Tuesday, October 14, 2008

अलसी

अलसी
अलसी भारत की बहुमूल्‍य औद्यौगिक तिलहन फसल है। अलसी के प्रत्‍येक भाग का प्रत्‍यक्ष व अप्रत्‍यक्ष रूप से विभिनन रूपों में उपयोग किया जाता है। अलसी के बीज से निकलने वाला तेल प्राय: खाने के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके तेल से प्राय: दवाइयॉ बनायी जाती है। इसका तेल पेंटस, वार्नश, व स्‍नेहक बनाने में प्रयुक्‍त होता है। इसके तेल से पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्‍याही भी तैयार की जाती है। म.प्र. के बुदेलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में उपयोग किया जाता है। तेल का उपयोग साबुन बनाने तथा दीपक जलाने में किया जाता है। इसका बीज फोड़ो फुन्‍सी में पुल्टिस बनाकर तैयार किया जाता है। अलसी की खली को दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग किया जाता है तथा खली में विभिन्‍न पौध पोषक तत्‍वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है। अलसी के पौधे का काष्‍ठीय भाग तथा छोटे- छोटे रेशों का प्रयोग कागज बनाने हेतु किया जाता है।
हमारे देश में अलसी की खेती लगभग 2 मिलियन हैक्‍टर में होती है जो विश्‍व के कुल क्षेत्रफल का 25 प्रतिशत है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्‍व में प्रथम स्‍थान है, उत्‍पादन में चौथा तथा उपज प्रति हेक्‍टेयर में आठवा स्‍थान है। मध्‍यप्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, महाराष्‍ट्र , बिहार, राजस्‍थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्‍पादक राज्‍य है। म.प्र. व उ.प्र दोनो प्रदेशों में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत भाग है। मध्‍यप्रदेश में अलसी का का आच्‍छादित क्षेत्रफल 4.89 लाख हेक्‍टेयर तथा उत्‍पादन 1.49 लाख टन है। प्रदेश में अलसी फसल की उत्‍पादकता 238 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर है। जबकि राष्‍ट्रीय औसत उपज 353 किग्रा/ है. है। मध्‍य प्रदेश के सागर दमाहेह, टीकमगढ, बालाघाट एवं सिवनी प्रमुख अलसी उत्‍पादक जिले हैं। प्रदेश में अलसी के खेती विभिनन परिस्थितियों में असिंचित (वर्षा आधरित ) कम उपजाऊ भूमियों पर की जाती है। अलसी को शुद्ध फसल मिश्रित फसल, सह फसल पैरा व उतेरा फसल के रूप में उगाया जाता है। प्रदेश में अलसी की उपज (238 किग्रा/ हे.) बहुत कम है। देश में हुये अनुसंधान कार्य यह दर्शाते हैं कि अलसी की खेती उचित प्रबंधन के साथ की उपज तो उपज में लगलग 2 से 2.5 गुनी वृद्धि की संभावना है। कम उपज प्राप्‍त होने के प्रमुख कारण इस प्रकार है-
अलसी के कम उपज के कारण –
1 . कम उपजाऊ भूमि पर खेती करना
