80 किलोग्राम स्‍फुर एवं 20 किलोग्राम पोटाश/ हेक्‍टर देना चाहिए। यदि खेत में गोबर की खाद तथा पी.एस.बी. का प्रयोग किया जाता है तो स्‍फुर की मात्रा 80 किलो ग्राम/ हेक्‍टर की जगह मात्र 40 किलो ग्राम / हेक्‍टर ही पर्याप्‍त है। खाद की पूरी मात्रा आधार खाद के रूप में प्रयोग करें। मूंगफली फसल में गंधक का विशेष महत्‍व है। इसलिए 25 किलो ग्राम/ हेक्‍टेयर के मान से गंधक अवश्‍य दिया जाना चाहिए। यदि यूरिया की जगह अमोनिया सल्‍फेट तथा फास्‍फेट के रूप में सिंगल सुपर फास्‍फेट का प्रयोग किया जाता है तो गंधक पर्याप्‍त मात्रा में मिल जाता है। अन्‍यथा 2 क्विंटल / हेक्‍टर की दर से जिप्‍सम या पाइराइटस का उपयोग आखिरी बखरनी के साथ करें। साथ ही 25 किलो ग्राम/ हेक्‍टर के मान से तीन साल के अन्‍तर पर जिंक सल्‍फेट का प्रयोग अवश्‍य करें।
फसल चक्र:
1 . मूंगफली (खरीफ) – गेहूं (रबी)
2 . मूंगफली (खरीफ) – मक्‍का (खरीफ)
3 . मूंगफली (खरीफ) – चना (रबी)
4 . मूंगफली ग्रीष्‍म कपास (खरीफ)
5 . मूंगफली ग्रीष्‍म मक्‍का / ज्‍वार / कपास
अंतरवर्तीय फसलें
अन्‍तवर्तीय फसल के रूप में मक्‍का, ज्‍वार, सोयाबीन, मूंग, उड़द, तुअर, सूर्यमुखी आदि फसलों को 4:2, 2:1, 8:2, 3:1, 6:3, 9:3, अनुपात में आवश्‍यकतानुसार लिया जा सकता है।
सिचाई
सिंचाई की सुविधा होने पर अवर्षा से उत्‍पन्‍न सूखे की अवस्‍था में पहला पानी 50- 55 दिन में तथा दूसरा पानी 70 – 75 दिन में दिया जाना चाहिए।
निंदाई – गुडाई
फसल बोने के 15 -20, 25 -30 तथा 40 -45 दिन की अवस्‍था में डोरा या कोल्‍पा चलावें जिससे समय – समय पर नींदा नियंत्रण किया जा सके। नींदानाशक दवाओं के उपयोग से भी नींदा नियंत्रण किया जा सकता है।
खरपतवारनाशी रसायनों की मात्रा एवं प्रयोग विधि
खरपतवारनाशी रसायन
मात्रा सक्रिय तत्‍व, लीटर / हेक्‍टेयर
उपयोग विधि / समय
पेंडीमिथेलिन
0.75 – 1.0
बुवाई बाद तुरंत फसल तथा खरपतवारों के उगने से पूर्व
फलुक्‍लोरेलीन
0.75 – 1.0
बुवाई से पूर्व जमीन में
एलाक्‍लोर
1.0 – 1.5
बुवाई के बाद परंतु अंकुरण से पूर्व

नोट: आवश्‍यकता पड़ने पर ही खरपतवारनाशी दवाओं का प्रयोग पूर्ण सावधानी अपनाते हुये करें।
पौध संरक्षण
(अ) कीडे
(अ)बोडला कीट (ब्‍हाइट ग्रब)
(अ) मई – जून के महीने में खेत की दो बार जुताई करना चाहिए।
(अ)(ब) अगेती बुआई ‘’10 -20 जून के बीच ‘’ करना चाहिए।
(अ)(स) मिटटी में फोरेट 10 जी या कारबोफयूरान 3 जी 25 किलो ग्राम / हेक्‍टेयर डालना चाहिए।
(अ)(द) बीज को फफूंदनाशक उपचार से पहले क्‍लोरपायरीफास 12.5 मि.ली / किलो ग्राम बीज को उपचार कर छाया में सुखकर बोनी चाहिए।
(अ)कामलिया कीट
मिथाइल पेराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण का 25 से 30 किलो ग्राम / हे. प्रारंभिक अवस्‍था में भुरकाव या पैराथियान 50 ईसी का 700 से 750 मिली. / हें के मान से छिड़काव करें।
महों, थ्रिप्‍स एवं सफेद मक्‍खी
इनके नियंत्रण लिए मोनोक्रोटोफॉस 36 ईसी का 550 मि.ली. / हे. या डाईमिथिएट का 30 ईसी का 500 मि.ली / हे. 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रयोग करें।
सूरंग कीट
क्‍यूनालफास 25 ई.सी का 1000 मि.ली या मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 600 मि.ली / हे. का छिड़काव करें।
चूहा एवं गिलहरी
यह भी मूंगफली को नुकसान करते है अत: इनके नियंत्रण पर ध्‍यान दें।
(ब) रोग
टिक्‍का / पर्ण धब्‍बा
बोने के 4-5 सप्‍ताह से प्रारंभ कर 2-3 सप्‍ताह के अन्‍तर से दो-तीन बार कार्बेन्‍डाजिम 0.05 प्रतिशत या डायथेन एम – 45 का 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।
कालर सडन / शुष्‍क जड़ सड़न
बीज को 5 ग्राम थाइरम अथवा 3 ग्राम डाइथेन एम- 45 या 1 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम प्रति किलो ग्राम बीज दर से उपचार करना चाहिए।
फसल कटाई
जैसे ही फसल पीली पड़ने लगे तथा प्रति पौधा 70- 80 प्रतिशत फली पक जावें उस समय पौधों को उखाड़ लेना चाहिए। फलियों को धूप में इतना सूखाना चाहिए कि नमी 8-10 प्रतिशत रह जाये तभी बोरों में रखकर भण्‍डारण नमी रहित जगह पर करें। बोरियों रखने के बाद उन पर मेलाथियान दवा का छिड़काव करना चाहिए।
उपज
समयानुकूल पर्याप्‍त वर्षा होने पर खरीफ में मूंगफली की उपज लगभग 15 से 20 क्विंटल / हे. तक ली जा सकती हैं।

चना

चना
चना मध्‍य प्रदेश की एक महत्‍वपूर्ण दलहनी फसल है। प्रदेश में देशी, काबुली और गुलाबी चना की फसल सफलतापूर्वक ली जाती है। प्रदेश में लगभग 28.50 लाख हेक्‍टेयर में चने की फसल ली जाती है तथा उत्‍पादन लगभग 24.76 लाख टन है। इस प्रकार मध्‍यप्रदेश पूरे देश में सबसे अधिक चना उत्‍पादन वाला प्रदेश है। प्रदेश की औसत उपज लगभग 900 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर है। चना उत्‍पादन की उन्‍नत तकनीक को अपनाना आवश्‍यक है।
भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी
चना फसल के लिए सबसे उपयुक्‍त मध्‍यम से भारी भूमि होती है। भूमि का पी.एच.मान 5.6 से 8.6 के बीच होता होना चाहिए। हल्‍की भूमि में चना फसल लेने की बाध्‍यता होने पर उसमें गोबर की खाद या हरी खाद का आवश्‍यक रूप से उपयोग करना चाहिए जिससे भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ जाए।
जिन खेतों में खरीफ फसल नहीं ली गई हो दो बाद आड़ा एवं खड़ा बखर चलाकर नमी को संरक्षित करें। जहां खरीफ फसल ली गई है वहां फसल की कटाई के तुरंत बाद पहले दिन एक बखर चलाकर दूसरे दिन उसके विपरीत दिशा में दूसरी बार पाटा सहित बखर चलाएं और खेत को बोने के लिए तैयार करें। खरीफ फसलों के अवशेषों को खेत से बाहर निकालें।
उन्‍नत किस्‍में
चने की उन्‍नत किस्‍मों का चुनाव भूमि के प्रकार सिंचाई जल की उपलब्‍धता व पिछले वर्षो में रोगों के प्रकोप की स्थिति आदि को ध्‍यान में रखकर ही करें। विभिन्‍न जातियों का प्रमाणित बीज ही उपयोग करें। चने की संस्‍तुत किस्‍मों का विवरण तालिका में दिया गया है।
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार
चने की फसल से अधिक पैदावार लेने के लिए पौधों की संख्‍या तीन से साढ़े तीन लाख / हेक्‍टेयर होनी चाहिए। इसके लिए प्रति वर्गमीटर 30 से 35 पौधे होना चाहिये। सामान्‍य रूप से इस पौध संख्‍या को प्राप्‍त करने के लिए 75 से 100 किलोग्राम बीज / हेक्‍टेयर की आवश्‍यकता किस्‍मों के बीज आकार के अनुसार होती है। कतारों से कतारों की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखकर वांछित पौध संख्‍या प्राप्‍त की जा सकती है।
बुवाई के पूर्व बीज को फफूंदनाशक दवा से अवश्‍य उपचारित करें। थायरम 2 ग्राम तथा कार्बेन्‍डाजिम 1 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। इसके बाद बीज को राइजोबियम तथा पीएचबी कल्‍चर से 5 ग्राम प्रत्‍येक को प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें और उपचारित बीज को छाया में सुखाकर बोआई करें। राइजोबियम कल्‍चर जे.पी.एस 65 का उपयोग लाभप्रद पाया गया है।
बोने का समय
सामान्‍य बोनी का समय 15 अक्‍टूबर से 15 नवम्‍बर तक है। सिंचित खेती के लिए नवंबर अन्‍त तक बोआई कर सकते हैं। देर से बोनी की स्थिति में उपयुक्‍त जाति का चयन करें तथा दिसंबर के प्रथम सप्‍ताह तक बोनी करें।
खाद एवं उर्वरक
मिटटी परीक्षण के अनुसार खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। चने की फसल को सामान्‍यत: 15 से 20 किलोग्राम नत्रजन , 45 – 50 किलो ग्राम स्‍फुर 20 किलोग्राम पौटाश की आवश्‍यकता होती है। सिंचिंत फसल में उपरोक्‍त नत्रजन एंव पोटाश के साथ स्‍फुर 60 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर दें। देर से बोई गई चने की फसल में नत्रजन 40 किलोग्रमा प्रति हेक्‍टर की दर से दें। जीवाणु खाद राइजोबियम तथा पी.एच.बी. के साथ 2.5 टन प्रति हेक्‍टर कम्‍पोस्‍ट खाद का उपयोग लाभप्रद होता है।
असिंचित खेती में लाभदायक उपाय
चने की असिंचित खेती में नमी की कमी ही मुख्‍य समस्‍या होती है। इससे अंकुरण कम हो सकता है तथा पौधों की बढ़वार और बीज के आकार में कमी होने से उपज कम हो जाती है। इससे बचने के लिए बोआई के पूर्व बखर, पाटा चलाकर नमी संरक्षित करें। वर्षा होने या सिंचाई देने के बाद हेण्‍ड – हो आवश्‍य चलायें इससे नमी एवं खरपतवार संरक्षण होगा।
सिंचाई
चने की फसल के लिए सामान्‍यरूप से दो सिंचाई की आवश्‍यकता होती है। पहली सिंचाई फूल आने के पहले बुवाई के लगभग 40 – 50 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई घेंटियों में दाना भरते समय बुवाई के 60 - 65 दिन बाद करना चाहिए। यदि एक ही सिंचाई उपलब्‍ध है तो उसे फूल आने के पहले दें। अधिक सिंचाई करने से पौधों की बढ़वार अधिक होती है और उपज में कमी आती है। फब्‍बारा विधि से सिंचाई करें। बहाव विधि से सिंचाई करने पर खेत को छोटी क्‍यारियों में बांट कर सिंचाई करें। इसके लिए बुवाई के तुरन्‍त बाद खेत में नालियां बना देना चाहिए।
अन्‍तर्वर्तीय फसलें
चने में अलसी और गेहूं को अन्‍तर्वर्तीय फसल के रूप में सफलतापूर्वक लिया जा सकता है। चना की चार कतारों के बाद अलसी या गेहूं की दो कतार के हिसाब से बुवाई अधिक लाभप्रद होती है।
खरपतवार नियंत्रण
असिंचित खेती में खरपतवार कम आते है फिर भी बुवाई के लगभग एक माह बाद हेण्‍ड हो चलाएं जिससे खरपतवार नियंत्रतण होगा और नमी भी संरक्षित होगी। सिंचिंत फसल में नींदा नियंत्रण के लिए पेन्डिमिथलीन 1 लीटर प्रति हेक्‍टर 500 – 600 लीटर पानी मिलाकर अंकुरण पूर्व फलैट फेन नोजल से छिड़काव करें।
पौध संरक्षण
(अ) रोग
(i) जड़ तथा तने के रोग
(1) उक्‍ठा रोग – इस रोग से नए पौधे मुरझाकर मर जाते हैं। सामान्‍यत: यह रोग लगभग 30 से 35 दिन की अवस्‍था में आता है। रोगी पौधे के तने के नीचे वाले भाग को चीरकर देखने से आन्‍तरिक तन्‍तुओं में हल्‍का भूरा या काला रंग दिखाई देता है।
(2) कालर राट रोग – सोयाबीन की फसल लेने के बाद चना फसल लेने पर इसका प्रकोप बढ़ जाता है। रोगी पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है और पौधे मर जाते हैं। पौधें की स्‍तम्‍भ मूल संधि भाग में सिकुडन प्रारंभ हो जाती है। प्रभावित भाग पर सफेद फफूंद दिखाई पड़ती है। सोयाबीन फसल के अवशेष खेत में होने तथा सिंचाई करने पर इसकी तीव्रता बढ़ जाती है।
(3) शुष्‍क विगलन रोग- पौधे पीले पड़ कर सूख जाते हैं। मृत जड़ शुष्‍क तथा कड़ी हो जाती है। निचले हिस्‍से को फाड कर देखने से कोयले के कणों के समान स्‍कलेरोशिया दिखाई देते हैं। फली बनने की अवस्‍था में नमी की कमी तथा तापक्रम अधिक होने पर जड़ काली हो जाती है।
नियंत्रण
जड़ तथा तने वाले रोगों की रोकथाम के लिए गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें। समय पर बोआई करें, अलसी की अंतवर्तीय फसल लें। फसल अवशेष को खेत से निकाल दें। रोग निरोधक जातियां लगायें। बीज उपचारित कर बुवाई करें।
(ii) पत्तियों व शाखाओं के रोग
अल्‍टरनेरिया झुलसा रोग
फूल, फल बनते समय इस रोग का प्रकोप अधिक प्रकोप होता है। तने पर भूरे काले धब्‍बे बन जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए रोगी पौधें को उखाड दें तथा फसल को अत्‍यधिक बढ़वार से बचाएं। कम प्रकोप होने पर मेन्‍कोजेब के 0.3 प्रतिशत घोल का फसल पर छिडकाव करें।
(ब) कीट
चने की इल्‍ली का बहुत अधिक प्रकोप होता है। इल्‍ली प्राय: हरे रंग की होती है परन्‍तु पीले, गुलाबी, भूरे व स्‍लेटी रंग की भी पायी जाती है। इल्लियों के बगल में लंबी सफेद पीली पटटी दोनों ओर आवश्‍यक रूप से पाई जाती है।
रासायनिक नियंत्रण
इण्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी 1.5 लीटर या प्रोफेनोफॉस 50 ई.सी 1.50 लीटर या क्विनालफॉस 25 ई.सी 1.00 लीटर को 500 - 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्‍टर की दर से छिड़काव करें। आवश्‍यकता पड़ने पर 15 दिन बाद पुन: कीटनाशक बदल कर छिड़काव करें। पंप या पानी उपलब्‍ध न हो तो क्विनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण या मिथाइल पैराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण या फेनवेलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर यन्‍त्र की सहायता से भुरकाव करें। यदि इल्लियां बड़ी हो गई हो और उपरोक्‍त कीटनाशकों से नियंन्त्रित नहीं हो रही हों तो मिश्रित कीटनाशकों का उपयोग करें जैसे प्रोफेनोफॉस + डेल्‍टामेथ्रिन का 1.50 लीटर या मिथोमिल का 1.00 लीटर प्रति हेक्‍टर छिड़काव करें। प्रभावी नियंत्रण के लिए दवा व पानी की सही मात्रा तथा खेत में एक समान छिड़काव करें। प्रभावी नियंत्रण के लिए दवा व पानी की सही मात्रा तथा खेत में एक समान छिड़काव करें। अंकुरण उपरांत टी (T) आकार की लकड़ी की खूटियां (50 प्रति हेक्‍टर ) खेत में समान रूप से लगायें जिस पर चिडि़यॉ बैठकर इल्‍ली को नियंत्रित रखेगी।
तालिका - चने की उन्‍नत किस्‍मों का विवरण
क्र
किस्‍म
अवधि (दिन)
उपज (क्विं / हे.)
विशेषताएं
(अ) देशी चना
1
जवाहर चना 74
110- 120
15 -16
उकठा अवरोधी , देर से बोआई के लिए उपयुक्‍त
2
भारती (आई.सी.सी.व्‍ही 10)
110 – 120
13 – 15
उकठा अवरोधी
3
जवाहर चना 218
115 – 120
15 – 18
4
विजय
115 – 120
13 – 16
5
जवाहर चना 322
115
15 – 18
6
जवाहर 11
97 5 105
15 – 18
बड़ा दाना उकठा निरोधी, तथा स्‍टंट विषाणु अवरोधी
7
जवाहर चना 130
110
18 – 20
बडा दाना उकठा निरोधी, शुष्‍क मूल विगलन सहनशील सूखा व चने की उल्‍ली के प्रति सहनशील
8
जवाहर चना 16
112
18 – 20
उकठा निरोधी, स्‍तम्‍भ मूल विगलन, बीजीएम तथा स्‍टंट हेतु मध्‍यम अवरोधी
9
जवाहर चना 315
115
15 – 18
उकठा अवरोधी
10
जवाहर चना 63
120 – 125
18 – 20
11
बी.जी.डी. 72
115 – 120
15 – 18
12
जी.सी.पी. 101
110 – 150
15 – 18
(ब) गुलाबी

