तिल
भारत वर्ष में उगायी जाने वाली तिलहनों में तिल एक अत्यंत महत्व की फसल है। इसके बीज में 50 से 54 प्रतिशत तेल, 16 से 19 प्रतिशत प्रोटीन एवं 15.6 से 17.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट की मात्रा पायी जाती है। तिल का तेल अत्यंत स्वादिष्ट एवं बहुउपयोगी होता है। भोजन पकाने के अलावा इसका उपयोग दवा , साबुन , बेकरी एवं सुगंधित तेल आदि में भी किया जाता है।
प्रदेश में इसकी औसत उपज 208 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर है। इसकी खेती मुख्यत: छतरपुर, टीकमगढ, सीधी, शहडोल, मुरैना, शिवपुरी, सागर, दमोह, जबलपुर, मंउला, पूर्वी निमाड एवं सिवनी जिलों में की जाती है। उत्पादकों द्वारा सीमान्त एवं उपसीमान्त भूमि में वर्षा आधारित सीमित निवेश तथा कुप्रबंधन की स्थिति में काश्त करना ही फसल की कम उत्पादकशीलता के प्रमुख कारण है। इसके अलावा प्रदेश के विभिन्न सस्य – जलवायु क्षेत्रों के लिये विकसित की गई उन्नत किस्मों का तथा सस्य उत्पादन तकनीकी का अंगीकार करने से प्रदेश में तिल की उत्पादनशीलता में सारगर्नित वृद्धि होना पायी गई है। प्रदेश हेतु विकसित की गई उन्नत तकरीक अपनाकर कृषक भाई अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं।
भूमि का चुनाव
फसल को प्रदेश की अधिकांश भूमि में उगाया जा सकता है। अच्छी जल निकास वाली हल्की से मध्यम गठी हुई मिटटी में फसल अच्छी होती है। बलुई दुमट मिटटी में पर्याप्त नमीं होने पर फसल बहुत अच्छी होती है। अम्लीय या क्षारीय भूमि तिल की काश्त हेतु अनुपयोगी होती है। काश्त करने हेतु भूमि का अनुकूलन पी.एच.मान 5.5 से 8.0 है।
भूमि की तैयारी
बीज के उचित अंकुरण एवं खेत में पर्याप्त पौध संख्या प्राप्त करने हेतु अच्छी तरह से गहरी जुताई किया गया भुरभुरी मिटटी वाला खेत आवश्यक होता है। खेत को एक या दो बार हल तथा एक बार बखर चलाना चाहिये। पाटा चलाकर खेत को समतल करे। असमतल खेत में अनावश्यक पानी का जमाव होने से पौधे मर सकते हैं जिससे खेत में पौधों की संख्या कम हो सकती है तथा कम पौध संख्या का सीधा प्रभाव उपज पड़ता है तथा कम उपज प्राप्त होती है। अत: इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये की खेत में अनावश्यक पानी का जमाव नहीं हो।
जातियों का चुनाव
प्रदेश में काश्त हेतु निम्नलिखित उन्नत किस्मों को अनुशंसित किया गया है।
1 . टी .के. जी. – 21 – ऑचलिक कृषि अनुसंधान केन्द्र , टीकमगढ (ज.ने.कृ.वि.वि. जबलपुर म.प्र.) द्वारा वर्ष 1992 में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दाने का रंग सफेद होकर सरकोस्पोरा पर्णदाग तथा जीवाणुचित्ती रोगों के प्रति रोधक किस्म है। 75-78 दिनों में पककर तैयार होती है तथा दानों में तेल की मात्रा 55.9 प्रतिशत होती है। उचित शस्य प्रबंधन के अंतर्गत औसत उपज 950 कि.ग्रा. / हेक्टर प्राप्त होती है।
2 . टी .के. जी. – 22 – टीकमगढ़ केन्द्र द्वारा वर्ष 1994 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दानें सफेद रंग के होकर फाईटोफथेरा अंगमारी रोग रोधक किस्म है। परिपक्वता अवधि 76-81 दिन होकर दानों में 53.3 प्रतिशत तेल की मात्रा पायी जाती है। उत्तम शस्य प्रबंधन के द्वारा औसत उपज 950 कि.ग्रा. / हे. प्राप्त होती है।
3 . टी .के. जी. – 55 – यह किस्म भी टीकमगढ़ केन्द्र द्वारा वर्ष 1998 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। सफेद रंग के दानों वाली किस्म होकर फाईटोफथोरा अंगमारी एवं मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सडन बीमारी के लिये सहनशील है। 76 से 78 दिनों में पककर तैयार होती है। तेल की मात्रा 53 प्रतिशत पायी जाती है। औसत उपज क्षमता 630 कि.ग्रा. / हे. है।
