कपास
कपास रेशे वाली औद्योगिक एवं उपयोगी फसल है। कपास की खेती मध्यप्रदेश में लगभग 6 लाख हेक्टेयर भूमि में की जाती है। सिंचित कपास का रकबा लगभग 1 लाख हेक्टेयर है। प्रदेश में देशी तथा अमेरिकन दोनों प्रकार की कपास की खेती होती है। देशी कपास का उत्पादन मुख्यत: हल्की भूमि वाले क्षेत्रों में किया जाता है। देशी कपास का क्षेत्र लगभग 1 लाख हेक्टेयर है। मध्य प्रदेश में कपास का उत्पादन लगभग 15-16 लाख गॉंठ (370 किलोग्राम प्रति गॉंठ) है।
उपयुक्त क्षेत्र: मध्य प्रदेश में कपास की खेती के लिये निम्नलिखित क्षेत्र उपयुक्त पाये गये हैं।
(अ) निमाड़ क्षेत्र: औसत वर्षा लगभग 600 से 800 मिली मीटर, भूमि मध्यम, हल्की काली एवं अच्छे निथार वाली है। इसमें नत्रजन कम एवं स्फुर तथा पोटाश मध्यम मात्रा में पाये जाते हैं। इसके अंतर्गत खरगोन, खंडवा तथा धार जिले के कुक्षी तथा मनावर क्षेत्र आते हैं।
(ब) मालवा क्षेत्र: क्षेत्रफल करीब 50 हजार हेक्टेयर- वर्षा 1000 से 1500 मिली मीटर, मिट्टी मध्यम तथा गहरी, नत्रजन की कमी, स्फुर तथा पोटाश प्रचुर मात्रा में है। इनमें इंदौर, देवास, धार (कुक्षी) तथा मनावर छोड़कर उज्जैन, शाजापुर, रतलाम, राजगढ़, सीहोर जिले आते हैं।
(स) नर्मदा घाटी: क्षेत्रफल करीब 5 हजार हेक्टेयर। यह पूरा क्षेत्र पश्चिमी होशंगाबाद तथा हरदा जिले में आता है। वर्षा 1200 मि.मी. तथा भूमि मध्यम काली और रेतीली मटियार है।
(द) सतपुड़ा क्षेत्र: क्षेत्रफल करीब 25 हजार हेक्टेयर। इस क्षेत्र में सांसर, पाण्डुरना, छिंदवाड़ा तथा भेसदही और मुलताई, बैतूल आते हैं। वर्षा 1000-1200 मि.ली. होती है। भूमि हल्की तथा मध्यम काली हैं।
(ई) झाबुआ क्षेत्र: इसमें झाबुआ जिले के पेटलावद, अलीराजपुर आदि क्षेत्र हैं। कुल रकबा लगभग 20 हजार हेक्टेयर है।
भूमि का चुनाव: बालुई, दोमट या मध्यम गहरी भूमि जिसमें पर्याप्त जीवांश एवं उत्तम निकास हो, कपास की फसल के लिये उपयुक्त है। भूमि का पी.एच. मान 6.5 से 7.5 बीच होना चाहिये।
भूमि की तैयारी: फसल के पुराने अवशेष निकाल कर खेत की अच्छी सफाई करें। खेत की मिट्टी देशी हल अथवा कल्टीवेटर चलाकर पलट दें। तीन साल में एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई करना आवश्यक है। मानसून से पहले बखर या कल्टीवेटर से 2-3 बार जुताई कर खेत समतल करें। अंतिम बखरनी से पूर्व 40-45 गाड़ी पका हुआ गोबर खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से मिलायें। तीन वर्ष में एक बार जिंक सल्फेट, 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर खाद में मिलाकर दें।
अनुशंसित जातियॉं:
क्षेत्र
उपयुक्त जातियॉं
निमाड़ घाटी
खंडवा-2, जवाहर ताप्ती, जे.के.-4, विक्रम, एल.आर.ए.-5166, हाइब्रिड- जे.के.एच.-1, जे.के.एच.-2 एवं जवाहर प्रकाश
मालवा का पठार
विक्रम, जवार ताप्ती, हाइब्रिड-संकर-8, जे.के.एच.-1, जे.के.एच.-2 एवं जवाहर आकाश
नर्मदा घाटी
जे.के.-4, जवाहर ताप्ती, हाइब्रिड-एन.एच.एच.-44, जे.के.एच.-2 एवं जवाहर आकाश
सतपुड़ा का पठार