जवाहर गुलाबी चना 1
120 -125
14 – 16
भूनने के लिए उपयुक्‍त
(स) काबुली
1
काक- 2
110 - 150
15 – 18
बड़ा दाना 100 दानों का बजन 38 ग्राम उकठा अवरोधी
2
जे.जे.के. – 1
110 – 150
15 – 18
बड़ा दाना 100 दानों का बजन 36 ग्राम, उकठा अवरोधी

अलसी

अलसी
अलसी भारत की बहुमूल्‍य औद्यौगिक तिलहन फसल है। अलसी के प्रत्‍येक भाग का प्रत्‍यक्ष व अप्रत्‍यक्ष रूप से विभिनन रूपों में उपयोग किया जाता है। अलसी के बीज से निकलने वाला तेल प्राय: खाने के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके तेल से प्राय: दवाइयॉ बनायी जाती है। इसका तेल पेंटस, वार्नश, व स्‍नेहक बनाने में प्रयुक्‍त होता है। इसके तेल से पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्‍याही भी तैयार की जाती है। म.प्र. के बुदेलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में उपयोग किया जाता है। तेल का उपयोग साबुन बनाने तथा दीपक जलाने में किया जाता है। इसका बीज फोड़ो फुन्‍सी में पुल्टिस बनाकर तैयार किया जाता है। अलसी की खली को दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग किया जाता है तथा खली में विभिन्‍न पौध पोषक तत्‍वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है। अलसी के पौधे का काष्‍ठीय भाग तथा छोटे- छोटे रेशों का प्रयोग कागज बनाने हेतु किया जाता है।
हमारे देश में अलसी की खेती लगभग 2 मिलियन हैक्‍टर में होती है जो विश्‍व के कुल क्षेत्रफल का 25 प्रतिशत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्‍व में प्रथम स्‍थान है, उत्‍पादन में चौथा तथा उपज प्रति हेक्‍टेयर में आठवा स्‍थान है। मध्‍यप्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, महाराष्‍ट्र , बिहार, राजस्‍थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्‍पादक राज्‍य है। म.प्र. व उ.प्र दोनो प्रदेशों में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत भाग है। मध्‍यप्रदेश में अलसी का का आच्‍छादित क्षेत्रफल 4.89 लाख हेक्‍टेयर तथा उत्‍पादन 1.49 लाख टन है। प्रदेश में अलसी फसल की उत्‍पादकता 238 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर है। जबकि राष्‍ट्रीय औसत उपज 353 किग्रा/ है. है। मध्‍य प्रदेश के सागर दमाहेह, टीकमगढ, बालाघाट एवं सिवनी प्रमुख अलसी उत्‍पादक जिले हैं। प्रदेश में अलसी के खेती विभिनन परिस्थितियों में असिंचित (वर्षा आधरित ) कम उपजाऊ भूमियों पर की जाती है। अलसी को शुद्ध फसल मिश्रित फसल, सह फसल पैरा व उतेरा फसल के रूप में उगाया जाता है। प्रदेश में अलसी की उपज (238 किग्रा/ हे.) बहुत कम है। देश में हुये अनुसंधान कार्य यह दर्शाते हैं कि अलसी की खेती उचित प्रबंधन के साथ की उपज तो उपज में लगलग 2 से 2.5 गुनी वृद्धि की संभावना है। कम उपज प्राप्‍त होने के प्रमुख कारण इस प्रकार है-
अलसी के कम उपज के कारण –
1 . कम उपजाऊ भूमि पर खेती करना
2 . असिंचित अवस्‍था अथवा वर्षा आधरित क्षेत्रों में खेती करना
3 . उतेरा पद्धति से खेती करना
4 . कम उत्‍पादन स्‍थानीय किस्‍मों का प्रचलन
5 . क्षेत्र विशेष के लिये उच्‍च उत्‍पादन देने वाली किस्‍मों का अभाव
6. पर्याप्‍त मात्रा में उन्‍नतशील बीज का अभाव
7 . असंतुलित एवं कम मात्रा में उर्वरक उपयोग
8 . समय पर पौध संरक्षण के उपाय न अपनाना
जलवायु
अलसी की फसल को ठंडे व शुष्‍क जलवायु की आवश्‍यकता पड़ती है। अत: अलसी भारत वर्ष में अधिकतर जहां 45 -75 से.मी. वर्षा प्राप्‍त होती है वहां इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के उचित अंकुरण हेतु 25 -30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय 15-20 डिग्री से.ग्रे.तापमान होना चाहिए। रेशा प्राप्‍त करने वाली फसल को ठंडे एवं नीमयुक्‍त मौसम की आवश्‍यकता होती है। अलसी के वृद्धि काल में भारी वर्षा व बादल छाये रहना बहुत हानिकारक होता है। परिपक्‍वन अवस्‍था पर उच्‍च तापमान, कम नमी तथा शुष्‍क वातावरण की आवश्‍कता होती है।
भूमि का चुनाव
अलसी की फसल के लिये काली भारी एवं दोमट (,मटियार) भूमि अधिक उपयुक्‍त होती है। अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्‍यम उपजाऊ मृदाओं अच्‍छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। आधुनिक संकल्‍पना के अनुसार उचित जल एवं उर्वरक व्‍यवस्‍था करने पर किसी प्रकार की मिटटी में अलसी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
खेत की तैयारी
अलसी का अच्‍छा अंकुरण प्राप्‍त करने के लिये खेत को भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये। अत: खेत को 2-3 बार हैरो चलाकर तैयार करना चाहिये। प्रत्‍येक जुताई के बाद पाटा लगाना आवश्‍यक हैं। जिससे नमी संरक्षित रह सके। अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है अत: अच्‍छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अति आवश्‍यक है।
फसल पद्धति
प्रदेश में अलसी की खेती वर्षा आधरित खेत्रों में खरीफ पडत के बाद रबी में शुद्ध फसल के रूप में की जाती है। टीकमगढ़ केन्‍द्र में हुये अनुसंधान परिणाम यह प्रदर्शित करते हैं कि उचित फसल प्रबन्‍धन से खरीफ की विभिनन फसलों लेने के बाद अलसी की फसल ली जा सकती है। सोयाबीन अलसी व उर्द – अलसी आदि फसल चक्रों से अधिक लाभ लिया जा सकता है।
मिश्रित खेती
प्रारंभिक रूप से अलसी की खेती वर्षा आधरित क्षेत्र में एकल फसल के रूप में की जाती है। टीकमगढ़ में हुए परीक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि अलसी की चना + अलसी (3:1) सह फसल के रूप में ली जा सकती है। अलसी की सह फसली खेती मसूर व सरसों के साथ भी की जा सकती है।
तालिका - अलसी के विभिन्‍न चक्रों का उपज पर प्रभाव
फसल चक्र
उपज (क्विं / हे)

शुद्ध लाभ

खरीफ
अलसी
(रू.हे.)
पड़त – अलसी

17.4
13.825
उर्द – अलसी
8.10
19.15
21,347
सोयाबीन –अलसी
16.20
17.90
23,615

उतेरा खेती
अलसी की उतेरा पद्धति धान उगाये जाने वाले क्षेत्रों में प्रचलित है, जहां अधिक नमी के कारण भूपरिष्‍करण में परेशानी आती है। अत: नमी का सदुपयोग करने हेतु धान के खेती में अलसी बोई जाती है। इस पद्धित में धान की खड़ी फसल में (फूल अवस्‍था) के बाद अलसी के बीज को छिटक दिया जाता है। फलस्‍वरूप धान की कटाई पूर्व अलसी का अंकुरण हो जाता है। संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार की जाती है। अलसी इस विधि को पैरा / उतेरा पद्धित कहते हैं।
उपयुक्‍त उन्‍नतशील किस्‍में
जे.एल. टी. -26
यह नीले फूल वाली नई किस्‍म है। यह किस्‍म टीकमगढ़ केन्‍द्र से विकसित की गई है। यह सिंचित एवं असिंचित दोनो अवस्‍थाओं हेतु उपयुक्‍त जाति है। यह किस्‍म 118 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 40.99 प्रतिशत है। इसके 1000 दानों का बजन 6.8 ग्राम होता है। अलसी की मक्‍खी का प्रकोप कम होता है। पाउडरी मिल्‍डयू गेरूआ एवं उकटा रोगों के लिये प्रतिरोधी क्षमता रखती है। इसकी असिंचित अवस्‍था में 819 किलो ग्राम / हे एवं सिंचित अवस्‍था में 1300 – 1400 किलो ग्राम / हे. उपज प्राप्‍त होती है।
किरन (आर.एल.सी.- 6)
यह अधिक पैदावार देने वाली किस्‍म है। यह दहिया, गेरूआ एवं उकठा रोगों के लिये प्रतिरोधक है। फली की मक्‍खी (लोंगियाना) के लिए सहनशील है। पकने के लिए 120 दिन लेती है। पैदावार 1200 – 1300 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर है। इसकी बोनी देरी से भी की जा सकती है। विभिन्‍न फसल चक्रों के लिये उपयुक्‍त है।
जवाहर 23
फूल सफेद होते हैं। इसका पौधा सीधा होता है। पकने की अवधि 120 -125 दिन है। तेल की मात्रा 43 प्रतिशत है। यह किस्‍म दहिया गेरूआ एवं उकठा रोगों के लिये प्रतिरोधी है किन्‍तु फली को मक्‍खी एवं अल्‍टरनोरिया वड ब्‍लाइट के लिए ग्राही है। इसकी पैदावार 1100- 1200 किलो प्रति हेक्‍टर है। यह देर से बोने के लिये उपयुक्‍त नहीं है।
जवाहर 552 (आर. 552 )
यह किस्‍म 110 – 120 दिन में पकती है। इसका तना पतला एवं फूल नीला होता है। यह किस्‍म दहियाए गेरूआ एवं उकठा रोग के लिए प्रतिरोधी क्षमता रखती है। अल्‍टरनेरिया ब्‍लाइट पत्तियों पर असर अधिक करता है। फली मक्‍खी के लिए सहनशील है। इसकी पैदावार 1000- 1100 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर है।
जे.एल.एस. – 9
यह किस्‍म में सागर म.प्र. से विकसित हुई है। दाना चमकीला होता है। यह शुष्‍क परिस्थिति के लिए अति उपयुक्‍त पाई है। शुष्‍क परिस्‍थति में इससे 900-1000 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर उपज प्राप्‍त की जा सकती है। पकने की अवधि 120 दिन है।
जवाहर – 17
यह किस्‍म असिंचित एवं उतेरा पद्धति के लिये उपयुक्‍त पाई गई है। फूल का रंग नीला होता है। 115 दिन में पककर तैयार होती है। पौधों की ऊचाई 50 से.मी. होती है। इसकी उत्‍पादन क्षमता 1200- 1500 किलो ग्राम / हे. है।
तालिका - अलसी की उन्‍नतशील किस्‍मों का टीकमगढ़ जिले के प्रक्षेत्रों पर प्रभाव
किस्‍मे
उन्‍नत किस्‍म की उपज (क्वि. / हे)

स्‍थानीय किस्‍म की उपज (क्विं./ हे.)
उपज में बढ़ोत्‍तरी %

अधिकतम
औसत


जे एल – 23
13.95
11.50
3.50
230
आरएलसी – 6
15.26
12.55
7.90
221
जेएलटी – 26
15.60
15.05
5.75
161