4 . टी .के. जी. – 8 – टीकमगढ़ केन्द्र द्वारा वर्ष 2000 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दानों का रंग सफेद होकर किस्म फाईटोफथोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्तीधब्बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील है। लगभग 86 दिनों में पक कर तैयार होती है। औसत उपज क्षमता 600 – 700 कि.ग्रा. / हे. है।
5 . कंचन तिल (जे.टी.7) – मध्य प्रदेश के सभी खरीफ तिल लेने वाले क्षेत्रों में जिसमें विशेषकर बुन्देलखंड क्षेत्र शामिल है के लिए उपयुक्त है। वर्ष 1981 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दानों का रंग सफेद होकर आकार में बड़े होते हैं तथा तेल की मात्रा 54 प्रतिशत होती है। बहुशाखीय किस्म होकर इसकी औसत उपज क्षमता 880 कि.ग्रा. / हे. है।
6 एन. 32 –
वर्ष 1970 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। सफेद चमकदार रंग के बीज एक तनेवाली (शाखा रहित ) किस्म है। 90- 100 दिनों में पककर तैयार होती है, तेल की मात्रा 53 प्रतिशत होकर औसत उपज क्षमता 770 कि.ग्रा. / हे. है।
7 . आर. टी. 46
यह किस्म सन 1989 में काश्त हेतु विमोचित हुई है। चारकोल विगलन रोग हेतु रोधक है। भूरे रंग का बीज होकर बीजों में तेल की मात्रा 49 प्रतिशत होती है। किस्म लगभग 76 – 85 दिनों में पकती है तथा औसत उपज क्षमता 600 – 800 कि.ग्रा / हे. है।
8 . रामा (इम्प्रुव्हट सिलेक्शन – 5
यह किस्म सन 1989 में काश्त विमोचित हुई है। दानों का रंग लाल भूरा लाल होता है। दानों में तेल की मात्रा 45 प्रतिशत होती है तथा उचित शस्य प्रबंधन के अंतर्गत औसत उपज 700 – 1000 कि.ग्रा. / हे. आती है। प्रदेश में रबी एवं ग्रीष्मकालीन काश्त हेतु उपज है।
9 . उमा (ओ.एम.टी. 11-6-3)
यह किस्म सन 1990 में काश्त हेतु विमोचित हुई है। जल्दी परिपक्व होने वाली (75 – 80 दिनों में) किस्म हे। बीजों में तेल की मात्रा 51 प्रतिशत होकर औसत उपज क्षमता 603 कि.ग्रा. / हे. है।
फसल चक्र
तिल जल्दी पकने वाली फसल होने के कारण एकल फसल अथवा कई फसल पद्धतियों में रबी या ग्रीष्म के लिये उपयुक्त है। प्रदेश में तिल उगाने वाले विभिनन क्षेत्रों में साधारणत: ली जाने वाली क्रमिक फसल इस तरह है।
धान - तिल
तिल - गेहूं
कपास और तिल - गेहूं
मिश्रित / अन्त: फसल पद्धति
तिल की एकल फसल उपज आय मिश्रित / अन्त: फसल से अधिक होती है। प्रदेश में ली जाने वाली कुछ लोकप्रिय मिश्रित / अन्त: फसल पद्धतियॉं इस प्रकार है:
तिल + मूंग (2:2 अथवा 3:3 )
तिल + उड़द (2:2 अथवा 3:3)
तिल + सोयाबीन ( 2:1 अथवा 2:2)
बीजोपचार
मृदा जन्य एवं बीजजन्य रोगों से बचाव के लिये बोनी पूर्व बीज को थायरस 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से या थायरम (0.05 प्रतिशत) 1 :1 से बीजोपचार करें। जहॉं पर जीवाणु पत्ती धब्बा रोग की संभावना होती है वहॉ बोनी के पूर्ण बीजों को एग्रीमाइसीन – 100 के 0.025 प्रतिशत के घोल में आधा घंटे तक भिगोयें।
बोनी का समय
प्रदेश में फसल को मुख्यत: दो मौसम में उगाया जाता है जिनका बोनी का समय निम्नानुसार है:
खरीफ : जुलाई माह का प्रथम सप्ताह
अर्द्ध रबी: अगस्त माह के अंतिम सप्ताह से सितंबर माह के प्रथम सप्ताह तक
ग्रीष्मकालीन : जनवरी माह के दूसरे सप्ताह से फरवरी माह के दूसरे सप्ताह तक
बोने की विधि
फसल को आमतौर पर छिटककर बोया जाता है जिसके फलस्वरूप निंदाई – गुडाई करने एवं अंर्त:क्रियायें करने में अत्यंत बाधा आती है। फसल से अधिक उपज पाने के लिये कतारों में बोनी करनी चाहिये। छिटकवां विधि से बोनी करने पर बोनी हेतु 4 -7 कि;ग्रा. / हे. बीज की आवश्यकता होती है। कतारों में बोनी करने हेतु यदि ड्रील का प्रयोग किया जाता है तो बीज दर घटाकर 2.5 – 3 किग्रा. / हे. बीज की आवश्यकता होती है। बोनी के समय बीजों का समान रूप से वितरण करने के लिए बीज को रेत (बालू) सुखी मिटटी या अच्छी तरह से सडी हुई गोबर की खाद के साथ 1:20 के अनुपात में मिलाकर बोना चाहिये। मिश्रित पद्धति में तिल की बीजदर 2.5 कि;ग्रा. / हे. से अधिक नहीं होना चाहिये। कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30 गुणा 10 सेमी. रखते हुए लगभग 3 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