जे.के.-4, जवाहर ताप्ती, एल.आर.ए.-5166, हाइब्रिड-जे.के.एच.-2, संकर-8, संकर-10 एवं एन.एच.एच.-44
बीज की मात्रा:
सिंचाई की सुविधा
बीज की मात्रा, किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
अमेरिकन कपास
देशी कपास
संकर कपास
सिंचित/अर्द्धसिंचित
4-6
6-8
2.5-4.0
असिंचित
6-8
8-10
3.0-5.0
बोनी का समय: सिंचित क्षेत्र में पलेवा देकर कपास की बोनी 25 मई से जून के प्रथम सप्ताह तक करें। असिंचित कपास की बोनी वर्षा प्रारंभ होने से एक सप्ताह पूर्व सूखे में या वर्षा प्रारंभ होने पर सरता या चौफुली पद्धति से करें।
बीजोपचार: बोने से पूर्व बीज को प्रति किलोग्राम 2.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम या केप्टान दवा से उपचारित करें। इमिडा क्लोप्रिड 7.0 ग्राम अथवा कार्बोराल्फान 20 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज उपचारित कर बोने से फसल को 40 से 60 दिन तक रस चूसक कीड़ों से सुरक्षा मिलती है।
बोआई विधि: संकर कपास 90 X 90 सेमी. या 120 X 90 सेमी. की दूरी पर लगाएं तथा उन्नत जातियों के लिए 60 X 60 सेमी. की दूरी सामान्यत: रखें। हल्की भूमि में यह दूरी 45 X 45 अथवा 45 X 30 सेमी. रखी जा सकती है।
खाद एवं उर्वरक:
(अ) जीवांश खाद: गोबर की खाद, कम्पोस्ट/नाडेप कम्पोस्ट 40-45 गाड़ी प्रति हेक्टेयर, नीम की खली 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर डालें।
(ब) रासायनिक उर्वरक: संतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग आवश्यक है। निम्न मात्रा (किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) में उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए:
1. सिंचित 160 नत्रजन : 80 स्फुर : 40 पोटाश
2. अर्द्धसिंचित 100 नत्रजन : 60 स्फुर : 40 पोटाश
3. असिंचित 80 नत्रजन : 40 स्फुर : 40 पोटाश
उर्वरक देने का समय
उर्वरक की मात्रा (प्रतिशत में)
सिंचित असिंचित
नत्रजन
फास्फोरस
पोटाश
नत्रजन
फास्फोरस
पोटाश
1. बोनी के समय
10%
50%
50%
33%
50%
50%
2. अंकुरण के 1 माह बाद
25%
-
-
33%
-
-
3. अंकुरण 2 माह बाद
25%
50%
50%
33%
50%
50%
4. अंकुरण के 3 माह बाद
24%
-
-
-
-
-
5. अंकुरण के 4 माह बाद
15%
-
-
-
-
-
बोनी के समय खाद बीज के नीचे 6-10 सेमी. गहराई पर दें। अंकुरण के 60-65 दिन बाद पौधे के पास रिंग पद्धति अथवा कॉलम पद्धति से (गड्डे बनाकर) उर्वरक दें।
कपास के साथ उड़द, सोयाबीन, मूंगफली की अंतरवर्ती फसल लाभप्रद पाई गई है। इसे कतार छोड़ कतार जोड़ पद्धति से लगाएं। इसके अतिरिक्त संकर मक्का या तिल की अंतरवर्ती फसल लेना लाभकारी पाया गया है।
(क) कपास की हर 2 कतार के बाद दो कतार अंतरवर्ती फसल लगाएं। सिंचित में अंतरवर्ती फसल की कतारें 45 सेमी. तथा असिंचित में 30 सेमी. दूरी पर लगाएं।
(ख) कपास की हर 6-8 कतारों के बाद अरहर की दो कतारें लगाना लाभप्रद रहता है।
जीवित बिछावन: असिंचित कपास में कतारों के बीच, उड़द, मूंग, सोयाबीन अथवा फ्रेंचबीन 30-35 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की बीज दर से लगाएं। इसे अंकुरण के 25 दिन बाद खेत में मिला दें। इससे खेत की नमी काफी दिनों तक बनी रहती है एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