बीज की मात्रा एवं बोनी की विधि
30 किलो ग्राम बीज हेक्‍टर उपयोग करना चाहिए। बोनी कतारों में करना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 25 सेमी एवं पौधों से पौधों की दूरी 5-7 से.मी रखें। बीज की गहराई 2 से;मी रखे। देशी हल में नारी या चौंगा लगाकर अथवा सीडड्रिल से बोनी करें।
बोनी का समय
इसकी बोनी 15 अक्‍टूबर से 30 अक्‍टूबर तक करना चाहिये सिंचित अवस्‍था में देरी से बोनी के लिए उपयुक्‍त किस्‍मों को 15 नवम्‍बर तक बोया जा सकता है। जल्‍दी बोनी करने पर अलसी की फसल को कली की मक्‍खी एवं पाउडरी मिल्‍डयू रोग आदि से बचाया जा सकता है।
बीजोपचार
एक ग्राम कार्बेन्‍डाजिम या टापसिन एवं अथवा थीरम 2.5 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से बुवाई पूर्व बीजोपचार अवश्‍य करें।
उर्वरक प्रबन्‍धन
जीवांश खाद
अलसी की फसल को गोबर की खाद उपलब्‍ध होने पर 4 -5 टन / हे दें। अच्‍छी तरह से पचे हुये गोबर की खाद की मात्रा को अंतिम जुताई के समय खेत में अच्‍छी तरह से मिला देना चाहिए।
रासायनिक अवस्‍था
विभिन्‍न परिस्थितियों में रासायनिक उर्वकर की अलग – अलग प्रस्‍तावित मात्रा का प्रयोग करना चाहिये
असिंचित अवस्‍था
अलसी को असिंचित अवस्‍था में नत्रजन स्‍फुर तथा पोटाश की क्रमश: 40:20:20 किग्रा/ हे. देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा स्‍फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बोने के पहले तथा बची हुई नत्रजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के तुरंत बाद खड़ी फसल में
गंधक
अलसी एक तिलहन फसल है और तिलहन फसलों से अधिकतम उत्‍पादन लेने हेतु गंधक प्रदान करना भी अनुसंशित किया गया है। अत: अलसी का उच्‍च उत्‍पादन प्राप्‍त करने हेतु 25 किग्रा/ हे. गंधक भी देना चाहिये। गंधक की पूरी मात्रा बीज बोने के पहले देना चाहिए।
जैव उर्वरक
आधुनिक कृषि में जैव उर्वरकों का प्रचलन बढ. रहा है। अलसी में एलोटोबेक्‍अर / एजोस्‍प्ररीलम और स्‍फुर घोलक जीवाणु आदि जैव उर्वरक उपयोग किये जा सकते हैं। उक्‍त जैव उर्वरक बीज उपचार द्वारा 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से दिये जा सकते है। मृदा उपचार द्वारा भी इनका उपयोग किया जा सकता है। इस हेतु 2 किलो ग्राम पी.एस.बी. जैव उर्वरकों की मात्रा को 50 किग्रा. सड़ी गोबर की खाद के साथ मिलाकर अंतिम जुताई के पहले नमी युक्‍त खेत में बराबर बिखेर देना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
असिंचित अवस्‍था की तुलना में 1 सा 2 सिंचाई देने पर उपज 2 से 2.5 गुनी बढ़ाई जा सकती है। सिंचाई उपलब्‍ध होने पर प्रथत सिंचाई बोने का 35-40 दिन बाद तथा 60 – 65 दिन बाद दूसरी सिचाई करना चाहिये। टीकमगढ़ में किये गये परीक्षण से यह सिद्ध होता है कि अलसी को दो सिंचाई शाखा अवस्‍था एवं फली बनने की अवस्‍था पर देने पर सार्वजनिक उपज प्राप्‍त होती है।
खरपतवार प्रबंधन
अलसी बुवाई के 25 दिन तक खेत को खरपतवारो से रहित रखना चाहिये। फसल को खरपतवार रहित रखने हेतु बोने के 20 दिन बाद पहली निंदाई हाथ अथवा खुरपी द्वारा करनी चाहिये। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु पेन्‍डामिथलीन की 1 किग्रा अथवा आइसोप्रोटोरोन की 0.75 कि.ग्रा / हे. मात्रा 500 ली. पानी में घोल कर अंकुरण के पूर्व खेत में छिड़काव करना चाहिये।
पौध संरक्षण
(अ) रोग
गेरूआ रोग
पत्तियों के शीर्ष तथा निचली सतहों पर एवं तना शाखाओं पर गोल , लम्‍बवत नारंगी भूरे रंग के धब्‍बे दिखाई देते हैं। रोग से बचने के लिये सल्‍फेक्‍स 0.05 प्रतिशत या कैलेकिसन 0.05 प्रतिशत या डायथेन एम-45 का 0.25 प्रतिशत घोल खड़ी फसल पर छिड़काव दो बार 15 दिन के अंतराल से करें। निरोधक जातियां – आर 552, किरण आदि बुवाई हेतु उपयोग में लायें।
उकठा रोग
उकठा रोग काफी हानिकारक रोग है, जो मिटटी जनित अर्थात खेत की मिटटी में रोग ग्रस्‍त पौधों के ठूठ से फैलता है। इस रोग का प्रकोप फसल के अंकुरण से लेकर पकने की अवस्‍था तक कभी भी हो सकता है। पौधा रोग ग्रस्‍त होने पर पत्तियों के किनारे अंदर की ओर मुंडकर मुरझा जाता है। उकठा रोग नियंत्रण के लिये 2 या 3 वर्ष का फसल चक्र अपनाये अर्थात उकटा ग्रस्ति खेत में लगातार 2 -3 वर्षो तक अलसी की फसल न लगाये। थीरम या टापसिन फफूंदनाशक दवा से 2.5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
बुकनी रोग या भभूतियां सफेद चूर्ण
इस रोग के कारण पत्तियों पर सफेद चूर्ण जम जाता है। रोग की तीव्रता अधिक हो जाने पर दाने सिकुड जाते है, उनका आकार छोटा हो जाता है। देर से बुवाई करने पर एवं शीतकालीन वर्षा होने पर अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने पर इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता है। नियंत्रण के लिये रोग की गंभीरता को देखते हुए 0.3 घुलनशील गंधक (सल्‍फेक्‍स) या केराथेन (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल से करें। फसल की बुवाई जल्‍दी करे। रोग निरोधक किस्‍में जैसे जवाहर-23, आर – 552 एवं किरण का उपयोग करे।
अल्‍अरनेरिया अंगमारी या अल्‍रनेरिया ब्‍लाइट रोग
जमीन के ऊपर अलसी पौधे के सभी अंग इस रोग से प्रभावित होते है। परन्‍तु विशेष रूप से फूलों के अंगो के रोग ग्रसित होने पर नुकसान सबसे अधिक होता है। फूलों की पंखुडियों (ब्राह दल पुंज) के नीचले हिस्‍से में गहरे भूरे रंग के लम्‍बवत धब्‍बे दिखाई देते हैं जो आकार में बढ़ने के साथ फूल के अन्‍दर तक पहुंच जाते है, जिसके कारण फूल खिलने के पूर्व ही मुरझाकर सूख जाते हैं। तथा दाने नहीं बनते। रोग से बचाव के लिये बीजों को थीरम या कार्बन्‍डाजिम दवा 2.5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोये। रोग की गंभीरता को देखते हुये रोबराल (0.2 प्रतिशत) या डाइथेन एम 45 (0.25 प्रतिशत) का छिड़काव 15 दिन के अंतराल से करें।
कीट नियंत्रण
अलसी की फसल पर विभिन्‍न अवस्‍थाओं पर कली मक्‍खी, अलसी की इल्‍ली, अर्धकुण्‍डलक इल्‍ली तथा चने की इल्‍ली का विशेष प्रकोप होता है।
कली मक्‍खी (बडलाई)
पहचान –
प्रौढ़ मक्‍खी आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती है। इसके पंख पारदर्शी होते है। इल्‍ली गुलाबी रंग की होती है।
नुकसान का प्रकार -
इल्लियां कलियों , फूलों विशेषकर अण्‍डाशयों को खाती है जिससे कैप्‍सूल नहीं बनते हैं एवं बीज भी नहीं बनते। सामान्‍य बोनी में 60-70 प्रतिशत तथा देर से बोने पर 82 से 88 प्रतिशत कलियॉं इस रोग के द्वारा ग्रसित देखी गई है। मादा मक्‍खी 1 से 10 तक अण्‍डे पंखुडी के निचले हिस्‍से में रखती है जिसमें इल्‍ली निकलकर कली के अंदर जनन अंगों विशेष रूप से अण्‍डाशयों को खाती है जिससे कली पुष्‍प के रूप में विकसित नहीं होती तथा कैप्‍सूल एवं बीजों का निर्माण ही नही होता है।
नियंत्रण
1 . बोनी अक्‍टूबर मध्‍य के पूर्व करने से कीट से साधारणत: नुकसान नहीं होता है।
2 . निरोधक किस्‍में जैसे आर 552, जवाहर 23 लगाना चाहिये।
3 . प्रकाश प्रपंच का उपयोग करें। कीट रात्रि में प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं। रोज सुबह इनको इकटटा कर नष्‍ट करें।
4 . इस कीट की इल्लियों को एक मित्र कीट ( सस्‍टसिस हेंसिन्‍यूरी) 50 प्रतिशत परजवी युक्‍त कर मार देता है। इसके अतिरिक्‍त इलासमय यूरोटोमा, टीरीमस टेट्रास्टिक्‍स आदि कीट प्राक़ृतिक रूप से इस कीट के मेगट पर अपना निर्वाह करते हुये कली मक्‍खी की इल्लियों को बढ़ने से रोकते हैं।
5 . एक किलो ग्राम गुड को 75 लीटर पानी में घोलकर मटटी के बर्तनों की सहायता से कई स्‍थानों पर रखें। इस कीट के प्रौढ गुड के घोल की ओर आकर्षित होते हैं।
6 . कीट की संख्‍या अधिक होने पर फास्‍फोमिडान 85 एस.एव 300 मि.ली. पानी में अथवा इण्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी 1500 मि.ली. / हे. का प्रथम छिड़काव इल्लियों के प्रकोप प्रारंभ होने पर दूसरा 15 दिन बाद करें। आवश्‍यकता पड़ने पर तीसरा छिड़काव 15 दिन बाद पुन: करें।
अलसी की इल्‍ली
पहचान –
प्रौढ़ कीट मध्‍यम आकार का गहरे भूरे रंग का या घूसर रंग का होता है। अगले पंख गहरे घूसर रंग के पीले धब्‍बों से युक्‍त होते है तथा पिछले पंख सफेद चमकीले अर्ध पारदर्शक होकर बाहरी सतह घूसर रंग की होती है। इल्लियां लम्‍बी भूरे रंग की होती है।
नुकसान का प्रकार
ये कीट अधिकतर पत्तियों की बाहर की सतह को खाती है। इस कीट की इल्लियां तने के ऊपर भाग में पत्तियों को चिपका कर खाती रहती है। इस कारण कीट से ग्रसित पौधों की बाढ़ रूक जाती है।
नियंत्रण
इस कीट की 92 प्रतिशत इल्लियां मरर्तिर इंडिका नामक मित्र कीट के परजीवी युक्‍त होती है तथा ये बाद में मर जाती है।
अर्ध कुण्‍डलक इल्‍ली
पहचान – इस कीट के प्रौढ शलभ (पतंगा) के अगले पंखों पर सुलहरे धब्‍बे रहते हैं। इल्लियां हरे रंग की होती है।
नुकसान का प्रकार
इल्लियां पत्तियों को खाती हैं बाद में फल्लियों को भी इस कीट की इल्लियां नुकसान पहुंचाती है।
चने की इल्‍ली
पहचान – इस कीट के प्रौढ़ भूरे रंग के होते है तथा अगले पंखों में सेंम के बीज के समान काला धब्‍बा रहता है। इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती है। जैसे पीले हरें, गुलाबी, नारंगी, भूरे या काली आदि शरीर के किनारों पर इल्लियों में हल्‍की एवं गहरी धारियां होती हैं।
नुकसान के प्रकार
छोटी इल्लियां पौधे के हरे पदार्थो को खुरचकर खाती है। बड़ी इल्लियां कलियों, फूलों एवं फलियों को नुकसान पहुंचाती है। इल्लियां फल्लियों में छेदकर अपना सिर अंदर घुसाकर दानों को खाती है। एक इल्‍ली अपने जीवन काल में 30 - 40 फल्लियों को नुकसान पहुंचाती है।
निंयत्रण
1 . फेरोमेन प्रपंचों का उपयोग करें। एक हेक्‍टेयर के लिये 5 प्रपंचों की आवश्‍यकता होती है।
2 . खेत में प्रकाश प्रपंच का उपयोग करें। प्रपंच से एकत्र हुये कीड़ों को नष्‍ट करें।
3 . क्‍लोरपायरीफास 20 ई.सी. की 750 से 1000 मि.ली. मात्रा प्रति हे. के हिसाब से छिड़काव करें।
4 . न्‍यूक्लियर पाली हेड्रोसिस विषाणु 250 एल ई का छिड़काव करें।
5 . कीट संख्‍या अधिक होने पर मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी 750 मि.ली अथवा इण्‍डोसल्‍फान 35 ईसी 1000 मि.ली का छिड़काव करें या कार्बोरिल 50 प्रतिशत पाउडर का 20 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से छिड़काव करें।

सोयाबीन

सोयाबीन
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
सोयाबीन की खेती अधिक हल्‍कीरेतीली व हल्‍की भूमि को छोड्कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है परन्‍तु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिए अधिक उपयुक्‍त होती है। जहां भी खेत में पानी रूकता हो वहां सोयाबीन न लें।
ग्रीष्‍म कालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवश्‍य करनी चाहिए। वर्षा प्रारम्‍भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए। इससे हानि पहॅचाने वाले कीटों की सभी अवस्‍थाएं नष्‍ट होगीं। ढेला रहित और भूरभुरी मिटटी वाले खेत सोयाबीन के लिए उत्‍तम होते होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रि‍तकूल प्रभाव पड्ता है अत: अि‍धक उत्‍पादन के ि‍लए खेत में जल ि‍नकास की व्‍यवस्‍था करना आवश्‍यक होता है। जहां तक संभव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें ि‍जससे अंकुि‍रत खरपतवार नष्‍ट हो सके। यथा संभव मेंड् और कूड् रिज एवं फरो बनाकर सोयाबीन बोय।
बीज दर
1. छोटे दाने वाली किस्‍में – 70 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर
1.2 मध्‍यम दोन वाली किस्‍में – 80 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर
1.3 बडे़ दाने वाली किस्‍में – 100 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर
1.बोने का समय -
जून के अन्तिम सप्‍ताह में जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक का सयम सबसे उपयुक्‍त है बोने के समय अच्‍छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्‍त नमी होना चाहिए। जुलाई के प्रथम सप्‍ताह के पश्‍चात बोनी की बीज दर 5- 10 प्रतिशत बढ़ा देनी चाहिए।
पौध संख्‍या
4 – 5 लाख पौधे प्रति हेक्‍टर ‘’ 40 से 60 प्रति वर्ग मीटर ‘’ पौध संख्‍या उपयुक्‍त है। जे.एस. 75 – 46 जे. एस. 93 – 05 किस्‍मों में पौधों की संख्‍या 6 लाख प्रति हेक्‍टेयर उपयुक्‍त है। असीमित बढ़ने वाली किस्‍मों के लिए 4 लाख एवं सीमित वृद्धि वाली किस्‍मों के लिए 6 लाख पौधे प्रति हेक्‍टेयर होना चाहिए।
बोने की विधि
सोयाबीन की बोनी कतारों में करना चाहिए। कतारों की दूरी 30 सेमी. ‘’ बोनी किस्‍मों के लिए ‘’ तथा 45 सेमी. बड़ी किस्‍मों के लिए उपयुक्‍त है। 20 कतारों के बाद कूड़ जल निथार तथा नमी संरक्षण के लिए खाली छोड़ देना चाहिए। बीज 2.5 से 3 सेमी. गहराई त‍क बोयें। बीज एवं खाद को अलग अलग बोना चाहिए जिससे अंकुरण क्षमता प्रभावित न हो।
बीजोपचार
सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते है। इसकी रोकथाम हेतु बीज को थीरम या केप्‍टान 2 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम या थायोफेनेट मिथीईल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम एवं कार्बेन्‍डाजिम 2 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज से उपचारित करके बोयें।
कल्‍चर का उपयोग
फफूँदनाशक दवाओं से बीजोपचार के पश्‍चात बीज को 5 ग्राम राइजोबियम एवं 5 ग्राम पी.एस.बी.कल्‍चर प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए एवं शीघ्र बोनी करना चाहिए। ध्‍यान रहें कि फफूँदनाशक दवा एवं कल्‍चर को एक साथ न मिलाऐं।
सोयाबीन की उन्‍नत किस्‍में
क्र
नाम किस्‍म
अवधि दिन
उपज प्रति हे. ‘’ क्विंटल’’
उपयुक्‍त भूमि
फूल का रंग
दानों का रंग
दानों का आकार
पौधें की ऊचाई सेमी.
1
पंजाब-1
90-95
20-22
वर्षा निर्भर हल्‍की उथली
बैंगनी
पीला
छोटा
40
2
जे.एस.335
95-95
25-30
तदैव
बैगनी
पीला
मध्‍यम
46
3
जे.एस.90-40
90-95
25-30
छोटा
45
4
जे.एस.71-05
95-95
20-24
मध्‍यम
30-40
5
जे.एस.93-05
90-95
20-24
30-40
6
एम.ए.यू.एस 47
90-95
20-25




7
एम.ए.सी.एस 13
90-100
25-30
मध्‍यम मिरूम बैंगनी
बैंगनी
दूधिया
65
8
पी.के. 472
98
25
तदैव
सफेद
पीला
35-45
9
एम.एस.सी.एस 68
90-100
20-25
तदैव
बैंगनी
दूधिया
40
10
पूसा-16
105-115
30-35
तदैव
बैंगनी
पीला
60-90
11
जे.एस.80-21
95-109
24
कम जल निकास वाली गहरी काली
बैंगनी
पीला
मध्‍यम
65
12
जे.एस.75-46
90-100
24
तदैव
बैंगनी
पीला
मध्‍यम
60
13
दुर्गा
102-105
17
बैंगनी
मध्‍यम
50
14
जे.एस.72-44
110
25-30
छोटा
50
15
जे.एस.76-205
104
16-22
छोटा
50-60
16
पी.के.1029
90-95
25-30
सफेद
मध्‍यम
50-60
17
पी.के.1024
120
30-35
सफेद
मध्‍यम
50-60
18
पी.के.416
115-120
32-38
सफेद
मध्‍यम
60-70
19
पी.के. 564
105-115
25-35
तदैव
सफेद
पीला
मध्‍यम
70-80
20
एन आर सी 37
110-115
25-30
तदैव
सफेद
पीला
मध्‍यम
90-100

मध्‍यप्रदेश के विभिन्‍न जलवायु क्षेत्र के लिए सोयाबीन की अनुशंसित जातियॉं
कृषि जलवायु क्षेत्र
जिले
जाजियॉं
छत्‍तीसगढ़ का मैदान – कमोर का पठार तथा