जमीन की उत्पादकता को बनाए रखने के लिये तथा अधिक उपज पाने के लिए भूमि की तैयारी करते समय अंतिम बखरनी के पहले 10 टन / हे. के मान से अच्छी सडी हुई गोबर की खाद को मिला देना चाहिये। वर्षा पर निर्भर स्थिति में 40 :30 :20 (नत्रजन : फास्फोरस : पोटाश) कि.ग्रा. / हेक्टर की मान से देने हेतु सिफारिश की गई है। फास्फोरस एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा आधार खाद के रूप में तथा नत्रजन की आधी मात्रा के साथ मिलाकर बोनी के समय दी जानी चाहिये।
नत्रजन की शेष मात्रा पौधों में फूल निकलने के समय यानी बोनी के 30 दिन बाद दी जा सकती है। रबी मौसम में फसल में सिफारिश की गई उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा आधार रूप में बोनी के समय दी जानी चाहिये। तिलहनी फसल होने के कारण मिटटी में गंधक तत्व की उपलब्धता फसल के उत्पादन एवं दानों में तेल के प्रतिशत को प्रभावित करती है। अत: फास्फोरस तत्व की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट उर्वरक द्वारा करना चाहिये। भूमि परीक्षण के उपरांत जमीन में यदि गंधक तत्व की कमी पायी जाती है तो वहॉं पर जिंक सल्फेट 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से भूमि में तीन साल में एक बार अवश्य प्रयोग करें।
सिंचाई
खरीफ मौसम में फसल वर्षा आधारित होती है। अत: वर्षा की स्थिति , भूमि में नमी का स्तर, भूमि का प्रकार एवं फसल की मांग अनुरूप सिंचाई की आवश्यकता भूमि में पर्याप्त नमीं बनाये रखने के लिये होती है। खेतों में एकदम प्रात: काल के समय पत्तियों का मुरझाना , सूखना एवं फूलों का न फूलना लक्ष्य दिखाई देने पर फसल में सिंचाई की आवश्यकता को दर्शाते हैं। अच्छी उपज के लिये सिंचाई की क्रांतिक अवस्थाये बोनी से पूर्व या बोनी के बाद, फूल आने की अवस्था है, अत: इन तीनों अवस्थाओं पर किसान भाई सिंचाई अवश्य करें।
निंदाई गुड़ाई
बोनी के 15 -20 दिन बाद निंदाई एवं फसल में विरलीकरण की प्रक्रिया को पूरा कर लें। फसल में निंदा की तीव्रता को देखते हुये यदि आवश्यकता होने पर 15 -20 दिन बाद पुन: निंदाई करें। कतारा में कोल्पा अथवा हैंड हो चलाकर नींदा नियंत्रित किया जा सकता है, कतारों के बीच स्थित निंदा निंदाई करते हुये नष्ट करना चाहिये। रासायनिक विधि से नींदा नियंत्रण हेतु ‘’ लासो ‘’ दानेदार 10 प्रतिशत को 20 कि.ग्रा. / हे. के मान से बोनी के तुरंत बाद किन्तु अंकुरण के पूर्व नम भूमि मे समान रूपसे छिड़ककर देना चाहिये एलाक्लोर 1.5 लीटर सक्रिय घटक का छिड़काव पानी में घोलकर बोनी के तुरंत बाद किन्तु अंकुरण के पूर्व करने से खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
तिल की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीटों में तिल की पत्ती मोडक फल्ली, छेदक , गाल फलाई , बिहार रोमिल इल्ली, तिल हॉक मॉथ आदि कीट प्रमुख है इन कीटों के अतिरिक्त जैसिड़ तिल के पौधों में एक प्रमुख बीमारी पराभिस्तम्भ (पायलोडी) फैलने में भी सहायक होता है।
(1) गाल फलाई के मैगोट फूल के भीतर भाग को खाते हैं और फूल के आवश्यक अंगों को नष्ट कर पित्त बनाते हैं। कीट संक्रमण सितंबर माह में फलियॉ निकलते समय शुरू होकर नवंबर माह के अंत तक सक्रिय रहते हैं। नियंत्रण हेतु कलियॉ निकलते समय फसल पर 0.03 प्रतिशत डाइमेथेएट या 0.06 प्रतिशत इन्डोसल्फान या 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस कीटनाशक दवाई को 650 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टर की मात्रा से छिड़काव करें।