सिंचाई: वर्षा समाप्त होने पर हल्की भूमि में 12-15 दिन तथा मध्यम-भारी भूमि में 25-35 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। कली एवं फूल बहार के समय नमी की आवश्यकता अधिक होती है। प्रत्येक बार एक कतार छोड़ कर सिंचाई करें।
खरपतवार नियंत्रण: अंकुरण के 20-25 दिन पश्चात हाथ से निंदाई कर कोल्पा- डोरा चलाएं। वर्षा के बीच समय मिलने पर डोरा चलाएं तथा हाथ से निंदाई करते रहें।
नींदा नाशक रसायन लासो (ऐलाक्लोर) 5 लीटर या पेंडीमिथिलीन 5 किग्रा. या डाययूरान 750 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर के मान से 500-600 लीटर पानी में घोल कर बोआई के बाद एवं अंकुरण से पहले छिड़काव करें। दवा के प्रयोग के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए।
कपास की चुनाई:
अ. केवल पूरी तरह खिले घेटों से कपास की चुनाई करें।
ब. गीले कपास की चुनाई न करें। ओस सूखने के बाद दिन में कपास की चुनाई करें।
स. चुने हुए कपास में पेड़ के सूखे पत्ते, डंठल, मिट्टी आदि रहने पर कपास की गुणवत्ता कम हो जाती है तथा बाजार भाव कम मिलता है।
ड. आखिरी तुड़ाई का कपास पहले की चुनाई में ना मिलाएं।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: कपास में मुख्यत: दो प्रकार के कीटों का प्रकोप देखा गया है।
1. रस चूसने वाले कीट: हरा मच्छर, माहो, तेला एवं सफेद मक्खी। इन कीटों का प्रकोप जुलाई से सितम्बर के मध्य प्राय: होता है। प्रकोपित पौधे की पत्तियां लाल व सिकुड़ जाती हैं, फलस्वरूप पौधों की बढ़वार बहुत कम होती है।
2. डेडूं छेदक इल्लियॉं: इनमें मुख्यत: चित्तीदार इल्ली, चने की इल्ली (अमेरिकन बालवर्म) एवं गुलाबी इल्ली है।
(अ) चित्तीदार इल्ली: इस इल्ली का प्रकोप फसल अंकुरण से 15-20 दिन की अवस्था पर एवं डेंडू बनने पर होता है। प्रकोप अगस्त से सितम्बर माह के मध्य अधिक होता है।
(ब) अमेरिकन बालवर्म: फूल अवस्था पर इसका प्रकोप शुरू होता है। प्रकोपित पुडि़यों के सहपत्र चौड़े होकर फैल जाते हैं व डेंडूओं में खुले बड़े छेद पाये जाते हैं। इन इल्लियों का प्रकोप अगस्त-सितम्बर से अक्टूबर-नवम्बर तक होता है।
(स) गुलाबी इल्ली: मालवा एवं निमाड़ में इस कीट का प्रकोप कम होता है। इल्ली फूलों की पंखुडि़यों को जाले से लपेट कर फिरकनी का आकार बना लेती है।
नियंत्रण:
1. फसल कटाई उपरांत अवशेषों को नष्ट करें।
2. ग्रीष्मकालीन मिण्डी की फसल को अप्रैल में समाप्त करें।
3. बोनी वर्षा आगमन के पूर्व सूखे खेतों में या वर्षा के तुरंत बाद करें।
4. कपास के साथ चौला अन्तरवर्तीय फसल के रूप में लें।
5. रस चूसने वाले कीट सहनशील प्रजातियां- खण्डवा’2, जे.के.-4, ताप्ती, जे.के.एच.वायु-1 लगायें।
6. बीजोपचार इमिडाक्लोप्रिड 7 ग्राम/प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से करें।
7. रस चूषक कीटों के प्रति सहनशील किस्मों को लगावें तथा दो माह तक कीटनाशकों का छिड़काव न करें।