बालाघाट, बारासिवनी
जे.एस.80-21 तथा जे.एस.335
सतपुडा की पहाडि़यॉं
जबलपुर, कटनी, पन्‍ना, सतना, रीवा, सीधी
शहडोल, उमरिया, डिंडोरी, मंडला, सिवनी,
जे.एस.80-21,जे.एस.335,
जे.एस. 90-41, मैक्‍स- 58 तथा पी.के.- 472, जे.एस.93-05
विंध्‍य का पठार
भोपाल, सीहोर, विदिशा,
सागर, दमोह, रायसेन
जे.एस.76-205, जे.एस.80-21 तथा पी.के.472 जे.एस.93-05
मध्‍य नर्मदा घाटी
नरसिंपुर, होशंगाबाद, हरदा
जे.एस.80-21, जे.एस. 90-40, पी.के.472, जे.एस. 93-05 तथा एन.आर.सी.37
गिर्द क्षेत्र
ग्‍वालियर, भिण्‍ड, मुरैना, शिवपुरी, गुना
जे.एस.80-21, जे.एस. 335 तथा जे.एस. 93-05
बुन्‍देलखंड़ क्षेत्र
छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया
जे.एस. 80-21, जे.एस.335, जे.एस. 90-41, पी.के.472, जे.एस. 93-05 एन.आर.सी. 37
सतपुड़ा की पहाडि़यॉं
छिंदवाडा एवं बैतूल
जे.एस. 80-21, जे.एस. 335, जे.एस. 90-41, पी.के. 472 जे.एस.93-05
मालवार का पठार
मंदसौर, रतलाम , रायगढ, शाजापुर, उज्‍जैन, इंदौर, देवास, एवं धार का कुछ क्षेत्र
जे.एस.71-05, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41, जे.एस. 76-205, जे.एस. 80-21, जे.एस. 335, पी.के.472, अहिल्‍या 1,2 तथा 3 जे.एस. 93-05 एन आर सी 37
निमाड़ घाटी
खंडवा, खरगौन, बड़वानी
जे.एस.335, जे.एस.90-41 जे.एस. 93-05 एन.आर;सी. 37
झाबुआ की पहाडि़यॉं
झाबुआ एवं धार का कुछ भाग
जे.एस. 335, जे.एस. 90-41, जे.एस. 93-05
समन्वित पोषण प्रबंधन
अच्‍छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्‍पोस्‍ट) 5 टन प्रति हेक्‍टर अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्‍छी तरह मिला देवें तथा बोते समय 20 किलो नत्रजन 60 किलो स्‍फुर 20 किलो पोटाश एवं 20 किलो गंधक प्रति हेक्‍टर देवें। यह मात्रा मिटटी परीक्षण के आधर पर घटाई बढ़ाई जा सकती है तथा संभव नाडेप, फास्‍फो कम्‍पोस्‍ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में लगभग 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिए। गहरी काली मिटटी में जिंक सल्‍फेट 50 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर एवं उथली मिटिटयों में 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर की दर से 5 से 6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन
फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्‍यक होता है। बतर आने पर डोरा या कुल्‍फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करें व दूसरी निंदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारो को नष्‍ट करने के लिए क्‍यूजेलेफोप इथाइल एक लीटर प्रति हेक्‍टर अथवा घांस कुल और कुछ चौड़ी पत्‍ती वाले खरपतवारों के लिए इमेजेथाफायर 750 मिली. ली. लीटर प्रति हेक्‍टर की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के प्रयोग में बोने के पूर्व फलुक्‍लोरेलीन 2 लीटर प्रति हेक्‍टर आखरी बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़के और अवा को पेन्‍डीमेथलीन 3 लीटर प्रति हेक्‍टर या मेटोलाक्‍लोर 2 लीटर प्रति हेक्‍टर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर फलैटफेन या फलेटजेट नोजल की सहायकता से पूरे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों के मिटटी में पर्याप्‍त पानी व भुरभुरापन होना चाहिए।।
सिंचाई
खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्‍यत: सोयाबीन को सिंचाई की आवश्‍यकता नही होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात सितंबर माह में यदि खेत में नमी पर्याप्‍त न हो तो आवश्‍यकतानुसार एक या दो हल्‍की सिंचाई करना सोयाबीन के विपुल उत्‍पादन लेने हेतु लाभदायक है।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
(अ)सोयाबीन की फसल पर बीज एवं छोटे पौधे को नुकसान पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्‍लूबीटल) पत्‍ते खाने वाली इल्लियां, तने को नुकसान पहुंचाने वाली तने की मक्‍खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का प्रकोप होता है एवं कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ जाती है। इन कीटों के नियंत्रण के उपाय निम्‍नलिखित है:
(अ)कृषिगत नियंत्रण
खेत की ग्रीष्‍मकालीन गहरी जुताई करें। मानसून की वर्षा के पूर्व बोनी नहीं करे। मानसून आगमन के पश्‍चात बोनी शीघ्रता से पूरी करें। खेत नींदा रहित रखें। सोयाबीन के साथ ज्‍वार अथवा मक्‍का की अंतरवर्तीय खेती करें। खेतों को फसल अवशेषों से मुक्‍त रखें तथा मेढ़ों की सफाई रखें।
रासायनिक नियंत्रण
बुआई के समय थयोमिथोक्‍जाम 70 डब्‍लू एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से प्रारम्भिक कीटों का नियंत्रण होता है अथवा अंकुरण के प्रारम्‍भ होते ही नीला भृंग कीट नियंत्रण के लिए क्‍यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पेराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत ) 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर की दर से भुरकाव करना चाहिए। कई प्रकार की इल्लियां पत्‍ती छोटी फलियों और फलों को खाकर नष्‍ट कर देती है इन कीटों के नियंत्रण के लिए घुलनशील दवाओं की निम्‍नलिखित मात्रा 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। हरी इल्‍ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला भाग चौड़ा होता है सोयाबीन के फूलों और फलियों को खा जाती है जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती है। चूकि फसल पर तना मक्‍खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्‍ली लगभग एक साथ आक्रमण करते हैं अत: प्रथम छिड़काव 25 से 30 दिन पर एवं दूसरा छिड़काव 40-45 दिन की फसल पर आवश्‍यक करना चाहिए।
क्र
प्रयुक्‍त कीटनाशक
मात्रा प्रति हेक्‍टर
1
क्‍लोरपायरीफॉस 20 ई.सी
1.5 लीटर
2
क्‍यूनालफॉस 25 ई.सी
1.5 लीटर
3
ईथियान 50 ई.सी
1.5 लीटर
4
ट्रायजोफॉस 40 ई.सी
800 मि.ली.
5
ईथोफेनप्राक्‍स 10 ई.सी
1.0 लीटर
6
मिथोमिल 40 एस.पी.
1.0 किग्रा.
7
नीम बीज का घोल 5 प्रतिशत
35 कि.ग्रा. पावडर
8
थयोमिथेक्‍जाम 25 डब्‍लू जी
100 ग्राम
छिड़काव यन्‍त्र उपलब्‍ध न होने की स्थिति में निम्‍न लिखित में से किसी एक पावडर (डस्‍ट) का उपयोग 20 – 25 किग्रा. प्रति हेक्‍टर करना चाहिए
1. क्‍यूनालफॉस – 1.5 प्रतिशत
2. मिथाईल पैराथियान – 2.0 प्रतिशत
जैविक नियंत्रण
कीटों के आरम्भिक अवस्‍था में जैविक कट नियंत्रण हेतु बी.टी एवं ब्‍यूवेरीया बैसियाना आधरित जैविक कीटनाशक 1 किलोग्राम या 1 लीटर प्रति हेक्‍टर की दर से बुवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिन बाद छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई समतुल्‍य का 500 लीटर पानी में घोलकर बनाकर प्रति हेक्‍टेयर छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशकों की जगह जैविक कीटनाशकों को अदला बदली कर डालना लाभदायक होता है।
1. गर्डल बीटल प्रभावित क्षेत्र में जे.एस. 335, जे.एस. 80 – 21, जे.एस 90 – 41 , लगावें
1.2. निंदाई के समय प्रभावित टहनियां तोड़कर नष्‍ट कर दें
1.3. कटाई के पश्‍चात बंडलों को सीधे गहराई स्‍थल पर ले जावें
1.4. तने की मक्‍खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें
1.(ब) रोग
1 . फसल बोने के बाद से ही फसल निगरानी करें। यदि संभव हो तो लाइट ट्रेप तथा फेरोमेन टयूब का उपयोग करें।
2 . बीजोपचार आवश्‍यक है। इसके बाद रोग नियंत्रण के लिए फफूँद के आक्रमण से बीज सड़न रोकने हेतु कार्बेन्‍डाजिम 1 ग्राम + 2 ग्राम थीरम के मिश्रण से प्रति किलो ग्राम बीज उपचारित करना चाहिए। थीरम के स्‍थान पर केप्‍टान एवं कार्बेन्‍डाजिम के स्‍थान पर थायोफेनेट मिथाइल का प्रयोग किया जा सकता है।
3 . पत्‍तों पर कई तरह के धब्‍बे वाले फफूंद जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिए कार्बेन्‍डाजिम 50 डबलू पी या थायोफेनेट मिथाइल 70 डब्‍लू पी 0.05 से 0.1 प्रतिशत से 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिए। पहला छिड़काव 30 -35 दिन की अवस्‍था पर तथा दूसरा छिड़काव 40 – 45 दिन की अवस्‍था पर करना चाहिए।
4 . बैक्‍टीरियल पश्‍चयूल नामक रोग को नियंत्रित करने के लिए स्‍ट्रेप्‍टोसाइक्‍लीन या कासूगामाइसिन की 200 पी.पी.एम. 200 मि.ग्रा; दवा प्रति लीटर पानी के घोल और कापर आक्‍सीक्‍लोराइड 0.2 (2 ग्राम प्रति लीटर ) पानी के घोल के मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए। इराके लिए 10 लीटर पानी में 1 ग्राम स्‍ट्रेप्‍टोसाइक्‍लीन एवं 20 ग्राम कापर अक्‍सीक्‍लोराइड दवा का घोल बनाकर उपयोग कर सकते हैं।
5 . गेरूआ प्रभावित क्षेत्रों (जैसे बैतूल, छिंदवाडा, सिवनी) में गेरूआ के लिए सहनशील जातियां लगायें तथा रोग के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही 1 मि.ली. प्रति लीटर की दर से हेक्‍साकोनाजोल 5 ई.सी. या प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. या आक्‍सीकार्बोजिम 10 ग्राम प्रति लीटर की दर से ट्रायएडिमीफान 25 डब्‍लू पी दवा के घोल का छिड़काव करें।
6 . विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व वड व्‍लाइट रोग प्राय: एफ्रिडस सफेद मक्‍खी, थ्रिप्‍स आदि द्वारा फैलते हैं अत: केवल रोग रहित स्‍वस्‍थ बीज का उपयोग करना चाहिए। एवं रोग फैलाने वाले कीड़ों के लिए थायोमेथेक्‍जोन 70 डब्‍लू एव. से 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम की दर से उपचारित कर एवं 30 दिनों के अंतराल पर दोहराते रहें। रोगी पौधों को खेत से निकाल देवें। इथोफेनप्राक्‍स 10 ई.सी. 1.0 लीटर प्रति हेक्‍टर थायोमिथेजेम 25 डब्‍लू जी, 1000 ग्राम प्रति हेक्‍टर।
7 . पीला मोजेक प्रभावित क्षेत्रों में रोग के लिए ग्राही फसलों (मूंग, उड़द, बरबटी) की केवल प्रतिरोधी जातियां ही गर्मी के मौसम में लगायें तथा गर्मी की फसलों में सफेद मक्‍खी का नियमित नियंत्रण करें।
8 . नीम की निम्‍बोली का अर्क डिफोलियेटर्स के नियंत्रण के लिए कारगर साबित हुआ है।
फसल कटाई एवं गहराई
अधिकांश पत्तियों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेना चाहिए। पंजाब 1 पकने के 4 – 5 दिन बाद, जे.एस. 335 , जे.एस. 76 – 205 एवं जे.एस. 72 – 44 जे.एस. 75 – 46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने लगती हैं। कटाई के बाद गडढ़ो को 2 – 3 दिन तक सुखाना चाहिए जब कटी फसल अच्‍छी तरह सूख जाये तो गहराई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई थ्रेसर, ट्रेक्‍टर, बेलों तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए। जहां तक संभव हो बीज के लिए गहराई लकड़ी से पीट कर करना चाहिए, जिससे अंकुरण प्रभावित न हो।
अन्‍तर्वर्तीय फसल पद्धति
सोयाबीन के साथ अन्‍तर्वर्तीय फसलों के रूप में निम्‍नानुसार फसलों की खेती अवश्‍य करें
1 . अरहर + सोयाबीन (2:4)
2 . ज्‍वार + सोयाबीन (2:2)
3 . मक्‍का + सोयाबीन ( 2:2)
4 . तिल + सोयाबीन (2:2)
अरहर एवं सोयाबीन में कतारों की दूरी 30 से.मी. रखें।

राई एवं सरसों

राई एवं सरसों
मध्‍य प्रदेश भारत की तिलहन उत्‍पादन करने वाला महत्‍वपूर्ण प्रदेश है। राज्‍य में राई एवं सरसों की खेती लगभग 6.82 लाख हेक्‍टर में की जाती है। प्रदेश में चम्‍बल संभाग के मुरैना जिले में इसकी सर्वाधिक उत्‍पादकता (1359 किलो / हे.) है, जबकि राज्‍य की उत्‍पादकता मात्र 1083 किलो / हे. है। राई- सरसों , उत्‍तरी मध्‍यप्रदेश की प्रमुख रबी फसल है जो लगभग 70 प्रतिशत क्षेत्र में बोई जाती है। वर्तमान में मालवा क्षेत्र में भी इसका रकबा बढ़ा है। राई एवं सरसों की खेती सिंचित एवं बरानी क्षेत्रों में आसानी से की जाती है तथा इसके तेल का प्रयोग खाद्य तेल के रूप में तथा खली पशुओं के मुख्‍य आहार के रूप में प्रयोग की जाती है। प्रदेश मे इसकी खेती का रकबा एवं उत्‍पादन लगातार बढ़ रहा है तथा भविष्‍य में इसकी काफी संभावनाएं हैं।
राई सरसों प्रजातियों में मुख्‍य रूप से सरसों की खेती कुल क्षेत्र के 90 प्रतिशत क्षेत्र में की जाती है, बाकी बचे 10 प्रतिशत क्षेत्र में तोरिया आदि की खेती सीमान्‍त एवं लघु सीमान्‍त क्षेत्रों में की जाती है।
उन्‍नत जातियॉ
(1) तोरिया