2 . असिंचित अवस्‍था अथवा वर्षा आधरित क्षेत्रों में खेती करना
3 . उतेरा पद्धति से खेती करना
4 . कम उत्‍पादन स्‍थानीय किस्‍मों का प्रचलन
5 . क्षेत्र विशेष के लिये उच्‍च उत्‍पादन देने वाली किस्‍मों का अभाव
6. पर्याप्‍त मात्रा में उन्‍नतशील बीज का अभाव
7 . असंतुलित एवं कम मात्रा में उर्वरक उपयोग
8 . समय पर पौध संरक्षण के उपाय न अपनाना
जलवायु
अलसी की फसल को ठंडे व शुष्‍क जलवायु की आवश्‍यकता पड़ती है। अत: अलसी भारत वर्ष में अधिकतर जहां 45 -75 से.मी. वर्षा प्राप्‍त होती है वहां इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के उचित अंकुरण हेतु 25 -30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय 15-20 डिग्री से.ग्रे.तापमान होना चाहिए। रेशा प्राप्‍त करने वाली फसल को ठंडे एवं नीमयुक्‍त मौसम की आवश्‍यकता होती है। अलसी के वृद्धि काल में भारी वर्षा व बादल छाये रहना बहुत हानिकारक होता है। परिपक्‍वन अवस्‍था पर उच्‍च तापमान, कम नमी तथा शुष्‍क वातावरण की आवश्‍कता होती है।
भूमि का चुनाव
अलसी की फसल के लिये काली भारी एवं दोमट (,मटियार) भूमि अधिक उपयुक्‍त होती है। अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्‍यम उपजाऊ मृदाओं अच्‍छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। आधुनिक संकल्‍पना के अनुसार उचित जल एवं उर्वरक व्‍यवस्‍था करने पर किसी प्रकार की मिटटी में अलसी की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
खेत की तैयारी
अलसी का अच्‍छा अंकुरण प्राप्‍त करने के लिये खेत को भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये। अत: खेत को 2-3 बार हैरो चलाकर तैयार करना चाहिये। प्रत्‍येक जुताई के बाद पाटा लगाना आवश्‍यक हैं। जिससे नमी संरक्षित रह सके। अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है अत: अच्‍छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अति आवश्‍यक है।
फसल पद्धति
प्रदेश में अलसी की खेती वर्षा आधरित खेत्रों में खरीफ पडत के बाद रबी में शुद्ध फसल के रूप में की जाती है। टीकमगढ़ केन्‍द्र में हुये अनुसंधान परिणाम यह प्रदर्शित करते हैं कि उचित फसल प्रबन्‍धन से खरीफ की विभिनन फसलों लेने के बाद अलसी की फसल ली जा सकती है। सोयाबीन अलसी व उर्द – अलसी आदि फसल चक्रों से अधिक लाभ लिया जा सकता है।
मिश्रित खेती
प्रारंभिक रूप से अलसी की खेती वर्षा आधरित क्षेत्र में एकल फसल के रूप में की जाती है। टीकमगढ़ में हुए परीक्षण से यह ज्ञात हुआ है कि अलसी की चना + अलसी (3:1) सह फसल के रूप में ली जा सकती है। अलसी की सह फसली खेती मसूर व सरसों के साथ भी की जा सकती है।
तालिका - अलसी के विभिन्‍न चक्रों का उपज पर प्रभाव
फसल चक्र
उपज (क्विं / हे)