(2) तिल की पत्ती मोडक एवं फली छेदक इल्लियॉ प्रारंभिक अवस्था में पत्तियों को खाती है। फसल की अंतिम अवस्था में यह फूलों का भीतरी भाग खाती है। फसल पर पहली बार संक्रमण 15 दिन की अवस्था पर होता है तथा फसल वृद्धि के पूरे समय तक सक्रिय रहता है। इसे नियंत्रण करने के लिये इन्डोसल्फान 0.07 प्रतिशत अथवा क्विनॉलफॉन 0.05 प्रतिशत का 750 लीटर पानी में घोलकर बनाकर प्रति हैक्टर की मान से फूल आने की अवस्था से आरंभ कर 15 दिनों के अंतराल से 3 बार छिड़काव करें।
(3) तिल हाक माथ इल्लियॉ पौधों की सभी पत्तियों खाती है। इस कीट का संक्रमण कभी – कभी दिखाई देता है। फसल की पूरी अवस्था में कीट सक्रिय रहते हैं। नियंत्रण हेतु इल्लियों को हॉथ से निकालकर नष्ट करें। कार्बोरिल का 20 किग्रा. प्रति हेक्टर के दर से खड़ी फसल में भुरकाव करना चाहिये।
(3)
(4) बिहार रोमयुक्त इल्लियॉ आरंभिक अवस्था में लार्वा कुछ पौधों का अधिकांश भाग खाते हैं। परिपक्व इल्लियॉ दूसरे पौधों पर जाती है ओर तने को छोड़कर सभी भाग खाती है। इस आक्रमण खरीफ फसल में उत्तरी भारत में सितंबर और अक्टूबर के आरंभ में अधिक होता है। नियंत्रित करने हेतु इन्डोसल्फान 0.07 प्रतिशत या मोनोक्रोटोफॉस 0.05 प्रतिशत का 750 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टर के मान से छिड़काव करें।
(4)(ब) रोग
(1) फाइटोफथोरा अंगमारी
पत्तियॉं तनों पर जलसिक्त धब्बे दिखाई देते हैं, इस स्थान पर सिंघाडे के रंग के धब्बे बनते हैं जो बाद में काले से पड़ जाते हैं। आर्द वातावरण में यह रोग तेजी से फैलता है जिससे पौधा झुलस जाता है एवं जड़े सड़ जाती है।
(2) अल्टरनेरिया पर्णदाग -
पत्तियों पर अनियंत्रित बैंगनी धब्बा तथा तने पर लग्बे बैंगनी धब्बे बनते हैं। रोग ग्रसित पत्तियॉ मुड जाती है।
(3) कोरिनोस्पोरा अंगमारी पत्तियों पर अनियंत्रित बैंगनी धब्बा तथा तने पर लग्ते बैंगनी धब्बे बनते हैं। रोगग्रसित पत्तियॉं मुड़ जाती हैं।
(4) जड़ सडन -
(4)
इस रोग में रोग्रसित पौधे की जड़े तथा आधार से छिलका हटाने पर काले स्कलेरोशियम दिखते हैं जिनसे जड़ का रंग कोयले के समान धूसर काला दिखता है। रोग से संक्रमित जड़ को कम शक्ति लगाकर उखाड़ने पर कॉच के समान टूट जाती है। तने के सहारे जमीन की सतह पर सफेद फफूंद दिखाई देती है जिसमें राई के समान स्क्लेरोशिया होते हैं। इसके अलावा फयुजेरियम सेलेनाई फफूंद के संक्रमित पौधों की जड़े सिकुडी सी लालीमायुक्त होती है।
(5) शाकाणु अंगमारी – पत्तियों पर गहरे, भूरे रंग के काले अनियंत्रित धब्बे दिखते हैं जो आर्द एवं गरम वातावरण में तेजी से बढने के कारण पत्ते गिर जाते हैं एवं तनों के संक्रमण में पौधा मर जाता है।
(6) शाकाणु पर्णदाग - पत्तियों पर गहरे भूरे कोंणीय धब्बे जिनके किनारे काले रंग के दिखाई देते हैं।
(7) भभूतिया रोग – पत्तियों पर श्वेत चूर्ण दिखता है तथा रोग की तीव्रता में तनों पर भी दिखता है एवं पत्तियॉ झड जाती है।
(8) फाइलोड़ी – रोग में सभी पुष्पीय भाग हरे रंग की पत्तियों के समान हो जाते हैं। पत्तियॉ छोटे गुच्छों में लगती हैं। रोग ग्रस्त पौधों में फल्लियॉ नहीं बनती हैं यदि बनती हैं तो उसमें बीज नहीं बनता है।
फसल कटाई
फसल की सभी फल्लियॉ प्राय: एक साथ नहीं पकती किंतु अधिकांश फल्लियों का रंग भूरा पीला पड़ने पर कटाई करना चाहिये। फसल के गटठे बनाकर रख देना चाहिये। सूखने पर फल्लियों के मुंह चटक कर खुल जायें तब इनको उलटा करके डंडों से पीटकर दाना अलग कर लिया जाता है। इसके पश्चात बीज को सुखाकर 9 प्रतिशत नमी शेष रहने पर भंडारण करना चाहिये।
उपज
उपरोक्तानुसार अच्छी तरह से फसल प्रबंध होने पर तिल की सिंचित अवस्था में 1000-1200 कि.ग्रा. / हे. और असिंचित अवस्था में उचित वर्षा होने पर 500 – 600 कि.ग्रा. / हेक्टर उपज प्राप्त होती है।