(अ) जवाहर तोरिया – 1 (जे.एम.टी- 689 ) – राई – सरसों , मुरैना द्वारा 1996 में विकसित इस जाति के पौधों की ऊंचाई 125 – 160 से.मी. है तथा पकने की अवधि 85-90 दिन है। इसकी उपज देने की क्षमता 15 से 18 क्विं. प्रति हेक्‍टर है। बीज का रंग कत्‍थई लाल सा होता है और इसमें तेल की मात्रा 42 प्रतिशत से अधिक होती है। यह किस्‍म श्‍वेत किटट रोग के प्रतिरोधी है।
(ब) भवानी
इसके पौधों की ऊचाई 70-75 से.मी. तक होती है। यह किस्‍म 80-85 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 12 से 13.5 क्विं प्रति हेटर तक होती है । बीज का रंग भूरा तथा तेल की मात्रा 44 प्रतिशत तक पाई जाती है। यह शीघ्र पकने वाली एवं द्विफसलीय पद्यति के लिये एक उचित किस्‍म है।
(स) टी – 9
इसके पौधों की ऊचाई 102 – 108 से.मी होती है तथा यह 95 – 100 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 12- 15 क्विं प्रति हेक्‍टर होती है। इसके बीज का रंग भूरा जिसमें तेल की मात्रा 44 प्रतिशत तक पाई जाती है।
(2) गोभी सरसों
(अ) टेरी उत्‍तम जवाहर (टेरी ‘’00’’ आर – 9903)
यह गोभी सरसों की किस्‍म टेरी, नई दिल्‍ली द्वारा 2004 में विकसित की गई है। इसका मुल्‍यांकन टेरी, नई दिल्‍ली एवं अखिल भारतीय समन्वित राई – सरसों ज.ने कृषि विश्‍वविद्यालय परियोना द्वारा किया गया है। किस्‍म को म.प्र. के लिये अनुमोदित किया गया है। इसमें केनोला प्रकार का (‘’00’’टाइप) तेल पाया जाता है। इसके पौधों की ऊंचाई 125-130 से.मी. होती है। इसके पकने की अवधि 130-135 दिन होती है। इसमें फलियों के चटकने के प्रति रोधिता पाई जाती है एवं पौधे के गिरने के प्रति सहिष्‍णु है। इसके बीज का रंग भूरा होता है। तथा इसकी उपज क्षमता 15-17 क्विं प्रति हेक्‍टर होती है। इसमें तेल की मात्रा 42 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसके 1000 दानों का वजन 3.2 से 3.5 ग्राम तक होता है। इसके तेल में युरासिक अम्‍ल की मात्रा 2 प्रतिशत से कम एवं ओलिक अम्‍ल की मात्रा 60 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसको तेल रहित प्रति ग्राम खली में नोलेट की मात्रा 30 माइक्रोमोल्‍स से भी कम पायी जाती है, जो पशु आहार के लिये उपयुक्‍त पाई गई है।
(3) सरसों
(1) जवाहर सरसों – 1 (जे.एम.- 1) जे.एम. डब्‍ल्‍यू.आर. 93-39
यह सरसों की किस्‍म 1999 में राई- सरसों परियोजना , मुरैना द्वारा विकसित की गई है तथा यह देश की पहली श्‍वेत किटट रोग रोधी किस्‍म है। इसके पौधों की ऊंचाई 170-185 से.मी होती है तथा यह किस्‍म 125-130 दिनों में पक जाती है। यह किस्‍म फलियों के चटकने तथा पौधों के गिरने के प्रति सहिष्‍णु है। इसकी उपज क्षमता 15 से 20 क्विं प्रति हैक्‍टर है। इसके बीज का रंग काला भूरा तथा आकार गोल होता है। इसमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक होती है। इसके 1000 दानों का वजन 4-5 ग्राम तक होता है।
(2) जवाहर सरसों – 2 (जे.एम-2) जे.एम.डब्‍ल्‍यू.आर. 941 -1-2
वर्ष 2004 में राई सरसों परियोजना मुरैना द्वारा विकसित यह किस्‍म भी श्‍वेत किटट रोग प्रतिरोधी किस्‍म है एवं अल्‍टरनेरिया भुलसन रोग के प्रति सहिष्‍णु है। इसके पौधों की ऊंचाई 165-170 सें.मी तक पकने की अवधि 135-138 दिन है। यह किस्‍म भी फलियों के चटकने एवं पौधों के गिरने के प्रति सहिष्‍णु है। इसकी उपज क्षमता 15 से 30 क्वि. प्रति हेक्‍टर तक पाई गई है। इसके काले भूरे रंग गोल आकार के बीज में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसके 1000 दानों का वजन 4.5 ग्राम से 5.2 ग्राम तक होता है।
(3) जवाहर सरसों – 3 (जे.एम.-3) जे . एम. एम . 915
यह किस्‍म भी राई-सरसों परियोजना मुरैना द्वारा 2004 में विकसित एवं अनुमोदित की गई है। इस किस्‍म आल्‍टरनेरिया भुलसन रोग के प्रति सहिष्‍णु है तथा इस किस्‍म में अन्‍य किस्‍मों की अपेक्षाकृत माहू का प्रकोप भी कम पाया जाता है। इसके पौधों की ऊचाई 180- 185 से.मी , फलियों की संख्‍या 180-200 प्रति पौधा एवं इसके पकने की अवधि 130 से 132 दिन है। इसकी उपज क्षमता 15 से 25 क्विं प्रति हेक्‍टर है। काले भूरे एवं गोलाकार बीजों में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसके 1000 दानों का वजन 4 से 5 ग्राम तक होता है।
(4) रोहिणी (के.आर.वी- 24)
इस जाति की फलियॉ ठहनी से चिपकी हुई होती है। इसके पौधों की ऊंचाई 150- 155 से.मी होती है। यह किस्‍म 130 – 135 दिनों में पककर 20 से 22 क्विं प्रति हेक्‍टर उपज देती है। इसके दाने में 42 प्रतिशत से अधिक तेल पाया जाता है।
(5) वरूणा (टी-59)
यह सरसों की बहुत पुरानी प्रचलित एक स्थिर किस्‍म है। इसके पौधों की ऊचाई 145-155 से.मी. तथा इसके पकने की अवधि 135-140 दिन एवं बीजों में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत से अधिक पाई जाती है। इसकी औसत उपज क्षमता 20-22 क्विं प्रति हेक्‍टर है। इसके 1000 दानों का वजन 5 से 5.5 ग्राम तक होता है।
(6) क्रांति
सरसों की इस जाति में आरा मक्‍खी का प्रकोप कम होता है। इसके पौधों की ऊंचाई 155-200 से.मी. तक पकने की अवधि 125-135 दिन होती है। इसकी औसत पैदावार 1 5-20 क्विं प्रति हेक्‍टर होती है। इसके 1000 दानों का वजन 4.5 ग्राम होता है, जिसमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत से अधिक होती है।
(7) पूसा बोल्‍ड
आर.ए.आर.आई, नई दिल्‍ली द्वारा 1984 में विकसित की गई यह किस्‍म बड़े दाने एवं अच्‍छी पैदावार देने वाली किस्‍म है। इसके पौधों की ऊचाई 1 70-180 से.मी तथा पकने की अवधि 125-130 दिन है। इसकी औसत उपज क्षमता 15 से 20 क्विं प्रति हेक्‍टर है। 1000 दानों का वजन 4.80 ग्राम होता है, जिसमें तेल की मात्रा 41 प्रतिशत से अधिक पाई गई है।
भूमि का चुनाव
राई-सरसों के लिए उत्‍तम जल निकास वाली समतल या बुलई दुमट भूमि सबसे अधिक उपयुक्‍त है।
भूमि की तैयारी
अधिकतम उपज प्राप्‍त करने हेतु खेत की मिटटी को जुताई द्वारा अत्‍याधिक भुरभुरी बनाकर समतल कर लेना चाहिये। भूमि की तैयारी के समय नमी संरक्षण का विशेष ध्‍यान रखना चाहिये। इसके लिये खेत की जुताई करने के तुरंत बाद साथ ही साथ पाटा भी चलाना चाहिए।
बीज की मात्रा एवं उपचार
तोरिया एवं सरसों के लिये 5 किलोग्राम बीज प्रति हेक्‍टर पर्याप्‍त है। बोने से पूर्ण बीज को 6 ग्राम एप्रान एस.डी.-35 य ा 3 ग्राम थाइरम से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।
जैविक खाद

1 . बारानी क्षेत्र में देशी खाद (40-50 क्विं प्रति हेक्‍टर) बुआई के करीब एक महीने पूर्व खेत में डालें और वर्षा के मौसम में जुताई के स ाथ खेत में मिला दें।
2. सिंचित क्षेत्रों के लिये अच्‍छा सड़ा हुआ देशी खाद (100 क्विं प्रति हेक्‍टर) बुआई के करीब एक महीने पूर्व खेत में डालकर जुताई से अच्‍छी तरह मिला दें।

रासायनिक खाद
क्र संख्‍या
फसल का नाम
रासायनिक खाद(किग्रा / हे.)


नत्रजन
स्‍फुर
पोटाश
1
तोरिया
60
30
20
2
असिंचित सरसों
40
20
10
3
सिंचित सरसों
80
40
20
4
सिंचित दो फसली क्षेत्र में
100
50
25

जिन क्षेत्रों में जमीन में गन्‍धक की कमी हो उनमें 20-25 किग्रा प्रति हेक्‍टर गन्‍धक तत्‍व देना आवश्‍यक है, जिसकी पूर्ती अमोनियम सल्‍फेट , सुपर फास्‍फेट अथवा अमोनिया फास्‍फेट सल्‍फेट आदि उर्वरकों से की जा सकती है।
उपरोक्‍त उर्वरक उपलब्‍ध न होने पर जिपस्‍म या पायराइड का उपयोग भी किया जा सकता है। जस्‍ते की कमी वाले क्षेत्रों में 2 या 3 फसलों के बाद 25 किलो ग्राम जिंक सल्‍फेट प्रति हेक्‍टर आधार खाद के साथ मिलाकर उपयोग करें।
बोने का समय
(अ) तोरिया : सितंबर माह का प्रथम पक्ष (जब औसत तापक्रम 28-30 डिग्री से. ग्रे. हो ) तोरिया के बाद गेहूं की फसल लेने हेतु इसकी बोनी आवश्‍यक रूप से सितंबर माह के दूसरे सप्‍ताह तक पूरी कर लेनी चाहिये। गेहूं के अलावा प्‍याज की फसल भी आसानी से ली जा सकती है।
(ब) सरसों : - अक्‍टूबर माह का प्रथम पक्ष (जब औसत तापक्रम 26-28 डिग्री से.गेड हो) इसकी खेती आवश्‍यक रूप से अक्‍टूबर माह के दूसरे सप्‍ताह तक पूरी कर लेना चाहिये ताकि फसल कीट रोग व्‍याधियों एवं पाला आदि प्रकोप से बची रहे।
बोने की विधि एवं पौध अन्‍तराल
अधिक उत्‍पादन के लिये ट्रेक्‍टर चलित बुआई की मशीन एवं देशी हल के साथ नारी द्वारा फसल की कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. रखकर बीज को 2.5 से 3 से.मी की गहराई पर ही बोएं। बीज को अधिक गहरा बोने पर अंकुरण कम हो सकता है। पौधों की दूरी 10 से.मी रखना चाहिये।
खरपतवार नियंत्रण
बुवाई के 20-25 दिन बाद हैण्‍ड हो अथवा निदाई गुडाई करना आवश्‍यक होता है साथ ही साथ घने पौधों को निकालकर अलग कर देना चाहिये।
प्‍याजी खरपतवार के लिये रासायनिक खरपतवारनाशी बासलिन 1 कि.ग्राम. सक्रीय तत्‍व प्रति हैक्‍टर बुआई से पूर्व छिड़क कर भूमि में मिलावें अथवा बोनी के तुरंत बाद एवं अंकुरण से पूर्व आइसोप्रोटूरोन अथवा पेन्‍डीमिथलीन खरपतवारनाशी का 1 क्रिग्रा. सक्रीय तत्‍व का छिड़काव करें। इन खरपतवार नाशियों से दोनों ही प्रकार (एक दली व दो दली) के खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते है। खरपतवार नाशियों का छिड़काव फलेट फेन नोजल से 600 लीटर पानी का प्रति हैक्‍टर उपयोग करें। छिड़काव के समय खेत में उचित नमी होनी आवश्‍यक है।
फसल पद्धति
तोरिया सरसों
फसल चक्र
पड़त – तोरिया
पड़त – सरसों (वर्षा आधरित)

तोरिया – गेहूं
मूंग/उड़द – सरसों (वर्षा आधरित)
बाजरा- सरसों
ग्‍वार – सरसों
सोयाबीन – सरसों

अंतर फसल
तोरिया + गोभी सरसों
(1:1 30 से.मी कतारों में)
(वर्षा आधरित )
चना + सरसों
मसूर + सरसों
4:1 (वर्षा आधरित)
गेहूं + सरसों
(9:1) सिंचित
जल प्रबंधन
पलेवा के बाद बोई गई फसल में बुआई के 40-45 दिन बाद तथा बिना पलेवा बोई गई फसलों में पहली सिंचाई 35-40 दिन बाद करने से फसल भरपूर पैदावार मिलती है। आवश्‍यक होने पर 75 -80 दिन बाद दूसरी सिंचाई करें।
फसल संकट
(अ) कीट
(1) राई- सरसों का चेंपा या माहू (एफिड)
यह कीट बहुत छोटा हरा-पीला या भूरा काला रंग का होता है। यह पौधा के तने पुष्‍पदण्‍ड , पुष्‍पक्रम , फली आदि से रस चूसता है। यह कीट बहुत तेजी से बढ़ता है और पूरी फसल को बर्वाद कर सकता है। इस कीड़े की बढ़वार के लिये बादलों वाला मौसम बहुत अनुकूल होता है। इसके प्रकोप से फलियों व तेल की मात्रा कम हो जाती है। अत्‍यधिक प्रकोप होने पर पत्तियों एवं फलियों पर एक विशेष प्रकार का चिपचिपा मीठा पदार्थ छोड़ा जाता है जिस पर काला फफूंद नामक नोग लग जाता है।
नियंत्रण
1. समय पर बुवाई
2. प्रकोप की प्रारंभिक अवस्‍था में कीट ग्रस्‍त टहनियों को तोड़कर नष्‍ट कर दें।
2.
3. फसल पर माहू का प्रकोप होने पर आर्थिक दृष्टि से दवाओं का उपयोग तभी करना चाहिये जब खेत में 30 प्रतिशत पौधों पर माहू हो अथवा प्रति पौधे पर औसतन 8-13 माहू पौधे की ऊपरी 10 से.मी. टहनी पर जाये जायें। माहू के सफल नियंत्रण के लिये डेमेक्रान (फास्‍फोमिडान) 300 मि.ली दवा को 600 लीटर पानी में घोलकर प्रथम छिड़काव अधिक क्षतिकारक अवस्‍था पर एवं दूसरा 15 दिन बाद करने पर अत्‍यधिक लाभ होता है।
3.(2) आरा मक्‍खी
इस मक्‍खी के लावी हरे-पीले रंग से गहरे रंग, 1-1.5 से.मी लम्‍बे होते है तथा अक्‍टूबर से नवम्‍बर तक राई- सरसों की पत्‍ती खाकर बहुत नुकसान करते हैं।
नियंत्रण
1­ इन कीड़ों की रोकथाम मेलाथियान 50 ई.सी या एण्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हैक्‍टर छिडकने से की जा सकती है।
(3) चितकबरा कीड़ा (पेण्‍टेड बग)
यह कीड़ा अक्‍टूबर से नवंबर तथा मार्च माह में सक्रिय होता है। पूर्ण विकसित कीड़ा अण्‍डाकार जिसके ऊपर सफेद , पीले व नारंगी रंग के धब्‍बे होते हैं। यह कीड़ा पौधे के तने तथा पत्तियों से रस चूसता है जिससे पौधो की पत्तियां पर सफेद धब्‍बे स्‍पष्‍ट दिखाई देते हैं। गंभीर प्रकोप में सम्‍पूर्ण पौधे नष्‍ट हो जाते हैं।
नियंत्रण
1. सरसों के पुराने डण्‍ठल व अन्‍य अवशेषों को जलाकर नष्‍ट करें।
2. तोरिया फसल के बोने के 20-25 दिन बाद सिंचाई करें।
3. कीट नियंत्रण के लिये पैराथियोन चूर्ण 2 प्रतिशत प्रति हेक्‍टर 10-15 किलो ग्राम का भूरकाव करें।
4. मेटासिस्‍टाक्‍स 25 ई.सी दवा का 600 मि.ली. प्रति हेक्‍टर की दर से छिड़काव प्रभावशाली पाया गया है।
(ब) रोग
(1) अल्‍टरनेरिया ब्‍लाइट (काला धब्‍बा)
यह रोग भी दो अवस्‍थाओं में आता है। पहले पत्तियों की ऊपरी सतह पर गोल धारीदार कत्‍थई रंग के धब्‍बे प्रगट होते हैं। बाद में काले धब्‍बे फलियों व डालियों पर बनते हैं। रोगग्रस्‍त फलियों में दाने पोचे रह जाते हैं और उनमें तेल का प्रतिशत भी घट जाता है। दानों का वजन कम हो जाता है।
नियंत्रण
फसल बोने के 50 दिन बाद रिडोमिल एम. जेड-72 (0.25 प्रतिशत) का छिडकाव करें तथा 15 दिन बाद रोवेरोल (0.2 प्रतिशत ) का दूसरा छिड़काव करें।
(2) सफेद रतुआ या श्‍वेत किटट
यह रोग दो अवस्‍थाओं में आता है। पहले पत्तियों की निचली सतह पर सफेद दूधिया धब्‍बे बनते हैं और फूल आने के बाद स्‍वस्‍थ बालियों के स्‍थान पर फूली हुई विकृतियॉ दिखाई देती हैं जिन्‍हें ‘’ स्‍टेग हैड’’ यानि अति वृद्धि में तना, पुष्‍पक्रम व पुष्‍पदण्‍ड आदि फूले हुये दिखाई देते हैं।
नियंत्रण
1 . बीजों का उपचार करके बोयें।
2 . पत्तियों पर रोग के लक्षण दिखते ही रिडोमिल एम जेड- 72 के 0.25 प्रतिशत घोल (अर्थात 25 ग्राम दवा को 10 लीटर पानी में घोलकर ) बोनी के 50 एवं 75 दिन बाद छिड़काव करें। रिडोमिल दवा न मिलने पर थायथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत ) का छिड़काव भी किया जा सकता है।
(3) चूर्णिया आसिता या छछुआ
पत्तियों , फलियों व तने पर मटमैला सफेद धब्‍बों के रूप में दिखाई देते है। तापमान बढ़ने पर यह बिमारी अधिक फैलती है।
नियंत्रण
1. फसल की समय पर बोनी करें।
2. फसल पर घुलनशील गंधक (0.3 प्रतिशत) या कारथेन (0.1 प्रतिशत) दवा का 15 दिन के अन्‍तर से छिड़काव करें।
2.(4) तना सड़न
यह रो स्‍कलेरोटोनिया नामक फफूंद से होता है तथा नमी वाले खेतों में अधिक होता है। रोग्रस्‍त पौधों के तने दूर से सफेद दिखाई देते हैं। ग्रसित पौधे अंदर से पोले हो जाते हैं और उनमें अन्‍दर सफेद फफूंद के बीच काले रंग के स्‍कलोरोशिया दिखाई देते हैं। किसान इस रोग को सरसों के पोलियों अथवा पोला रोग के नाम से जानते हैं।
नियंत्रण
1 . बीज को केप्‍टान अथवा बेविस्‍टीन से 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिये।
2 . बेविस्‍टीन दवा (0.05 प्रतिशत) का पुष्‍प अवस्‍था पर छिड़काव बहुत असरदार पाया गया हैं।
3 . फसल चक्र अपनाऍ
कटाई एवं गहराई
पौध कार्यकी परिपक्‍वता (फिजियोलोजिकल मैच्‍योरिटी) पर जब 75 प्रतिशत फलियॉ पीली पड़ जाये तब फसल को काटना चाहिये, ताकि फलियॉं चटकने से बच सकें। कटी हुई फसल को अच्‍छी तरह से सुखाकर जब बीज में नमी का प्रतिशत आठ के आस पास हो, वैज्ञानिक तरीके से भण्‍डारण करें।