8. आवश्यतानुसार 5% निम्बोली का रस एवं नीम का तेल एक लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।9. फसल की 60-90 दिन की अवस्था के दौरान (यदि 40 पौधों में से 20 पौधों की फूल पुडियों कीट/प्रकोपित हैं व सहपत्र चौड़े हैं) तब ट्रायकोगामा 1.5 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से या एन.पी.व्ही. 250 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा इण्डोसल्फान दवा का छिड़काव करें।
10. फसल की उपरोक्त अवस्था पर आर्गेनोफास्फेट्स या पायरेथ्राइड्स दवा का छिड़काव नहीं करें।
11. छिड़काव के 2-3 दिन बाद शेष बची हुई इल्लियों को एकत्रित कर नष्ट करें।
12. अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह के बाद इण्डोसल्फान का छिड़काव नहीं करें।
13. निर्धारित आर्थिक क्षति स्तर, ई.टी.एल. (20 लार्वा प्रति 20 पौधे) होने पर क्यूनालफास अथवा क्लोरपयारीफास या प्रोफेनोफास 20-25 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
14. फेरोमोन्स ट्रेप 5 प्रति हेक्टेयर गुलाबी इल्ली (पिंक बालवर्म) के लिये उपयोग करें।
15. विलम्ब से आने वाले अमेरिकन बालवर्म एवं पिंक बालवर्म का प्रकोप फसल की 30-120 दिन की अवस्था पर होता है। इसके नियंत्रण के हेतु पायरेथ्राइड्स का उपयोग सेसेमम ऑयल (1 लीटर प्रति हेक्टेयर) के साथ प्रभावशाली पाया गया है।
16. दो या तीन दवाओं को एक साथ मिलाकर न छिड़कें।
17. एक ही प्रकार की दवा का लगातार उपयोग नहीं करें।
(ब) रोग: बीज को अम्ल उपचारित करने के बाद बोते समय स्ट्रेप्टोसायक्लिन के 200 पी.पी.एम. घोल में 20 मिनट तक डुबोये। जीवाणु झुलसा रोग की रोकथाम हेतु फसल (विशेषकर हाइब्रिड-4, डी.सी.एच.-32) पर फायटोलान या ब्लायटाक्स 50 एक किलो ग्राम + स्ट्रेप्टोसायक्लिन 6 ग्राम प्रति एकड़ का 15 दिन के अंतर पर छिड़काव करें। रोग रोधी संकर किस्में जे.के.एच.-1 तथा जे.के.एच.-2 का चयन करें। इन्हीं दवाओं के प्रयोग से आल्टनेरिया, माइरीधीसियम पर्ण झुलसा तथा डेंटू सड़न एवं दाहिया (रेमूलेरिया) रोग का भी नियंत्रण हो जाता है। जड़ सड़न रोग की रोकथाम हेतु केप्टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के मान से उपचार करें तथा कपास के साथ मोठ एवं मूंग की अंतरवर्तीय फसल लगायें। पौधे सूखने (नई विल्ट) की समस्या के निदान के लिये मुरझाते हुये पौधों की जड़ों में डी.ए.पी. + यूरिया के घोल का 3-4 लीटर प्रति पौधा दें। 100 लीटर घोल के लिये 1200 ग्राम डी.ए.पी. तथा 600 ग्राम यूरिया पर्याप्त होगा।
आवश्यक सुझाव:
1. क्षेत्र के अनुसार सिफारिश की गई किस्म लगाएं।
2. बीजोपचार कर सही विधि से उचित समय पर बोनी करें।
3. विभिन्न रासायनिक उर्वरक उचित मात्रा में सही विधि से उचित समय पर दें।
4. ऐजेटोबेक्टर एवं पी.एस.बी. कल्चर का उपयोग करें।
5. खरपतवार नियंत्रण एवं पौध संरक्षण तकनीक अपनाएं।
6. असिंचित कपास की फसल के बीच जीवित बिछावन का उपयोग कर खेत में अधिक समय तक नमी बनाएं रखें।