भारत वर्ष में उगायी जाने वाली तिलहनों में तिल एक अत्यंत महत्व की फसल है। इसके बीज में 50 से 54 प्रतिशत तेल, 16 से 19 प्रतिशत प्रोटीन एवं 15.6 से 17.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट की मात्रा पायी जाती है। तिल का तेल अत्यंत स्वादिष्ट एवं बहुउपयोगी होता है। भोजन पकाने के अलावा इसका उपयोग दवा , साबुन , बेकरी एवं सुगंधित तेल आदि में भी किया जाता है।
प्रदेश में इसकी औसत उपज 208 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर है। इसकी खेती मुख्यत: छतरपुर, टीकमगढ, सीधी, शहडोल, मुरैना, शिवपुरी, सागर, दमोह, जबलपुर, मंउला, पूर्वी निमाड एवं सिवनी जिलों में की जाती है। उत्पादकों द्वारा सीमान्त एवं उपसीमान्त भूमि में वर्षा आधारित सीमित निवेश तथा कुप्रबंधन की स्थिति में काश्त करना ही फसल की कम उत्पादकशीलता के प्रमुख कारण है। इसके अलावा प्रदेश के विभिन्न सस्य – जलवायु क्षेत्रों के लिये विकसित की गई उन्नत किस्मों का तथा सस्य उत्पादन तकनीकी का अंगीकार करने से प्रदेश में तिल की उत्पादनशीलता में सारगर्नित वृद्धि होना पायी गई है। प्रदेश हेतु विकसित की गई उन्नत तकरीक अपनाकर कृषक भाई अधिक उपज प्राप्त कर सकते हैं।
भूमि का चुनाव
फसल को प्रदेश की अधिकांश भूमि में उगाया जा सकता है। अच्छी जल निकास वाली हल्की से मध्यम गठी हुई मिटटी में फसल अच्छी होती है। बलुई दुमट मिटटी में पर्याप्त नमीं होने पर फसल बहुत अच्छी होती है। अम्लीय या क्षारीय भूमि तिल की काश्त हेतु अनुपयोगी होती है। काश्त करने हेतु भूमि का अनुकूलन पी.एच.मान 5.5 से 8.0 है।
भूमि की तैयारी
बीज के उचित अंकुरण एवं खेत में पर्याप्त पौध संख्या प्राप्त करने हेतु अच्छी तरह से गहरी जुताई किया गया भुरभुरी मिटटी वाला खेत आवश्यक होता है। खेत को एक या दो बार हल तथा एक बार बखर चलाना चाहिये। पाटा चलाकर खेत को समतल करे। असमतल खेत में अनावश्यक पानी का जमाव होने से पौधे मर सकते हैं जिससे खेत में पौधों की संख्या कम हो सकती है तथा कम पौध संख्या का सीधा प्रभाव उपज पड़ता है तथा कम उपज प्राप्त होती है। अत: इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये की खेत में अनावश्यक पानी का जमाव नहीं हो।
जातियों का चुनाव
प्रदेश में काश्त हेतु निम्नलिखित उन्नत किस्मों को अनुशंसित किया गया है।
1 . टी .के. जी. – 21 – ऑचलिक कृषि अनुसंधान केन्द्र , टीकमगढ (ज.ने.कृ.वि.वि. जबलपुर म.प्र.) द्वारा वर्ष 1992 में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दाने का रंग सफेद होकर सरकोस्पोरा पर्णदाग तथा जीवाणुचित्ती रोगों के प्रति रोधक किस्म है। 75-78 दिनों में पककर तैयार होती है तथा दानों में तेल की मात्रा 55.9 प्रतिशत होती है। उचित शस्य प्रबंधन के अंतर्गत औसत उपज 950 कि.ग्रा. / हेक्टर प्राप्त होती है।
2 . टी .के. जी. – 22 – टीकमगढ़ केन्द्र द्वारा वर्ष 1994 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दानें सफेद रंग के होकर फाईटोफथेरा अंगमारी रोग रोधक किस्म है। परिपक्वता अवधि 76-81 दिन होकर दानों में 53.3 प्रतिशत तेल की मात्रा पायी जाती है। उत्तम शस्य प्रबंधन के द्वारा औसत उपज 950 कि.ग्रा. / हे. प्राप्त होती है।
3 . टी .के. जी. – 55 – यह किस्म भी टीकमगढ़ केन्द्र द्वारा वर्ष 1998 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। सफेद रंग के दानों वाली किस्म होकर फाईटोफथोरा अंगमारी एवं मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सडन बीमारी के लिये सहनशील है। 76 से 78 दिनों में पककर तैयार होती है। तेल की मात्रा 53 प्रतिशत पायी जाती है। औसत उपज क्षमता 630 कि.ग्रा. / हे. है।