शुद्ध लाभ

खरीफ
अलसी
(रू.हे.)
पड़त – अलसी

17.4
13.825
उर्द – अलसी
8.10
19.15
21,347
सोयाबीन –अलसी
16.20
17.90
23,615

उतेरा खेती
अलसी की उतेरा पद्धति धान उगाये जाने वाले क्षेत्रों में प्रचलित है, जहां अधिक नमी के कारण भूपरिष्‍करण में परेशानी आती है। अत: नमी का सदुपयोग करने हेतु धान के खेती में अलसी बोई जाती है। इस पद्धित में धान की खड़ी फसल में (फूल अवस्‍था) के बाद अलसी के बीज को छिटक दिया जाता है। फलस्‍वरूप धान की कटाई पूर्व अलसी का अंकुरण हो जाता है। संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार की जाती है। अलसी इस विधि को पैरा / उतेरा पद्धित कहते हैं।
उपयुक्‍त उन्‍नतशील किस्‍में
जे.एल. टी. -26
यह नीले फूल वाली नई किस्‍म है। यह किस्‍म टीकमगढ़ केन्‍द्र से विकसित की गई है। यह सिंचित एवं असिंचित दोनो अवस्‍थाओं हेतु उपयुक्‍त जाति है। यह किस्‍म 118 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। इसमें तेल की मात्रा 40.99 प्रतिशत है। इसके 1000 दानों का बजन 6.8 ग्राम होता है। अलसी की मक्‍खी का प्रकोप कम होता है। पाउडरी मिल्‍डयू गेरूआ एवं उकटा रोगों के लिये प्रतिरोधी क्षमता रखती है। इसकी असिंचित अवस्‍था में 819 किलो ग्राम / हे एवं सिंचित अवस्‍था में 1300 – 1400 किलो ग्राम / हे. उपज प्राप्‍त होती है।
किरन (आर.एल.सी.- 6)
यह अधिक पैदावार देने वाली किस्‍म है। यह दहिया, गेरूआ एवं उकठा रोगों के लिये प्रतिरोधक है। फली की मक्‍खी (लोंगियाना) के लिए सहनशील है। पकने के लिए 120 दिन लेती है। पैदावार 1200 – 1300 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर है। इसकी बोनी देरी से भी की जा सकती है। विभिन्‍न फसल चक्रों के लिये उपयुक्‍त है।
जवाहर 23
फूल सफेद होते हैं। इसका पौधा सीधा होता है। पकने की अवधि 120 -125 दिन है। तेल की मात्रा 43 प्रतिशत है। यह किस्‍म दहिया गेरूआ एवं उकठा रोगों के लिये प्रतिरोधी है किन्‍तु फली को मक्‍खी एवं अल्‍टरनोरिया वड ब्‍लाइट के लिए ग्राही है। इसकी पैदावार 1100- 1200 किलो प्रति हेक्‍टर है। यह देर से बोने के लिये उपयुक्‍त नहीं है।
जवाहर 552 (आर. 552 )
यह किस्‍म 110 – 120 दिन में पकती है। इसका तना पतला एवं फूल नीला होता है। यह किस्‍म दहियाए गेरूआ एवं उकठा रोग के लिए प्रतिरोधी क्षमता रखती है। अल्‍टरनेरिया ब्‍लाइट पत्तियों पर असर अधिक करता है। फली मक्‍खी के लिए सहनशील है। इसकी पैदावार 1000- 1100 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर है।
जे.एल.एस. – 9
यह किस्‍म में सागर म.प्र. से विकसित हुई है। दाना चमकीला होता है। यह शुष्‍क परिस्थिति के लिए अति उपयुक्‍त पाई है। शुष्‍क परिस्‍थति में इससे 900-1000 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर उपज प्राप्‍त की जा सकती है। पकने की अवधि 120 दिन है।
जवाहर – 17
यह किस्‍म असिंचित एवं उतेरा पद्धति के लिये उपयुक्‍त पाई गई है। फूल का रंग नीला होता है। 115 दिन में पककर तैयार होती है। पौधों की ऊचाई 50 से.मी. होती है। इसकी उत्‍पादन क्षमता 1200- 1500 किलो ग्राम / हे. है।
तालिका - अलसी की उन्‍नतशील किस्‍मों का टीकमगढ़ जिले के प्रक्षेत्रों पर प्रभाव
किस्‍मे
उन्‍नत किस्‍म की उपज (क्वि. / हे)

स्‍थानीय किस्‍म की उपज (क्विं./ हे.)
उपज में बढ़ोत्‍तरी %

अधिकतम
औसत


जे एल – 23
13.95
11.50
3.50
230
आरएलसी – 6
15.26
12.55
7.90
221
जेएलटी – 26
15.60
15.05
5.75
161