तिल

तिल
भारत वर्ष में उगायी जाने वाली तिलहनों में तिल एक अत्‍यंत महत्‍व की फसल है। इसके बीज में 50 से 54 प्रतिशत तेल, 16 से 19 प्रतिशत प्रोटीन एवं 15.6 से 17.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट की मात्रा पायी जाती है। तिल का तेल अत्‍यंत स्‍वादिष्‍ट एवं बहुउपयोगी होता है। भोजन पकाने के अलावा इसका उपयोग दवा , साबुन , बेकरी एवं सुगंधित तेल आदि में भी किया जाता है।
प्रदेश में इसकी औसत उपज 208 कि.ग्रा. प्रति हेक्‍टर है। इसकी खेती मुख्‍यत: छतरपुर, टीकमगढ, सीधी, शहडोल, मुरैना, शिवपुरी, सागर, दमोह, जबलपुर, मंउला, पूर्वी निमाड एवं सिवनी जिलों में की जाती है। उत्‍पादकों द्वारा सीमान्‍त एवं उपसीमान्‍त भूमि में वर्षा आधारित सीमित निवेश तथा कुप्रबंधन की स्थिति में काश्‍त करना ही फसल की कम उत्‍पादकशीलता के प्रमुख कारण है। इसके अलावा प्रदेश के विभिन्‍न सस्‍य – जलवायु क्षेत्रों के लिये विकसित की गई उन्‍नत किस्‍मों का तथा सस्‍य उत्‍पादन तकनीकी का अंगीकार करने से प्रदेश में तिल की उत्‍पादनशीलता में सारगर्नित वृद्धि होना पायी गई है। प्रदेश हेतु विकसित की गई उन्‍नत तकरीक अपनाकर कृषक भाई अधिक उपज प्राप्‍त कर सकते हैं।
भूमि का चुनाव
फसल को प्रदेश की अधिकांश भूमि में उगाया जा सकता है। अच्‍छी जल निकास वाली हल्‍की से मध्‍यम गठी हुई मिटटी में फसल अच्‍छी होती है। बलुई दुमट मिटटी में पर्याप्‍त नमीं होने पर फसल बहुत अच्‍छी होती है। अम्‍लीय या क्षारीय भूमि तिल की काश्‍त हेतु अनुपयोगी होती है। काश्‍त करने हेतु भूमि का अनुकूलन पी.एच.मान 5.5 से 8.0 है।
भूमि की तैयारी
बीज के उचित अंकुरण एवं खेत में पर्याप्‍त पौध संख्‍या प्राप्‍त करने हेतु अच्‍छी तरह से गहरी जुताई किया गया भुरभुरी मिटटी वाला खेत आवश्‍यक होता है। खेत को एक या दो बार हल तथा एक बार बखर चलाना चाहिये। पाटा चलाकर खेत को समतल करे। असमतल खेत में अनावश्‍यक पानी का जमाव होने से पौधे मर सकते हैं जिससे खेत में पौधों की संख्‍या कम हो सकती है तथा कम पौध संख्‍या का सीधा प्रभाव उपज पड़ता है तथा कम उपज प्राप्‍त होती है। अत: इस बात का विशेष ध्‍यान रखना चाहिये की खेत में अनावश्‍यक पानी का जमाव नहीं हो।
जातियों का चुनाव
प्रदेश में काश्‍त हेतु निम्‍नलिखित उन्‍नत किस्‍मों को अनुशंसित किया गया है।
1 . टी .के. जी. – 21 – ऑचलिक कृषि अनुसंधान केन्‍द्र , टीकमगढ (ज.ने.कृ.वि.वि. जबलपुर म.प्र.) द्वारा वर्ष 1992 में काश्‍त हेतु विमोचित की गई है। दाने का रंग सफेद होकर सरकोस्‍पोरा पर्णदाग तथा जीवाणुचित्‍ती रोगों के प्रति रोधक किस्‍म है। 75-78 दिनों में पककर तैयार होती है तथा दानों में तेल की मात्रा 55.9 प्रतिशत होती है। उचित शस्‍य प्रबंधन के अंतर्गत औसत उपज 950 कि.ग्रा. / हेक्‍टर प्राप्‍त होती है।
2 . टी .के. जी. – 22 – टीकमगढ़ केन्‍द्र द्वारा वर्ष 1994 में प्रदेश में काश्‍त हेतु विमोचित की गई है। दानें सफेद रंग के होकर फाईटोफथेरा अंगमारी रोग रोधक किस्‍म है। परिपक्‍वता अवधि 76-81 दिन होकर दानों में 53.3 प्रतिशत तेल की मात्रा पायी जाती है। उत्‍तम शस्‍य प्रबंधन के द्वारा औसत उपज 950 कि.ग्रा. / हे. प्राप्‍त होती है।
3 . टी .के. जी. – 55 – यह किस्‍म भी टीकमगढ़ केन्‍द्र द्वारा वर्ष 1998 में प्रदेश में काश्‍त हेतु विमोचित की गई है। सफेद रंग के दानों वाली किस्‍म होकर फाईटोफथोरा अंगमारी एवं मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सडन बीमारी के लिये सहनशील है। 76 से 78 दिनों में पककर तैयार होती है। तेल की मात्रा 53 प्रतिशत पायी जाती है। औसत उपज क्षमता 630 कि.ग्रा. / हे. है।
4 . टी .के. जी. – 8 – टीकमगढ़ केन्‍द्र द्वारा वर्ष 2000 में प्रदेश में काश्‍त हेतु विमोचित की गई है। दानों का रंग सफेद होकर किस्‍म फाईटोफथोरा अंगमारी, आल्‍टरनेरिया पत्‍तीधब्‍बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील है। लगभग 86 दिनों में पक कर तैयार होती है। औसत उपज क्षमता 600 – 700 कि.ग्रा. / हे. है।
5 . कंचन तिल (जे.टी.7) – मध्‍य प्रदेश के सभी खरीफ तिल लेने वाले क्षेत्रों में जिसमें विशेषकर बुन्‍देलखंड क्षेत्र शामिल है के लिए उपयुक्‍त है। वर्ष 1981 में प्रदेश में काश्‍त हेतु विमोचित की गई है। दानों का रंग सफेद होकर आकार में बड़े होते हैं तथा तेल की मात्रा 54 प्रतिशत होती है। बहुशाखीय किस्‍म होकर इसकी औसत उपज क्षमता 880 कि.ग्रा. / हे. है।
6 एन. 32 –
वर्ष 1970 में प्रदेश में काश्‍त हेतु विमोचित की गई है। सफेद चमकदार रंग के बीज एक तनेवाली (शाखा रहित ) किस्‍म है। 90- 100 दिनों में पककर तैयार होती है, तेल की मात्रा 53 प्रतिशत होकर औसत उपज क्षमता 770 कि.ग्रा. / हे. है।
7 . आर. टी. 46
यह किस्‍म सन 1989 में काश्‍त हेतु विमोचित हुई है। चारकोल विगलन रोग हेतु रोधक है। भूरे रंग का बीज होकर बीजों में तेल की मात्रा 49 प्रतिशत होती है। किस्‍म लगभग 76 – 85 दिनों में पकती है तथा औसत उपज क्षमता 600 – 800 कि.ग्रा / हे. है।
8 . रामा (इम्‍प्रुव्‍हट सिलेक्‍शन – 5
यह किस्‍म सन 1989 में काश्‍त विमोचित हुई है। दानों का रंग लाल भूरा लाल होता है। दानों में तेल की मात्रा 45 प्रतिशत होती है तथा उचित शस्‍य प्रबंधन के अंतर्गत औसत उपज 700 – 1000 कि.ग्रा. / हे. आती है। प्रदेश में रबी एवं ग्रीष्‍मकालीन काश्‍त हेतु उपज है।
9 . उमा (ओ.एम.टी. 11-6-3)
यह किस्‍म सन 1990 में काश्‍त हेतु विमोचित हुई है। जल्‍दी परिपक्‍व होने वाली (75 – 80 दिनों में) किस्‍म हे। बीजों में तेल की मात्रा 51 प्रतिशत होकर औसत उपज क्षमता 603 कि.ग्रा. / हे. है।
फसल चक्र

तिल जल्‍दी पकने वाली फसल होने के कारण एकल फसल अथवा कई फसल पद्धतियों में रबी या ग्रीष्‍म के लिये उपयुक्‍त है। प्रदेश में तिल उगाने वाले विभिनन क्षेत्रों में साधारणत: ली जाने वाली क्रमिक फसल इस तरह है।
धान - तिल
तिल - गेहूं
कपास और तिल - गेहूं
मिश्रित / अन्‍त: फसल पद्धति
तिल की एकल फसल उपज आय मिश्रित / अन्‍त: फसल से अधिक होती है। प्रदेश में ली जाने वाली कुछ लोकप्रिय मिश्रित / अन्‍त: फसल पद्धतियॉं इस प्रकार है:
तिल + मूंग (2:2 अथवा 3:3 )
तिल + उड़द (2:2 अथवा 3:3)
तिल + सोयाबीन ( 2:1 अथवा 2:2)
बीजोपचार

मृदा जन्‍य एवं बीजजन्‍य रोगों से बचाव के लिये बोनी पूर्व बीज को थायरस 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से या थायरम (0.05 प्रतिशत) 1 :1 से बीजोपचार करें। जहॉं पर जीवाणु पत्‍ती धब्‍बा रोग की संभावना होती है वहॉ बोनी के पूर्ण बीजों को एग्रीमाइसीन – 100 के 0.025 प्रतिशत के घोल में आधा घंटे तक भिगोयें।
बोनी का समय
प्रदेश में फसल को मुख्‍यत: दो मौसम में उगाया जाता है जिनका बोनी का समय निम्‍नानुसार है:
खरीफ : जुलाई माह का प्रथम सप्‍ताह
अर्द्ध रबी: अगस्‍त माह के अंतिम सप्‍ताह से सितंबर माह के प्रथम सप्‍ताह तक
ग्रीष्‍मकालीन : जनवरी माह के दूसरे सप्‍ताह से फरवरी माह के दूसरे सप्‍ताह तक
बोने की विधि
फसल को आमतौर पर छिटककर बोया जाता है जिसके फलस्‍वरूप निंदाई – गुडाई करने एवं अंर्त:क्रियायें करने में अत्‍यंत बाधा आती है। फसल से अधिक उपज पाने के लिये कतारों में बोनी करनी चाहिये। छिटकवां विधि से बोनी करने पर बोनी हेतु 4 -7 कि;ग्रा. / हे. बीज की आवश्‍यकता होती है। कतारों में बोनी करने हेतु यदि ड्रील का प्रयोग किया जाता है तो बीज दर घटाकर 2.5 – 3 किग्रा. / हे. बीज की आवश्‍यकता होती है। बोनी के समय बीजों का समान रूप से वितरण करने के लिए बीज को रेत (बालू) सुखी मिटटी या अच्‍छी तरह से सडी हुई गोबर की खाद के साथ 1:20 के अनुपात में मिलाकर बोना चाहिये। मिश्रित पद्धति में तिल की बीजदर 2.5 कि;ग्रा. / हे. से अधिक नहीं होना चाहिये। कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30 गुणा 10 सेमी. रखते हुए लगभग 3 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
जमीन की उत्‍पादकता को बनाए रखने के लिये तथा अधिक उपज पाने के लिए भूमि की तैयारी करते समय अंतिम बखरनी के पहले 10 टन / हे. के मान से अच्‍छी सडी हुई गोबर की खाद को मिला देना चाहिये। वर्षा पर निर्भर स्थिति में 40 :30 :20 (नत्रजन : फास्‍फोरस : पोटाश) कि.ग्रा. / हेक्‍टर की मान से देने हेतु सिफारिश की गई है। फास्‍फोरस एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा आधार खाद के रूप में तथा नत्रजन की आधी मात्रा के साथ मिलाकर बोनी के समय दी जानी चाहिये।
नत्रजन की शेष मात्रा पौधों में फूल निकलने के समय यानी बोनी के 30 दिन बाद दी जा सकती है। रबी मौसम में फसल में सिफारिश की गई उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा आधार रूप में बोनी के समय दी जानी चाहिये। तिलहनी फसल होने के कारण मिटटी में गंधक तत्‍व की उपलब्‍धता फसल के उत्‍पादन एवं दानों में तेल के प्रतिशत को प्रभावित करती है। अत: फास्‍फोरस तत्‍व की पूर्ति सिंगल सुपर फास्‍फेट उर्वरक द्वारा करना चाहिये। भूमि परीक्षण के उपरांत जमीन में यदि गंधक तत्‍व की कमी पायी जाती है तो वहॉं पर जिंक सल्‍फेट 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्‍टर की दर से भूमि में तीन साल में एक बार अवश्‍य प्रयोग करें।
सिंचाई
खरीफ मौसम में फसल वर्षा आधारित होती है। अत: वर्षा की स्थिति , भूमि में नमी का स्‍तर, भूमि का प्रकार एवं फसल की मांग अनुरूप सिंचाई की आवश्‍यकता भूमि में पर्याप्‍त नमीं बनाये रखने के लिये होती है। खेतों में एकदम प्रात: काल के समय पत्तियों का मुरझाना , सूखना एवं फूलों का न फूलना लक्ष्‍य दिखाई देने पर फसल में सिंचाई की आवश्‍यकता को दर्शाते हैं। अच्‍छी उपज के लिये सिंचाई की क्रांतिक अवस्‍थाये बोनी से पूर्व या बोनी के बाद, फूल आने की अवस्‍था है, अत: इन तीनों अवस्‍थाओं पर किसान भाई सिंचाई अवश्‍य करें।
निंदाई गुड़ाई
बोनी के 15 -20 दिन बाद निंदाई एवं फसल में विरलीकरण की प्रक्रिया को पूरा कर लें। फसल में निंदा की तीव्रता को देखते हुये यदि आवश्‍यकता होने पर 15 -20 दिन बाद पुन: निंदाई करें। कतारा में कोल्‍पा अथवा हैंड हो चलाकर नींदा नियंत्रित किया जा सकता है, कतारों के बीच स्थित निंदा निंदाई करते हुये नष्‍ट करना चाहिये। रासायनिक विधि से नींदा नियंत्रण हेतु ‘’ लासो ‘’ दानेदार 10 प्रतिशत को 20 कि.ग्रा. / हे. के मान से बोनी के तुरंत बाद किन्‍तु अंकुरण के पूर्व नम भूमि मे समान रूपसे छिड़ककर देना चाहिये एलाक्‍लोर 1.5 लीटर सक्रिय घटक का छिड़काव पानी में घोलकर बोनी के तुरंत बाद किन्‍तु अंकुरण के पूर्व करने से खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
तिल की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीटों में तिल की पत्‍ती मोडक फल्‍ली, छेदक , गाल फलाई , बिहार रोमिल इल्‍ली, तिल हॉक मॉथ आदि कीट प्रमुख है इन कीटों के अतिरिक्‍त जैसिड़ तिल के पौधों में एक प्रमुख बीमारी पराभिस्‍तम्‍भ (पायलोडी) फैलने में भी सहायक होता है।
(1) गाल फलाई के मैगोट फूल के भीतर भाग को खाते हैं और फूल के आवश्‍यक अंगों को नष्‍ट कर पित्‍त बनाते हैं। कीट संक्रमण सितंबर माह में फलियॉ निकलते समय शुरू होकर नवंबर माह के अंत तक सक्रिय रहते हैं। नियंत्रण हेतु कलियॉ निकलते समय फसल पर 0.03 प्रतिशत डाइमेथेएट या 0.06 प्रतिशत इन्‍डोसल्‍फान या 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस कीटनाशक दवाई को 650 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्‍टर की मात्रा से छिड़काव करें।
(2) तिल की पत्‍ती मोडक एवं फली छेदक इल्लियॉ प्रारंभिक अवस्‍था में पत्तियों को खाती है। फसल की अंतिम अवस्‍था में यह फूलों का भीतरी भाग खाती है। फसल पर पहली बार संक्रमण 15 दिन की अवस्‍था पर होता है तथा फसल वृद्धि के पूरे समय तक सक्रिय रहता है। इसे नियंत्रण करने के लिये इन्‍डोसल्‍फान 0.07 प्रतिशत अथवा क्विनॉलफॉन 0.05 प्रतिशत का 750 लीटर पानी में घोलकर बनाकर प्रति हैक्‍टर की मान से फूल आने की अवस्‍था से आरंभ कर 15 दिनों के अंतराल से 3 बार छिड़काव करें।
(3) तिल हाक माथ इल्लियॉ पौधों की सभी पत्तियों खाती है। इस कीट का संक्रमण कभी – कभी दिखाई देता है। फसल की पूरी अवस्‍था में कीट सक्रिय रहते हैं। नियंत्रण हेतु इल्लियों को हॉथ से निकालकर नष्‍ट करें। कार्बोरिल का 20 किग्रा. प्रति हेक्‍टर के दर से खड़ी फसल में भुरकाव करना चाहिये।
(3)
(4) बिहार रोमयुक्‍त इल्लियॉ आरंभिक अवस्‍था में लार्वा कुछ पौधों का अधिकांश भाग खाते हैं। परिपक्‍व इल्लियॉ दूसरे पौधों पर जाती है ओर तने को छोड़कर सभी भाग खाती है। इस आक्रमण खरीफ फसल में उत्‍तरी भारत में सितंबर और अक्‍टूबर के आरंभ में अधिक होता है। नियंत्रित करने हेतु इन्‍डोसल्‍फान 0.07 प्रतिशत या मोनोक्रोटोफॉस 0.05 प्रतिशत का 750 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्‍टर के मान से छिड़काव करें।
(4)(ब) रोग
(1) फाइटोफथोरा अंगमारी
पत्तियॉं तनों पर जलसिक्‍त धब्‍बे दिखाई देते हैं, इस स्‍थान पर सिंघाडे के रंग के धब्‍बे बनते हैं जो बाद में काले से पड़ जाते हैं। आर्द वातावरण में यह रोग तेजी से फैलता है जिससे पौधा झुलस जाता है एवं जड़े सड़ जाती है।
(2) अल्‍टरनेरिया पर्णदाग -
पत्तियों पर अनियंत्रित बैंगनी धब्‍बा तथा तने पर लग्‍बे बैंगनी धब्‍बे बनते हैं। रोग ग्रसित पत्तियॉ मुड जाती है।
(3) कोरिनोस्‍पोरा अंगमारी पत्तियों पर अनियंत्रित बैंगनी धब्‍बा तथा तने पर लग्‍ते बैंगनी धब्‍बे बनते हैं। रोगग्रसित पत्तियॉं मुड़ जाती हैं।
(4) जड़ सडन -
(4)
इस रोग में रोग्रसित पौधे की जड़े तथा आधार से छिलका हटाने पर काले स्‍कलेरोशियम दिखते हैं जिनसे जड़ का रंग कोयले के समान धूसर काला दिखता है। रोग से संक्रमित जड़ को कम शक्ति लगाकर उखाड़ने पर कॉच के समान टूट जाती है। तने के सहारे जमीन की सतह पर सफेद फफूंद दिखाई देती है जिसमें राई के समान स्‍क्‍लेरोशिया होते हैं। इसके अलावा फयुजेरियम सेलेनाई फफूंद के संक्रमित पौधों की जड़े सिकुडी सी लालीमायुक्‍त होती है।
(5) शाकाणु अंगमारी – पत्तियों पर गहरे, भूरे रंग के काले अनियंत्रित धब्‍बे दिखते हैं जो आर्द एवं गरम वातावरण में तेजी से बढने के कारण पत्‍ते गिर जाते हैं एवं तनों के संक्रमण में पौधा मर जाता है।
(6) शाकाणु पर्णदाग - पत्तियों पर गहरे भूरे कोंणीय धब्‍बे जिनके किनारे काले रंग के दिखाई देते हैं।
(7) भभूतिया रोग – पत्तियों पर श्‍वेत चूर्ण दिखता है तथा रोग की तीव्रता में तनों पर भी दिखता है एवं पत्तियॉ झड जाती है।
(8) फाइलोड़ी – रोग में सभी पुष्‍पीय भाग हरे रंग की पत्तियों के समान हो जाते हैं। पत्तियॉ छोटे गुच्‍छों में लगती हैं। रोग ग्रस्‍त पौधों में फल्लियॉ नहीं बनती हैं यदि बनती हैं तो उसमें बीज नहीं बनता है।
फसल कटाई
फसल की सभी फल्लियॉ प्राय: एक साथ नहीं पकती किंतु अधिकांश फल्लियों का रंग भूरा पीला पड़ने पर कटाई करना चाहिये। फसल के गटठे बनाकर रख देना चाहिये। सूखने पर फल्लियों के मुंह चटक कर खुल जायें तब इनको उलटा करके डंडों से पीटकर दाना अलग कर लिया जाता है। इसके पश्‍चात बीज को सुखाकर 9 प्रतिशत नमी शेष रहने पर भंडारण करना चाहिये।
उपज
उपरोक्‍तानुसार अच्‍छी तरह से फसल प्रबंध होने पर तिल की सिंचित अवस्‍था में 1000-1200 कि.ग्रा. / हे. और असिंचित अवस्‍था में उचित वर्षा होने पर 500 – 600 कि.ग्रा. / हेक्‍टर उपज प्राप्‍त होती है।