4 . टी .के. जी. – 8 – टीकमगढ़ केन्द्र द्वारा वर्ष 2000 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दानों का रंग सफेद होकर किस्म फाईटोफथोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्तीधब्बा तथा जीवाणु अंगमारी के प्रति सहनशील है। लगभग 86 दिनों में पक कर तैयार होती है। औसत उपज क्षमता 600 – 700 कि.ग्रा. / हे. है।
5 . कंचन तिल (जे.टी.7) – मध्य प्रदेश के सभी खरीफ तिल लेने वाले क्षेत्रों में जिसमें विशेषकर बुन्देलखंड क्षेत्र शामिल है के लिए उपयुक्त है। वर्ष 1981 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। दानों का रंग सफेद होकर आकार में बड़े होते हैं तथा तेल की मात्रा 54 प्रतिशत होती है। बहुशाखीय किस्म होकर इसकी औसत उपज क्षमता 880 कि.ग्रा. / हे. है।
6 एन. 32 –
वर्ष 1970 में प्रदेश में काश्त हेतु विमोचित की गई है। सफेद चमकदार रंग के बीज एक तनेवाली (शाखा रहित ) किस्म है। 90- 100 दिनों में पककर तैयार होती है, तेल की मात्रा 53 प्रतिशत होकर औसत उपज क्षमता 770 कि.ग्रा. / हे. है।
7 . आर. टी. 46
यह किस्म सन 1989 में काश्त हेतु विमोचित हुई है। चारकोल विगलन रोग हेतु रोधक है। भूरे रंग का बीज होकर बीजों में तेल की मात्रा 49 प्रतिशत होती है। किस्म लगभग 76 – 85 दिनों में पकती है तथा औसत उपज क्षमता 600 – 800 कि.ग्रा / हे. है।
8 . रामा (इम्प्रुव्हट सिलेक्शन – 5
यह किस्म सन 1989 में काश्त विमोचित हुई है। दानों का रंग लाल भूरा लाल होता है। दानों में तेल की मात्रा 45 प्रतिशत होती है तथा उचित शस्य प्रबंधन के अंतर्गत औसत उपज 700 – 1000 कि.ग्रा. / हे. आती है। प्रदेश में रबी एवं ग्रीष्मकालीन काश्त हेतु उपज है।
9 . उमा (ओ.एम.टी. 11-6-3)
यह किस्म सन 1990 में काश्त हेतु विमोचित हुई है। जल्दी परिपक्व होने वाली (75 – 80 दिनों में) किस्म हे। बीजों में तेल की मात्रा 51 प्रतिशत होकर औसत उपज क्षमता 603 कि.ग्रा. / हे. है।
फसल चक्र
तिल जल्दी पकने वाली फसल होने के कारण एकल फसल अथवा कई फसल पद्धतियों में रबी या ग्रीष्म के लिये उपयुक्त है। प्रदेश में तिल उगाने वाले विभिनन क्षेत्रों में साधारणत: ली जाने वाली क्रमिक फसल इस तरह है।
धान - तिल
तिल - गेहूं
कपास और तिल - गेहूं
मिश्रित / अन्त: फसल पद्धति
तिल की एकल फसल उपज आय मिश्रित / अन्त: फसल से अधिक होती है। प्रदेश में ली जाने वाली कुछ लोकप्रिय मिश्रित / अन्त: फसल पद्धतियॉं इस प्रकार है:
तिल + मूंग (2:2 अथवा 3:3 )
तिल + उड़द (2:2 अथवा 3:3)
तिल + सोयाबीन ( 2:1 अथवा 2:2)
बीजोपचार
मृदा जन्य एवं बीजजन्य रोगों से बचाव के लिये बोनी पूर्व बीज को थायरस 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से या थायरम (0.05 प्रतिशत) 1 :1 से बीजोपचार करें। जहॉं पर जीवाणु पत्ती धब्बा रोग की संभावना होती है वहॉ बोनी के पूर्ण बीजों को एग्रीमाइसीन – 100 के 0.025 प्रतिशत के घोल में आधा घंटे तक भिगोयें।
बोनी का समय
प्रदेश में फसल को मुख्यत: दो मौसम में उगाया जाता है जिनका बोनी का समय निम्नानुसार है:
खरीफ : जुलाई माह का प्रथम सप्ताह
अर्द्ध रबी: अगस्त माह के अंतिम सप्ताह से सितंबर माह के प्रथम सप्ताह तक
ग्रीष्मकालीन : जनवरी माह के दूसरे सप्ताह से फरवरी माह के दूसरे सप्ताह तक
बोने की विधि
फसल को आमतौर पर छिटककर बोया जाता है जिसके फलस्वरूप निंदाई – गुडाई करने एवं अंर्त:क्रियायें करने में अत्यंत बाधा आती है। फसल से अधिक उपज पाने के लिये कतारों में बोनी करनी चाहिये। छिटकवां विधि से बोनी करने पर बोनी हेतु 4 -7 कि;ग्रा. / हे. बीज की आवश्यकता होती है। कतारों में बोनी करने हेतु यदि ड्रील का प्रयोग किया जाता है तो बीज दर घटाकर 2.5 – 3 किग्रा. / हे. बीज की आवश्यकता होती है। बोनी के समय बीजों का समान रूप से वितरण करने के लिए बीज को रेत (बालू) सुखी मिटटी या अच्छी तरह से सडी हुई गोबर की खाद के साथ 1:20 के अनुपात में मिलाकर बोना चाहिये। मिश्रित पद्धति में तिल की बीजदर 2.5 कि;ग्रा. / हे. से अधिक नहीं होना चाहिये। कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच की दूरी 30 गुणा 10 सेमी. रखते हुए लगभग 3 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