कपास रेशे वाली औद्योगिक एवं उपयोगी फसल है। कपास की खेती मध्यप्रदेश में लगभग 6 लाख हेक्टेयर भूमि में की जाती है। सिंचित कपास का रकबा लगभग 1 लाख हेक्टेयर है। प्रदेश में देशी तथा अमेरिकन दोनों प्रकार की कपास की खेती होती है। देशी कपास का उत्पादन मुख्यत: हल्की भूमि वाले क्षेत्रों में किया जाता है। देशी कपास का क्षेत्र लगभग 1 लाख हेक्टेयर है। मध्य प्रदेश में कपास का उत्पादन लगभग 15-16 लाख गॉंठ (370 किलोग्राम प्रति गॉंठ) है।
उपयुक्त क्षेत्र: मध्य प्रदेश में कपास की खेती के लिये निम्नलिखित क्षेत्र उपयुक्त पाये गये हैं।
(अ) निमाड़ क्षेत्र: औसत वर्षा लगभग 600 से 800 मिली मीटर, भूमि मध्यम, हल्की काली एवं अच्छे निथार वाली है। इसमें नत्रजन कम एवं स्फुर तथा पोटाश मध्यम मात्रा में पाये जाते हैं। इसके अंतर्गत खरगोन, खंडवा तथा धार जिले के कुक्षी तथा मनावर क्षेत्र आते हैं।
(ब) मालवा क्षेत्र: क्षेत्रफल करीब 50 हजार हेक्टेयर- वर्षा 1000 से 1500 मिली मीटर, मिट्टी मध्यम तथा गहरी, नत्रजन की कमी, स्फुर तथा पोटाश प्रचुर मात्रा में है। इनमें इंदौर, देवास, धार (कुक्षी) तथा मनावर छोड़कर उज्जैन, शाजापुर, रतलाम, राजगढ़, सीहोर जिले आते हैं।
(स) नर्मदा घाटी: क्षेत्रफल करीब 5 हजार हेक्टेयर। यह पूरा क्षेत्र पश्चिमी होशंगाबाद तथा हरदा जिले में आता है। वर्षा 1200 मि.मी. तथा भूमि मध्यम काली और रेतीली मटियार है।
(द) सतपुड़ा क्षेत्र: क्षेत्रफल करीब 25 हजार हेक्टेयर। इस क्षेत्र में सांसर, पाण्डुरना, छिंदवाड़ा तथा भेसदही और मुलताई, बैतूल आते हैं। वर्षा 1000-1200 मि.ली. होती है। भूमि हल्की तथा मध्यम काली हैं।
(ई) झाबुआ क्षेत्र: इसमें झाबुआ जिले के पेटलावद, अलीराजपुर आदि क्षेत्र हैं। कुल रकबा लगभग 20 हजार हेक्टेयर है।
भूमि का चुनाव: बालुई, दोमट या मध्यम गहरी भूमि जिसमें पर्याप्त जीवांश एवं उत्तम निकास हो, कपास की फसल के लिये उपयुक्त है। भूमि का पी.एच. मान 6.5 से 7.5 बीच होना चाहिये।
भूमि की तैयारी: फसल के पुराने अवशेष निकाल कर खेत की अच्छी सफाई करें। खेत की मिट्टी देशी हल अथवा कल्टीवेटर चलाकर पलट दें। तीन साल में एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से खेत की गहरी जुताई करना आवश्यक है। मानसून से पहले बखर या कल्टीवेटर से 2-3 बार जुताई कर खेत समतल करें। अंतिम बखरनी से पूर्व 40-45 गाड़ी पका हुआ गोबर खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर की दर से मिलायें। तीन वर्ष में एक बार जिंक सल्फेट, 25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर खाद में मिलाकर दें।
अनुशंसित जातियॉं:
क्षेत्र
उपयुक्त जातियॉं
निमाड़ घाटी
खंडवा-2, जवाहर ताप्ती, जे.के.-4, विक्रम, एल.आर.ए.-5166, हाइब्रिड- जे.के.एच.-1, जे.के.एच.-2 एवं जवाहर प्रकाश
मालवा का पठार
विक्रम, जवार ताप्ती, हाइब्रिड-संकर-8, जे.के.एच.-1, जे.के.एच.-2 एवं जवाहर आकाश
नर्मदा घाटी
जे.के.-4, जवाहर ताप्ती, हाइब्रिड-एन.एच.एच.-44, जे.के.एच.-2 एवं जवाहर आकाश
सतपुड़ा का पठार