कुसुम

कुसुम
कुसुम को करड़ी के नाम से भी जाना जाता है। कुसुम की जड़े जमीन में गहराई तक जाकर पानी सोख लेने की क्षमता रखने के कारण इसे बारानी खेती के लिये विशेष उपयुक्‍त पाया गया है। सिंचित क्षेत्र में कुसुम का पौधा कम पानी में भी सफलतापूर्वक उगता रहता है। सितंबर माह में भूमि में पर्याप्‍त नमी होते हुए भी अन्‍य रबी फसलें जैसे गेहूं चना आदि की बुआई अधिक तापमान के कारण नहीं कर सकते हैं। लेकिन कुसुम ताप असंवेदनशील होने के कारण इन परिस्थितियों में भी लग सकते है। लेकिन कुसुम ताप असंवेदनशील होने के कारण इन परिस्थितियों में भी लग सकते है और भूमि में स्थित नमी का पूरा लाभ ले सकते हैं। इसके दानों में तेल की मात्रा 30 से 35 प्रतिशत होती है। यह तेल खाने के लिये अच्‍छा स्‍वादिष्‍ट तथा इसमें पाये जाने वाले विपुल असतृप्‍त वसीय अम्‍लों के कारण हृदय रोगियों के लिए विशेष उपयुक्‍त होता है। इसके तेल में लिनोलिक अम्‍ल लगभग 42 प्रतिशत होता है जिसके कारण कोलेस्‍टेराल की मात्रा खून में नहीं बढ़ पाती है। अत: इसका सेवन हृदय रोगियों के लिये उपयुक्‍त रहता है। इसके हरे पत्‍तों की उत्‍तम स्‍वादिष्‍ट भाजी बनती है, जिसमें लौह तत्‍व तथा केरोटीन से भरपूर होने के कारण बहुत स्‍वास्‍थ्‍यप्रद होती है।
कुसुम की सूखी लाल पंखुडियों से उत्‍तम प्रकृति का (खाने योग्‍य) रंग प्राप्‍त होता है। इन पं‍खुडि़यों से तैयार कुसुम चाय से चीन में बहुत सी बीमारियों का इलाज किया जाता है।
उपयुक्‍त फसल पद्धति
कुसुम को निम्‍नलिखित चार फसल पद्धतियों में बोया जाता है। खरीफ फसल कटते ही जितना जल्‍दी हो सके कुसुम को बोये।
क्र.
फसल पद्धति
खरीफ की फसल
कुसुम बोने का समय
1
द्वितीय फसल के रूप में
मूंग, उड़द सोयाबीन
सितंबर अंत से अक्‍टूबर प्रथत सप्‍ताह 25 अक्‍टूबर तक
2
बारानी खेती में
पड़त खेत
सितंबर से अक्‍टूबर प्रथम सप्‍ताह
3
एक या दो सिंचाई के साथ
दलहनी फसल या सोयाबीन
25 अक्‍टूबर तक
4
अंतरवर्तीय फसल पद्धति चना + कुसुम
सोयाबीन या दलहनी फसल या पड़त खेत
25 अक्‍टूबर तक

अलसी + कुसुम
सोयाबीन या दलहनी फसल या पड़त पड़त खेत
25 अक्‍टूबर तक

चना व अलसी के अतिरिक्‍त कुसुम को मसूर , राजगिरा , राई व सरसों के साथ भी अन्‍तर्वर्तीय फसल के रूप में ले सकते है। अन्‍तर्वर्तीय फसल पद्धति में कुसुम की 2 कतारों के बाद दूसरी फसल की 6 कतारें बोयी जाती है।
बारानी खेती में सोयाबीन – कुसुम फसल पद्धति अधिक लाभकारी पाई गई है। खरीफ मौसम में उड़द एवं मूंग की फसल लेने के बाद जब खेत खाली हो जाते हैं तो उसी समय खेत की तैयारी करके कुसुम की बुआई कर सकते है। हालांकि उस समय तापमान अधिक रहता है लेकिन कुसुम फसल ताप असंवेदनशील होने के कारण इसकी बुआई सितंबर के अंत में कर सकते हैं, जबकि अन्‍य रबी फसलों की बुआई अधिक तापमान के कारण नहीं कर सकते हैं।
उन्‍नत जातियॉ
जातियॉ
पकने की अवधि (दिन)
तेल की मात्रा (प्रतिशत)
उपज (कि/ हे.)
दाने का आकार (ग्राम)
विशेषताऍं
जवाहर कुसुम -1
140-145
30
1500-1600
5.5 – 6.5
कॉटेवाली, अधिक पैदावार बड़े दाने एवं फूल सफेद रंग
जवाहर कुसुम – 1
142 -147
32
1300- 1400
4.0-4.5
बिना कॉटेवाली, फूल लाल रंग के (खिले फूल पीले रंग के व मुरझाने पर नारंगी रंग के) दानों का आकार छोटा, छिलका पतला
जवाहर कुसुम-73
140-145
31
1400-1500
4.5-5.0
बिना कॉटेवाली, फूल पीले-लाल (खिले फूल पीले व मुरझाने पर नारंगी लाल) दाना जवाहर कुसुम 7 से बड़ा
जवहार कुसुम-97
135-140
30
1500-1600
5.5-6.5
बिना कॉटेवाली, अधिक उपज वाली फूल पीले – लाल (खिले फूल पीले व मुरझाने पर नारंगी लाल) दानों का आकार बड़ा
जवाहर कुसुम -99
115-120
29
1100-1200
5.5-6.5
अर्द्धकॉटीय , बडे कैप्‍सूल बडे दाने, नारंगी रंग के फूल एवं छोटे पौधे।

बुवाई
1 . असिंचित अवस्‍था में भूमि में अधिक नमी नहीं होने पर :-
असिंचित अवस्‍था में कुसुम की बोनी की जाना हो तो जमीन की अच्‍छी तैयारी करना अति आवश्‍यक है जिससे खेत में नमी भरपूर नहीं होने पर भी अच्‍छा अंकुरण हो सके। बोनी के उपरान्‍त कतारों को कटाते हुए खेत में पाटा अवश्‍य चलावें।
विधि
. खेत की तैयारी व नमी को देखते हुए या तो सूखा बीज बोये (विशेषत: बोनी के बाद वर्षा की संभावना होने पर ) या बीज को 12 से 14 घंटे पानी में भिगोकर भी बिजाई कर सकते है।
. बीज गहरा बोये ताकि वह नमी में गिरे तथा पाटा चलायें।
सावधानी
इस विधि से बोये खेत में अंकुरण के लिये बाद में सिंचाई नहीं दें।
2 . खेत में पर्याप्‍त नमी नहीं होने पर विधि
बीज सूखी जमीन में बोये और एक सिंचाई दें। यह पद्धति ज्‍यादा अच्‍छी है क्‍योंकि सिंचाई के पानी का उपयोग शुरू से ही अंकुरण व पौध के बढ़वार के लिये होता है।
अच्‍छे अंकुरण के लिए उपाय
कुसुम के अंकुरण का विशेष ध्‍यान रखना जरूरी है। अच्‍छा अंकुरण व पर्याप्‍त पौध संख्‍या अच्‍छी पैदावार का सूचक है। स्‍मरण रहे कि कुसुम को अंकुरण के लिये ज्‍यादा नमी की आवश्‍यकता होती है क्‍योंकि इसके बीज का छिलका कड़ा होता है। इसलिये जब तक बीज पर्याप्‍त नमी में नहीं गिरता व बीज के चारों ओर गीली मिटटी नहीं चिपकती तब तक बीज फूलेगा नहीं व अंकुरित नहीं होगा। यह आवश्‍यक है कि बोनी के तुरंत बाद पाटा चलाये जिससे कूड में से नमी उड़ नहीं पाये व गीली मिटटी बीज के चारो ओर चिपक रहे। यह ध्‍यान रहे कि बीज के अंकुरण के लिए ज्‍यादा नमी की आवश्‍यकता होती है लेकिन एक बार बीज फूलने पर अत्‍यधिक नमी बीज को नुकसान भी पहुंचाती है, जिससे अंकुरण नहीं होता। इसलिए बीज की बोनी नमी में करने के बाद व पाटा लगाने के बाद यदि वर्षा होती है या सिंचाई दी जाती है तो अंकुरण नहीं होता क्‍योंकि फूला हुआ बीज पानी के संपर्क में आ जाता है व सड़ जाता है। इसी प्रकार यदि बीज पानी में भिगोकर बोया है तो इसके बाद सिंचाई नहीं करें।
भूमि
मध्‍य से भारी काली / गहरी भूमि विशेष उपयुक्‍त होती है।
बीज की मात्रा
20 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर
बोने की विधि
बीज को कतारों में बोयें। कतारों की आपसी दूरी 45 से.मी. रखें। कतारों में पौधों से पौधें की दूरी 20 से.मी. रखना चाहिये।
बीजोपचार
3 ग्राम थायरम प्रति किलो ग्राम बीज में ( थायरम न होने पर बविस्टिन, ब्रासिकाल आदि फफूंद नाशक दवा)
उर्वरक की मात्रा
40 किलो ग्राम नत्रजन , 40 किलो ग्राम स्‍फुर प्रति हेक्‍टर। जहॉ पोटाश की आवश्‍यकता हो 20 किलो ग्राम पोटाश प्रति हेक्‍टर तथा 20 से 25 किलो ग्राम गंधक का प्रयोग करें।
पौधों का विरलीकरण
बोनी के 20 से 25 दिन बाद कतारों में पौधों की आपसी दूरी 20 से.मी. रखें।
निंदाई एवं गुडाई
अंकुरण के पश्‍चात आवश्‍यकतानुसार एक या दो बार निंदाई करने के बाद ‘डोरा’ चलाकर खेत को नींदा रहित रखें व मिटटी की पपडी को तोड़ते रहे जिससे भूमि में जल के ह्रास कम होगा।
सिंचाई
एक या दो सिंचाई देना पर्याप्‍त है। जब पौधा ऊचा बढ़ने लगें (लगभग 50-55 दिन बाद ) तब पहली सिंचाई व जब पौधे में शाखाऍ पूर्ण विकसित हो (लगभग 80-85 दिन बाद) तब दूसरी सिंचाई दें। दो से अधिक सिंचाई न करें।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
1 . माहो
कुसुम में माहों कीट की समस्‍या है। इसके नियंत्रण के लिए निम्‍न दो विधियॉ हैं।
1 . नीम बीज के निमोली का 5 प्रतिशत घोल जब फसल पर सबसे पहले दिखायी दें उसके एक हफते बाद छिड़काव करें। इसके 15 दिन बाद रोगर (डाइमेथेएट) 750 मि.ली. दवा प्रति हेक्‍टर की दर से छिड़काव करें।
2 जब माहो सर्वप्रथम कुसुम के फसल पर दिखाई दे तो तुरंत नीम बीज के निमोली का 5 प्रतिशत घोल खेत के चारों तरफ के बार्डर पर 2 मीटर चौडा छिड़काव करें और इसके 15 दिन बाद रोगर (डाइमेथोंएट) 750 मि.ली. दवा प्रति हेक्‍टर की दर से छिड़काव करें। इससे 90 प्रतिशत माहो नियंत्रित होते हैं क्‍योंकि यह कीट सबसे पहले बार्डर पर आते है इसके बाद खेत के अन्‍दर जाते हैं।
22 . मक्‍खी तथा फलछेदक इल्‍ली
यदि इन कीटों की समस्‍या हो तो तब थायोडान 750 मि.ली. प्रति हेक्‍टर का छिड़काव फसल पर करें।
(ब) रोग
कुसुम में रोग संबंधी कोई समस्‍या नहीं है। बिमारियॉ हमेशा वर्षा के बाद, अधिक आर्द्रता की वजह से, खेत में फैली गंदगी से, खेत के आस – पास काफी समय से संचित गंदा पानी फसल में बहकर आने से एक ही स्‍थान पर बार – बार कुसुम की फसल लेने से होती है। अत: उचित फसल- चक्र अपनाना, बीज उपचारित कर बोना व प्रतिवर्ष खेत बदलना आवश्‍यक है।
1 . जड़ सडन रोग
बोनी पूर्व बीजोपचार करें। सूखे से अत्‍यधिक प्रभावित फसल को एकाएक सिंचाई देने से यह रोग फैलता है।
2. अल्‍टरनेरिया पत्‍तों के धब्‍बे
बोनी पूर्व बीजोपचार करें। रोग नियंत्रण हेतु फसल पर डायथेन- एम 45 का 0.25 प्रतिशत छिड़काव करें।
पक्षियों से सुरक्षा
पक्षियों में विशेषकर तोते इस फसल को अधिक नुकसान पहुंचाते है। इसलिए दाने भरने से ले‍कर पकने तक लगभग तीन हफते फसल की रखवाली आवश्‍यक है। तोते कुसुम के कैप्‍सूल को काटकर नुकसान करते है एवं दानों को खाते है।
कटाई एवं गहराई
कार्यिक परिपक्‍वता (फसल पूर्ण सूखने) पर कांटेदार कुसुम की कटाई हाथ में दस्‍ताने पहिनकर या उसे कपड़े से लपेटकर या दो शाखा वाली लकड़ी में पौधे को फंसाकर दराते से करते है। गहराई पौधों को डंडे से पीटकर, चौडे मुंह वाले पावर थ्रेसर से या पौधों के उपर ट्रेक्‍टर चलाने से बड़ी आसानी से होती है। बिना कॉटे वाली जातियॉ की कटाई में कोई परेशानी या दस्‍ताने पहनने की जरूरत नहीं होती है।
उपज
असिंचित फसल : 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्‍टर
सिंचित फसल : 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्‍टर
आवश्‍यक सावधानियॉ
. कुसुम को अन्‍य रबी फसलों की अपेक्षा जल्‍दी बोया जाता है। अत: जमीन की तैयारी बहुत जल्‍दी करना आवश्‍यक है।
. बुवाई के समय जमीन में अंकुरण के लिये पर्याप्‍त नमी होना आवश्‍यक है।
. कुसुम को गहरी जमीन में ही बोये।
. उर्वरकों का संतुलित प्रयोग आवश्‍य करें।
उपयोग
. कुसुम फूल उत्‍तम औषधि
. बीजों से उत्‍तम किस्‍म का स्‍वादिष्‍ट तेल।
. यह तेल हृदय रोगियों के लिए विशेष उपयुक्‍त ।
. तेल से वार्निश , रंग , साबून आदि उत्‍पादक पदार्थ बन सकते है।
. हरी पत्तियों से स्‍वादिष्‍ट सब्‍जी एवं लौह तत्‍तव तथा केरोटीन से भरपुर।
. फफूंद न लगने वाली खली जिसमें उत्‍तम प्रोटीन तत्‍व जो दुधारू पशुओं के लिए उपयुक्‍त
. फूलों से प्राकृतिक उत्‍तम रंग।
. शुष्‍कता प्रतिरोधी फसल जो कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी अधिक पैदावार देती है।
. कांटेदार फसल पूर्ण बढ़ने पर जानवरों से सुरक्षा ।