जमीन की उत्पादकता को बनाए रखने के लिये तथा अधिक उपज पाने के लिए भूमि की तैयारी करते समय अंतिम बखरनी के पहले 10 टन / हे. के मान से अच्छी सडी हुई गोबर की खाद को मिला देना चाहिये। वर्षा पर निर्भर स्थिति में 40 :30 :20 (नत्रजन : फास्फोरस : पोटाश) कि.ग्रा. / हेक्टर की मान से देने हेतु सिफारिश की गई है। फास्फोरस एवं पोटाश की संपूर्ण मात्रा आधार खाद के रूप में तथा नत्रजन की आधी मात्रा के साथ मिलाकर बोनी के समय दी जानी चाहिये।
नत्रजन की शेष मात्रा पौधों में फूल निकलने के समय यानी बोनी के 30 दिन बाद दी जा सकती है। रबी मौसम में फसल में सिफारिश की गई उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा आधार रूप में बोनी के समय दी जानी चाहिये। तिलहनी फसल होने के कारण मिटटी में गंधक तत्व की उपलब्धता फसल के उत्पादन एवं दानों में तेल के प्रतिशत को प्रभावित करती है। अत: फास्फोरस तत्व की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट उर्वरक द्वारा करना चाहिये। भूमि परीक्षण के उपरांत जमीन में यदि गंधक तत्व की कमी पायी जाती है तो वहॉं पर जिंक सल्फेट 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर की दर से भूमि में तीन साल में एक बार अवश्य प्रयोग करें।
सिंचाई
खरीफ मौसम में फसल वर्षा आधारित होती है। अत: वर्षा की स्थिति , भूमि में नमी का स्तर, भूमि का प्रकार एवं फसल की मांग अनुरूप सिंचाई की आवश्यकता भूमि में पर्याप्त नमीं बनाये रखने के लिये होती है। खेतों में एकदम प्रात: काल के समय पत्तियों का मुरझाना , सूखना एवं फूलों का न फूलना लक्ष्य दिखाई देने पर फसल में सिंचाई की आवश्यकता को दर्शाते हैं। अच्छी उपज के लिये सिंचाई की क्रांतिक अवस्थाये बोनी से पूर्व या बोनी के बाद, फूल आने की अवस्था है, अत: इन तीनों अवस्थाओं पर किसान भाई सिंचाई अवश्य करें।
निंदाई गुड़ाई
बोनी के 15 -20 दिन बाद निंदाई एवं फसल में विरलीकरण की प्रक्रिया को पूरा कर लें। फसल में निंदा की तीव्रता को देखते हुये यदि आवश्यकता होने पर 15 -20 दिन बाद पुन: निंदाई करें। कतारा में कोल्पा अथवा हैंड हो चलाकर नींदा नियंत्रित किया जा सकता है, कतारों के बीच स्थित निंदा निंदाई करते हुये नष्ट करना चाहिये। रासायनिक विधि से नींदा नियंत्रण हेतु ‘’ लासो ‘’ दानेदार 10 प्रतिशत को 20 कि.ग्रा. / हे. के मान से बोनी के तुरंत बाद किन्तु अंकुरण के पूर्व नम भूमि मे समान रूपसे छिड़ककर देना चाहिये एलाक्लोर 1.5 लीटर सक्रिय घटक का छिड़काव पानी में घोलकर बोनी के तुरंत बाद किन्तु अंकुरण के पूर्व करने से खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
तिल की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले प्रमुख कीटों में तिल की पत्ती मोडक फल्ली, छेदक , गाल फलाई , बिहार रोमिल इल्ली, तिल हॉक मॉथ आदि कीट प्रमुख है इन कीटों के अतिरिक्त जैसिड़ तिल के पौधों में एक प्रमुख बीमारी पराभिस्तम्भ (पायलोडी) फैलने में भी सहायक होता है।
(1) गाल फलाई के मैगोट फूल के भीतर भाग को खाते हैं और फूल के आवश्यक अंगों को नष्ट कर पित्त बनाते हैं। कीट संक्रमण सितंबर माह में फलियॉ निकलते समय शुरू होकर नवंबर माह के अंत तक सक्रिय रहते हैं। नियंत्रण हेतु कलियॉ निकलते समय फसल पर 0.03 प्रतिशत डाइमेथेएट या 0.06 प्रतिशत इन्डोसल्फान या 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस कीटनाशक दवाई को 650 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टर की मात्रा से छिड़काव करें।