जे.के.-4, जवाहर ताप्ती, एल.आर.ए.-5166, हाइब्रिड-जे.के.एच.-2, संकर-8, संकर-10 एवं एन.एच.एच.-44
बीज की मात्रा:
सिंचाई की सुविधा
बीज की मात्रा, किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
अमेरिकन कपास
देशी कपास
संकर कपास
सिंचित/अर्द्धसिंचित
4-6
6-8
2.5-4.0
असिंचित
6-8
8-10
3.0-5.0
बोनी का समय: सिंचित क्षेत्र में पलेवा देकर कपास की बोनी 25 मई से जून के प्रथम सप्ताह तक करें। असिंचित कपास की बोनी वर्षा प्रारंभ होने से एक सप्ताह पूर्व सूखे में या वर्षा प्रारंभ होने पर सरता या चौफुली पद्धति से करें।
बीजोपचार: बोने से पूर्व बीज को प्रति किलोग्राम 2.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम या केप्टान दवा से उपचारित करें। इमिडा क्लोप्रिड 7.0 ग्राम अथवा कार्बोराल्फान 20 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज उपचारित कर बोने से फसल को 40 से 60 दिन तक रस चूसक कीड़ों से सुरक्षा मिलती है।
बोआई विधि: संकर कपास 90 X 90 सेमी. या 120 X 90 सेमी. की दूरी पर लगाएं तथा उन्नत जातियों के लिए 60 X 60 सेमी. की दूरी सामान्यत: रखें। हल्की भूमि में यह दूरी 45 X 45 अथवा 45 X 30 सेमी. रखी जा सकती है।
खाद एवं उर्वरक:
(अ) जीवांश खाद: गोबर की खाद, कम्पोस्ट/नाडेप कम्पोस्ट 40-45 गाड़ी प्रति हेक्टेयर, नीम की खली 25-30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर डालें।
(ब) रासायनिक उर्वरक: संतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग आवश्यक है। निम्न मात्रा (किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) में उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए:
1. सिंचित 160 नत्रजन : 80 स्फुर : 40 पोटाश
2. अर्द्धसिंचित 100 नत्रजन : 60 स्फुर : 40 पोटाश
3. असिंचित 80 नत्रजन : 40 स्फुर : 40 पोटाश
उर्वरक देने का समय
उर्वरक की मात्रा (प्रतिशत में)
सिंचित असिंचित
नत्रजन
फास्फोरस
पोटाश
नत्रजन
फास्फोरस
पोटाश
1. बोनी के समय
10%
50%
50%
33%
50%
50%
2. अंकुरण के 1 माह बाद
25%
-
-
33%
-
-
3. अंकुरण 2 माह बाद
25%
50%
50%
33%
50%
50%
4. अंकुरण के 3 माह बाद
24%
-
-
-
-
-
5. अंकुरण के 4 माह बाद
15%
-
-
-
-
-
बोनी के समय खाद बीज के नीचे 6-10 सेमी. गहराई पर दें। अंकुरण के 60-65 दिन बाद पौधे के पास रिंग पद्धति अथवा कॉलम पद्धति से (गड्डे बनाकर) उर्वरक दें।
कपास के साथ उड़द, सोयाबीन, मूंगफली की अंतरवर्ती फसल लाभप्रद पाई गई है। इसे कतार छोड़ कतार जोड़ पद्धति से लगाएं। इसके अतिरिक्त संकर मक्का या तिल की अंतरवर्ती फसल लेना लाभकारी पाया गया है।
(क) कपास की हर 2 कतार के बाद दो कतार अंतरवर्ती फसल लगाएं। सिंचित में अंतरवर्ती फसल की कतारें 45 सेमी. तथा असिंचित में 30 सेमी. दूरी पर लगाएं।
(ख) कपास की हर 6-8 कतारों के बाद अरहर की दो कतारें लगाना लाभप्रद रहता है।
जीवित बिछावन: असिंचित कपास में कतारों के बीच, उड़द, मूंग, सोयाबीन अथवा फ्रेंचबीन 30-35 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की बीज दर से लगाएं। इसे अंकुरण के 25 दिन बाद खेत में मिला दें। इससे खेत की नमी काफी दिनों तक बनी रहती है एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है।