अरहर

अरहर
भारत विश्‍व में दलहनी फसलों के क्षेत्रफल एवं उत्‍पादन में प्रथम स्‍थान पर है। देश में दलहनी फसले 2 करोड़ 38 लाख हेक्‍टर भूमि में बोई जाती है, जिनकी उत्‍पादकता केवल 622 कि.ग्रा / हे. जो कि बहुत कम है। मध्‍यप्रदेश का स्‍थान दलहनी फसलों के क्षेत्र एवं उत्‍पादन में क्रमश: पहला व दूसरा है। मध्‍यप्रदेश में दलहनी फसलें 50.4 लाख हेक्‍टर भूमि में उगाई जाती है, जिससे सीधे नत्रजन ग्रहण कर पौधों को देती है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। दलहनी फसले खाद्यान्‍न फसलों की अपेक्षा अधिक सूखारोधी होती है। इसलिये सूखा ग्रस्‍त प्रदेशों में भी इससे अधिक उपज मिलती है। कम अवधि की दलहनी फसलें अंतरवर्तीय व बहुफसल पद्धति में उपयुक्‍त होती हैं। दलहन प्रोटीन का सशक्‍त स्‍त्रोत होने से भारतियों के भोजन में इनका समावेश होता है।
खरीफ की दलहनी फसलों में अरहर प्रमुख है। मध्‍य प्रदेश में अरहर को लगभग 4.75 लाख हेक्‍टर क्षेत्र में लिया जाता है जिससे औसतन 842 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर उत्‍पादन होता है। उन्‍नत तकनीक से अरहर का उत्‍पादन दो गुना किया जा सकता है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
इसे विविध प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है, पर हल्‍की रेतीली दोमट या मध्‍यम भूमि जिसमें प्रचुर मात्रा में स्‍फुर तथा पी.एच.मान 7-8 के बीच हो व समुचित जल निकासी वाली हो इस फसल के लिये उपयुक्‍त है। गहरी भूमि व पर्याप्‍त वर्षा वाले क्षेत्र में मध्‍यम अवधि की या देर से पकने वाली जातियॉ बोनी चाहिए। हल्‍की रेतीली कम गहरी ढलान वाली भूमि में व कम वर्षा वाले क्षेत्र में जल्‍दी पकने वाली जातियां बोना चाहिए। देशी हल या ट्रेक्‍टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई करे व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्‍यवस्‍था करें।
बोनी का समय, बीज की मात्रा व तरीका
अरहर की बोनी वर्षा प्रारंभ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्‍यत: जून के अंतिम सप्‍ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक बोनी करें। जल्‍दी पकने वाली जातियों में 25- 30 किलोग्राम बीज प्रति हेक्‍टर एवं मध्‍यम पकने वाली जातियों में 15 से 20 किलो ग्राम बीज / हेक्‍टर बोना चाहिए। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 30 से 45 से.मी व मध्‍यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 60 से 75 सें.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 10-15 से.मी. एवं मध्‍यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 20 – 25 से.मी. रखें।
बीजोपचार
बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा से बीजोपचार करना बहुत जरूरी है। 2 ग्राम थायरस + ग्राम कार्बेन्‍डेजिम फफूदनाशक दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्‍चर 10 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। पी.एच.बी. कल्‍चर का उपयोग करें।
जातियों का चुनाव
भूमि का प्रकार, बोने का समय, जलवायु आदि के आधर पर अरहर की जातियों का चुनाव करना चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहॉ सिंचाई के साधन उपलब्‍ध हो बहुफसलीय फसल पद्धति हो या रेतीली हल्‍की ढलान वाली व कम वर्षा वाली असिंचित भूमि हो तो जल्‍दी पकने वाली जातियां बोनी चाहिए। मध्‍यम गहरी भूमि में जहॉं पर्याप्‍त वर्षा होती हो और सिंचित एवं असिंचित स्थिति में मध्‍यम अवधि की जातियॉ बोनी चाहिए। निम्‍न तालिका द्वारा उपयुक्‍त जातियों का विवरण दिया गया है:
तालिका - अरहर की उन्‍नत किस्‍में
किस्‍म
उपज क्विं / हे.
अवधि (दिन)
विशेषताऐं
खरगोन-2
10 – 12
150-160
असीमित वृद्धि वाली, लाल दाने की मध्‍यम अवधि वाली, उन्‍नत जाति
जवाहर अरहर -3
15-18
200-220
असीमित वृद्धि वाली लाल दाने की देरी से पकने वाली उन्‍नत जाति
सी – 11
16-18
160-180
असीमित वृद्धि वाली, लाल दाने की मध्‍यम अवधि वाली उकटा रोधक जाति
आई.सी.पी.एल-87119(आशा)
18 – 20
160-180
असीमित वृद्धि वाली लाल दाने की मध्‍यम अवधि वाली उकटा रोधक तथा बहुरोग रोधी
जवाहर अरहर – 4
18-20
180-200
असीमित वृद्धि वाली, लाल दाने की मध्‍यम देरी से पकने वाली
न- 148
10-12
160-180
असीमित वृद्धि वाली , लाल दाने
जवाहर के.एम-7
20-22
170-180
असीमित वृद्धि वाली दाना मध्‍यम आकार का भूरा लाल रंग का उकटा रोधक
उपास – 120
10-12
130-140
असी‍मित वृद्धि वाली लाल दाने की , कम अवधि मे पकने वाली
आई;सी.पी.एल-87(प्रगति)
10-12
125-135
सीमित वृद्धि वाली बीज मध्‍यम आकार व गहरा लाल रंग का, कम अवधि में पकती है
एम.ए.3
18-20
210-230
असीमित वृद्धि वाली , दाना गहरे भूरे रंग का, म.प्र. के उत्‍तर पूर्व भाग के लिए उपयुक्‍त
बी.एस.एम.आर – 853 (वैशली)
18-20
160-180
असीमित वृद्धि वाली , सफेद दाना, की मध्‍यम अवधि वाली बहुरोग रोधी किस्‍म

उरर्वरक का प्रयोग
बुवाई के समय 20 किग्रा. नत्रजन 50 किग्रा स्‍फुर 20 किग्रा पोटाश व 20 किग्रा गंधक प्रति हेक्‍टर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिए। तीन वर्ष में एक बार 25 कि.ग्रा जिंक सल्‍फेट का उपयोग आखरी बखरीनी पूर्व भुरकाव करने से पैदावार में अच्‍छी बढोत्रो होती है।
सिंचाई
जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्‍ध हो वहां एक सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियॉ बनने की अवस्‍था पर करने से पैदावार अच्‍छी होती है।
खरपतवार प्रबंधन
खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने से पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 बार खेत में कोल्‍पा चलाने से नीदाओं पर अच्‍छा नियंत्रण रहता है व मिटटी में वायु संचार बना रहता है। पेन्‍डीमेथीलिन 1.25 किग्रा सक्रिय तत्‍व/ हे. बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है। नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्‍था पर करना चाहिए।
अंतरवर्तीय फसल
अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्‍य फसल को पूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्‍त पैदावार प्राप्‍त होगी। मुख्‍य फसल में कीटों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीटों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्‍न अंतरवर्तीय फसल पद्धति म.प्र. के लिए उपयुक्‍त है:
1 . अरहर + मक्‍का का ज्‍वार 2:1 कतारों के अनुपात में (कतारों के बीच की दूरी 40 से.मी)
2 . अरहर + मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों के अनुपात में
3 . अरहर + उड़द या मूंग 1:2 कतारों के अनुपात में
पौध संरक्षण
(अ) रोग
उकटा रोग: इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। यह फयूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्‍था पर दिखाई देते है। नवम्‍बर से जनवरी महीनें के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है। इससें जडें सड़ गर गहरें रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की ऊचाई तक काले रंग की धारियॉ पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिए रोग रोधी जातियॉ जैसे सी – 11 जवाहर के.एस -7 बी.एस.एम.आर – 853 , आशा आदि बोये। उन्‍नत जातियों का बीज बीजोपचार करके ही बोयें । गर्मी में खेत की गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्‍वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम होता है।
2 . बांझपन विषाणु रोग : यह रोग विषाणु (वायरस) से फैलता है। इसके लक्षण पौधे के उपरी शाखाओं में पत्तियॉ छोटी , हल्‍के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल – फली नही लगती है। ग्रसित पौधों में पत्तियॉ अधिक लगती है। यह रोग माइट मकडी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्‍मों को लगाना चाहिए। खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड कर नष्‍ट कर देना चाहिए। मकडी का नियंत्रण करना चाहिए।
3 . फायटोपथोरा झुलसा रोग: रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्‍सील फफूंदनाशक दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और मूंग की फसल साथ में लगाये।
ब. कीट : -
1 . फली मक्‍खी : यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्‍ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं खाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्‍य विकास रूक जाता है।
मादा छोटे व काले रंग की होती है जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडो से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है ओर दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
2 . फली छेदक इल्‍ली : - छोटी इल्लियॉ फलियों के हरे उत्‍तकों को खाती है व बडे होने पर कलियों , फूलों फलियों व बीजों पर नुकसान करती है। इल्लियॉ फलियों पर टेढे – मेढे छेद बनाती है।
इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियॉ पीली, हरी, काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्‍की गहरी पटिटयॉ होती है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
3 . फल्‍ली का मत्‍कुण : मादा प्राय: फलियों पर गुच्‍छों में अंडे देती है। अंडे कत्‍थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु वयस्‍क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते है, जिससे फली आडी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्‍ताह में पूरा करते है।
4 . प्‍लू माथ - इस कीट की इल्‍ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विश्‍टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दानो के आसपास लाल रंग की फफूंद आ जाती है।
5 . ब्रिस्‍टल ब्रिटल :- ये भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है जिससे उत्‍पादन में काफी कमी आती है। यक कीट अरहर मूंग, उड़द , तथा अन्‍य दलहनी फसलों पर भी नुकसान पहुंचाता है। भृंग को पकडकर नष्‍ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
(ब) कीट
कीटो के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित प्रणाली अपनाना आवश्‍यक है
1 . कृषि कार्य द्वारा : गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें
2. शुद्ध अरहर न बोयें
3 . फसल चक्र अपनाये
4 . क्षेत्र में एक ही समय बोनी करना चाहिए
5 . रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें।
6 . अरहर में अन्‍तरवर्तीय फसले जैसे ज्‍वार, मक्‍का, या मूंगफली को लेना चाहिए।
2 . यांत्रिक विधि द्धारा : -
1. फसल प्रपंच लगाना चाहिए
2 . फेरामेन प्रपंच लगाये
3 . पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्‍ट करें
4 . खेत में चिडियाओं के बैठने की व्‍यवस्‍था करे।
3 . जैविक नियंत्रण द्वारा : -
1 . एन.पी.वी 5000 एल.ई / हे. + यू.वी. रिटारडेन्‍ट 0.1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशत मिश्रण को शाम के समय खेत में छिडकाव करें।
2 . बेसिलस थूरेंजियन्‍सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर + टिनोपाल 0.1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करे।
4 जैव – पौध पदार्थ के छिड़काव द्वारा : -
1 . निंबोली सत 5 प्रतिशत का छिड़काव करे।
2 . नीम तेल या करंज तेल 10 -15 मी.ली. + 1 मी.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्‍डोविट टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
3 . निम्‍बेसिडिन 0.2 प्रतिशत या अचूक 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें।
5 रासायनिक नियंत्रण द्वारा
1 . आवश्‍यकता पड़ने पर ही कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करें।
2 . फली मक्‍खी नियंत्रण हेतु संर्वागीण कीटनाशक दवाओं का छिडकाव करे जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी 0.03 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 0.04 प्रतिशत आदि।
3 . फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण के लिए – फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण या क्‍लीनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण या इन्‍डोसल्‍फान 4 प्रतिशत चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम / हे. के दर से भुरकाव करें या इन्‍डोसलफॉन 35 ईसी. 0.7 प्रतिशत या क्‍वीनालफास 25 ई.सी 0.05 प्रतिशत या क्‍लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी . 0.6 प्रतिशत या फेन्‍वेलरेट 20 ई.सी 0.02 प्रतिशत या एसीफेट 75 डब्‍लू पी 0.0075 प्रतिशत या ऐलेनिकाब 30 ई.सी 500 ग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हे. या प्राफेनोफॉस 50 ई.सी एक लीटर प्रति हे. का छिड़काव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिडकाव सर्वागीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्‍पर्श या सर्वागीण कीटनाशक दवाई का छिड़काव करें। कीटनाशक का तीन छिड़काव या भुरकाव पहला फूल बनने पर दूसरा 50 प्रतिशत फुल बनने पर और तीसरा फली बनने बनने की अवस्‍था पर करना चाहिए।
नोट: - इन्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी 0.07 प्रतिशत का छिड़काव करें। यह लाभदायी कीट केम्‍पोलिटेसीस क्‍लोरिडी नामक कीट के लिए बहुत सुरक्षित पाया गया है।
कटाई एवं गहराई
जब पौधे की पत्तियॉं गिरने लगे एवं फलियॉ सूखने पर भूरे रंग की पड़ जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8- 10 दिन धूप में सूखाकर ट्रेक्‍टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिशत नमी रहने तक सूखाकर भण्‍डारित करना चाहिए।
उननत उत्‍पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विं / हे. उपज असिंचित अवस्‍था में और 25-30 क्विं/ हे. उपज सिंचित अवस्‍था में प्राप्‍त की जा सकती है।