(2) तिल की पत्ती मोडक एवं फली छेदक इल्लियॉ प्रारंभिक अवस्था में पत्तियों को खाती है। फसल की अंतिम अवस्था में यह फूलों का भीतरी भाग खाती है। फसल पर पहली बार संक्रमण 15 दिन की अवस्था पर होता है तथा फसल वृद्धि के पूरे समय तक सक्रिय रहता है। इसे नियंत्रण करने के लिये इन्डोसल्फान 0.07 प्रतिशत अथवा क्विनॉलफॉन 0.05 प्रतिशत का 750 लीटर पानी में घोलकर बनाकर प्रति हैक्टर की मान से फूल आने की अवस्था से आरंभ कर 15 दिनों के अंतराल से 3 बार छिड़काव करें।
(3) तिल हाक माथ इल्लियॉ पौधों की सभी पत्तियों खाती है। इस कीट का संक्रमण कभी – कभी दिखाई देता है। फसल की पूरी अवस्था में कीट सक्रिय रहते हैं। नियंत्रण हेतु इल्लियों को हॉथ से निकालकर नष्ट करें। कार्बोरिल का 20 किग्रा. प्रति हेक्टर के दर से खड़ी फसल में भुरकाव करना चाहिये।
(3)
(4) बिहार रोमयुक्त इल्लियॉ आरंभिक अवस्था में लार्वा कुछ पौधों का अधिकांश भाग खाते हैं। परिपक्व इल्लियॉ दूसरे पौधों पर जाती है ओर तने को छोड़कर सभी भाग खाती है। इस आक्रमण खरीफ फसल में उत्तरी भारत में सितंबर और अक्टूबर के आरंभ में अधिक होता है। नियंत्रित करने हेतु इन्डोसल्फान 0.07 प्रतिशत या मोनोक्रोटोफॉस 0.05 प्रतिशत का 750 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टर के मान से छिड़काव करें।
(4)(ब) रोग
(1) फाइटोफथोरा अंगमारी
पत्तियॉं तनों पर जलसिक्त धब्बे दिखाई देते हैं, इस स्थान पर सिंघाडे के रंग के धब्बे बनते हैं जो बाद में काले से पड़ जाते हैं। आर्द वातावरण में यह रोग तेजी से फैलता है जिससे पौधा झुलस जाता है एवं जड़े सड़ जाती है।
(2) अल्टरनेरिया पर्णदाग -
पत्तियों पर अनियंत्रित बैंगनी धब्बा तथा तने पर लग्बे बैंगनी धब्बे बनते हैं। रोग ग्रसित पत्तियॉ मुड जाती है।
(3) कोरिनोस्पोरा अंगमारी पत्तियों पर अनियंत्रित बैंगनी धब्बा तथा तने पर लग्ते बैंगनी धब्बे बनते हैं। रोगग्रसित पत्तियॉं मुड़ जाती हैं।
(4) जड़ सडन -
(4)
इस रोग में रोग्रसित पौधे की जड़े तथा आधार से छिलका हटाने पर काले स्कलेरोशियम दिखते हैं जिनसे जड़ का रंग कोयले के समान धूसर काला दिखता है। रोग से संक्रमित जड़ को कम शक्ति लगाकर उखाड़ने पर कॉच के समान टूट जाती है। तने के सहारे जमीन की सतह पर सफेद फफूंद दिखाई देती है जिसमें राई के समान स्क्लेरोशिया होते हैं। इसके अलावा फयुजेरियम सेलेनाई फफूंद के संक्रमित पौधों की जड़े सिकुडी सी लालीमायुक्त होती है।
(5) शाकाणु अंगमारी – पत्तियों पर गहरे, भूरे रंग के काले अनियंत्रित धब्बे दिखते हैं जो आर्द एवं गरम वातावरण में तेजी से बढने के कारण पत्ते गिर जाते हैं एवं तनों के संक्रमण में पौधा मर जाता है।
(6) शाकाणु पर्णदाग - पत्तियों पर गहरे भूरे कोंणीय धब्बे जिनके किनारे काले रंग के दिखाई देते हैं।
(7) भभूतिया रोग – पत्तियों पर श्वेत चूर्ण दिखता है तथा रोग की तीव्रता में तनों पर भी दिखता है एवं पत्तियॉ झड जाती है।
(8) फाइलोड़ी – रोग में सभी पुष्पीय भाग हरे रंग की पत्तियों के समान हो जाते हैं। पत्तियॉ छोटे गुच्छों में लगती हैं। रोग ग्रस्त पौधों में फल्लियॉ नहीं बनती हैं यदि बनती हैं तो उसमें बीज नहीं बनता है।
फसल कटाई
फसल की सभी फल्लियॉ प्राय: एक साथ नहीं पकती किंतु अधिकांश फल्लियों का रंग भूरा पीला पड़ने पर कटाई करना चाहिये। फसल के गटठे बनाकर रख देना चाहिये। सूखने पर फल्लियों के मुंह चटक कर खुल जायें तब इनको उलटा करके डंडों से पीटकर दाना अलग कर लिया जाता है। इसके पश्चात बीज को सुखाकर 9 प्रतिशत नमी शेष रहने पर भंडारण करना चाहिये।
उपज
उपरोक्तानुसार अच्छी तरह से फसल प्रबंध होने पर तिल की सिंचित अवस्था में 1000-1200 कि.ग्रा. / हे. और असिंचित अवस्था में उचित वर्षा होने पर 500 – 600 कि.ग्रा. / हेक्टर उपज प्राप्त होती है।
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