सिंचाई: वर्षा समाप्त होने पर हल्की भूमि में 12-15 दिन तथा मध्यम-भारी भूमि में 25-35 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें। कली एवं फूल बहार के समय नमी की आवश्यकता अधिक होती है। प्रत्येक बार एक कतार छोड़ कर सिंचाई करें।
खरपतवार नियंत्रण: अंकुरण के 20-25 दिन पश्चात हाथ से निंदाई कर कोल्पा- डोरा चलाएं। वर्षा के बीच समय मिलने पर डोरा चलाएं तथा हाथ से निंदाई करते रहें।
नींदा नाशक रसायन लासो (ऐलाक्लोर) 5 लीटर या पेंडीमिथिलीन 5 किग्रा. या डाययूरान 750 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर के मान से 500-600 लीटर पानी में घोल कर बोआई के बाद एवं अंकुरण से पहले छिड़काव करें। दवा के प्रयोग के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए।
कपास की चुनाई:
अ. केवल पूरी तरह खिले घेटों से कपास की चुनाई करें।
ब. गीले कपास की चुनाई न करें। ओस सूखने के बाद दिन में कपास की चुनाई करें।
स. चुने हुए कपास में पेड़ के सूखे पत्ते, डंठल, मिट्टी आदि रहने पर कपास की गुणवत्ता कम हो जाती है तथा बाजार भाव कम मिलता है।
ड. आखिरी तुड़ाई का कपास पहले की चुनाई में ना मिलाएं।
पौध संरक्षण:
(अ) कीट: कपास में मुख्यत: दो प्रकार के कीटों का प्रकोप देखा गया है।
1. रस चूसने वाले कीट: हरा मच्छर, माहो, तेला एवं सफेद मक्खी। इन कीटों का प्रकोप जुलाई से सितम्बर के मध्य प्राय: होता है। प्रकोपित पौधे की पत्तियां लाल व सिकुड़ जाती हैं, फलस्वरूप पौधों की बढ़वार बहुत कम होती है।
2. डेडूं छेदक इल्लियॉं: इनमें मुख्यत: चित्तीदार इल्ली, चने की इल्ली (अमेरिकन बालवर्म) एवं गुलाबी इल्ली है।
(अ) चित्तीदार इल्ली: इस इल्ली का प्रकोप फसल अंकुरण से 15-20 दिन की अवस्था पर एवं डेंडू बनने पर होता है। प्रकोप अगस्त से सितम्बर माह के मध्य अधिक होता है।
(ब) अमेरिकन बालवर्म: फूल अवस्था पर इसका प्रकोप शुरू होता है। प्रकोपित पुडि़यों के सहपत्र चौड़े होकर फैल जाते हैं व डेंडूओं में खुले बड़े छेद पाये जाते हैं। इन इल्लियों का प्रकोप अगस्त-सितम्बर से अक्टूबर-नवम्बर तक होता है।
(स) गुलाबी इल्ली: मालवा एवं निमाड़ में इस कीट का प्रकोप कम होता है। इल्ली फूलों की पंखुडि़यों को जाले से लपेट कर फिरकनी का आकार बना लेती है।
नियंत्रण:
1. फसल कटाई उपरांत अवशेषों को नष्ट करें।
2. ग्रीष्मकालीन मिण्डी की फसल को अप्रैल में समाप्त करें।
3. बोनी वर्षा आगमन के पूर्व सूखे खेतों में या वर्षा के तुरंत बाद करें।
4. कपास के साथ चौला अन्तरवर्तीय फसल के रूप में लें।
5. रस चूसने वाले कीट सहनशील प्रजातियां- खण्डवा’2, जे.के.-4, ताप्ती, जे.के.एच.वायु-1 लगायें।
6. बीजोपचार इमिडाक्लोप्रिड 7 ग्राम/प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से करें।
7. रस चूषक कीटों के प्रति सहनशील किस्मों को लगावें तथा दो माह तक कीटनाशकों का छिड़काव न करें।
8. आवश्यतानुसार 5% निम्बोली का रस एवं नीम का तेल एक लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।9. फसल की 60-90 दिन की अवस्था के दौरान (यदि 40 पौधों में से 20 पौधों की फूल पुडियों कीट/प्रकोपित हैं व सहपत्र चौड़े हैं) तब ट्रायकोगामा 1.5 लाख अंडे प्रति हेक्टेयर की दर से या एन.पी.व्ही. 250 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा इण्डोसल्फान दवा का छिड़काव करें।
10. फसल की उपरोक्त अवस्था पर आर्गेनोफास्फेट्स या पायरेथ्राइड्स दवा का छिड़काव नहीं करें।
11. छिड़काव के 2-3 दिन बाद शेष बची हुई इल्लियों को एकत्रित कर नष्ट करें।
12. अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह के बाद इण्डोसल्फान का छिड़काव नहीं करें।
13. निर्धारित आर्थिक क्षति स्तर, ई.टी.एल. (20 लार्वा प्रति 20 पौधे) होने पर क्यूनालफास अथवा क्लोरपयारीफास या प्रोफेनोफास 20-25 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
14. फेरोमोन्स ट्रेप 5 प्रति हेक्टेयर गुलाबी इल्ली (पिंक बालवर्म) के लिये उपयोग करें।
15. विलम्ब से आने वाले अमेरिकन बालवर्म एवं पिंक बालवर्म का प्रकोप फसल की 30-120 दिन की अवस्था पर होता है। इसके नियंत्रण के हेतु पायरेथ्राइड्स का उपयोग सेसेमम ऑयल (1 लीटर प्रति हेक्टेयर) के साथ प्रभावशाली पाया गया है।
16. दो या तीन दवाओं को एक साथ मिलाकर न छिड़कें।
17. एक ही प्रकार की दवा का लगातार उपयोग नहीं करें।
(ब) रोग: बीज को अम्ल उपचारित करने के बाद बोते समय स्ट्रेप्टोसायक्लिन के 200 पी.पी.एम. घोल में 20 मिनट तक डुबोये। जीवाणु झुलसा रोग की रोकथाम हेतु फसल (विशेषकर हाइब्रिड-4, डी.सी.एच.-32) पर फायटोलान या ब्लायटाक्स 50 एक किलो ग्राम + स्ट्रेप्टोसायक्लिन 6 ग्राम प्रति एकड़ का 15 दिन के अंतर पर छिड़काव करें। रोग रोधी संकर किस्में जे.के.एच.-1 तथा जे.के.एच.-2 का चयन करें। इन्हीं दवाओं के प्रयोग से आल्टनेरिया, माइरीधीसियम पर्ण झुलसा तथा डेंटू सड़न एवं दाहिया (रेमूलेरिया) रोग का भी नियंत्रण हो जाता है। जड़ सड़न रोग की रोकथाम हेतु केप्टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के मान से उपचार करें तथा कपास के साथ मोठ एवं मूंग की अंतरवर्तीय फसल लगायें। पौधे सूखने (नई विल्ट) की समस्या के निदान के लिये मुरझाते हुये पौधों की जड़ों में डी.ए.पी. + यूरिया के घोल का 3-4 लीटर प्रति पौधा दें। 100 लीटर घोल के लिये 1200 ग्राम डी.ए.पी. तथा 600 ग्राम यूरिया पर्याप्त होगा।
आवश्यक सुझाव:
1. क्षेत्र के अनुसार सिफारिश की गई किस्म लगाएं।
2. बीजोपचार कर सही विधि से उचित समय पर बोनी करें।
3. विभिन्न रासायनिक उर्वरक उचित मात्रा में सही विधि से उचित समय पर दें।
4. ऐजेटोबेक्टर एवं पी.एस.बी. कल्चर का उपयोग करें।
5. खरपतवार नियंत्रण एवं पौध संरक्षण तकनीक अपनाएं।
6. असिंचित कपास की फसल के बीच जीवित बिछावन का उपयोग कर खेत में अधिक समय तक नमी बनाएं रखें।
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