बीज की मात्रा एवं बोनी की विधि
30 किलो ग्राम बीज हेक्‍टर उपयोग करना चाहिए। बोनी कतारों में करना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 25 सेमी एवं पौधों से पौधों की दूरी 5-7 से.मी रखें। बीज की गहराई 2 से;मी रखे। देशी हल में नारी या चौंगा लगाकर अथवा सीडड्रिल से बोनी करें।
बोनी का समय
इसकी बोनी 15 अक्‍टूबर से 30 अक्‍टूबर तक करना चाहिये सिंचित अवस्‍था में देरी से बोनी के लिए उपयुक्‍त किस्‍मों को 15 नवम्‍बर तक बोया जा सकता है। जल्‍दी बोनी करने पर अलसी की फसल को कली की मक्‍खी एवं पाउडरी मिल्‍डयू रोग आदि से बचाया जा सकता है।
बीजोपचार
एक ग्राम कार्बेन्‍डाजिम या टापसिन एवं अथवा थीरम 2.5 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से बुवाई पूर्व बीजोपचार अवश्‍य करें।
उर्वरक प्रबन्‍धन
जीवांश खाद
अलसी की फसल को गोबर की खाद उपलब्‍ध होने पर 4 -5 टन / हे दें। अच्‍छी तरह से पचे हुये गोबर की खाद की मात्रा को अंतिम जुताई के समय खेत में अच्‍छी तरह से मिला देना चाहिए।
रासायनिक अवस्‍था
विभिन्‍न परिस्थितियों में रासायनिक उर्वकर की अलग – अलग प्रस्‍तावित मात्रा का प्रयोग करना चाहिये
असिंचित अवस्‍था
अलसी को असिंचित अवस्‍था में नत्रजन स्‍फुर तथा पोटाश की क्रमश: 40:20:20 किग्रा/ हे. देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा स्‍फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बोने के पहले तथा बची हुई नत्रजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के तुरंत बाद खड़ी फसल में
गंधक
अलसी एक तिलहन फसल है और तिलहन फसलों से अधिकतम उत्‍पादन लेने हेतु गंधक प्रदान करना भी अनुसंशित किया गया है। अत: अलसी का उच्‍च उत्‍पादन प्राप्‍त करने हेतु 25 किग्रा/ हे. गंधक भी देना चाहिये। गंधक की पूरी मात्रा बीज बोने के पहले देना चाहिए।
जैव उर्वरक
आधुनिक कृषि में जैव उर्वरकों का प्रचलन बढ. रहा है। अलसी में एलोटोबेक्‍अर / एजोस्‍प्ररीलम और स्‍फुर घोलक जीवाणु आदि जैव उर्वरक उपयोग किये जा सकते हैं। उक्‍त जैव उर्वरक बीज उपचार द्वारा 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से दिये जा सकते है। मृदा उपचार द्वारा भी इनका उपयोग किया जा सकता है। इस हेतु 2 किलो ग्राम पी.एस.बी. जैव उर्वरकों की मात्रा को 50 किग्रा. सड़ी गोबर की खाद के साथ मिलाकर अंतिम जुताई के पहले नमी युक्‍त खेत में बराबर बिखेर देना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
असिंचित अवस्‍था की तुलना में 1 सा 2 सिंचाई देने पर उपज 2 से 2.5 गुनी बढ़ाई जा सकती है। सिंचाई उपलब्‍ध होने पर प्रथत सिंचाई बोने का 35-40 दिन बाद तथा 60 – 65 दिन बाद दूसरी सिचाई करना चाहिये। टीकमगढ़ में किये गये परीक्षण से यह सिद्ध होता है कि अलसी को दो सिंचाई शाखा अवस्‍था एवं फली बनने की अवस्‍था पर देने पर सार्वजनिक उपज प्राप्‍त होती है।
खरपतवार प्रबंधन
अलसी बुवाई के 25 दिन तक खेत को खरपतवारो से रहित रखना चाहिये। फसल को खरपतवार रहित रखने हेतु बोने के 20 दिन बाद पहली निंदाई हाथ अथवा खुरपी द्वारा करनी चाहिये। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु पेन्‍डामिथलीन की 1 किग्रा अथवा आइसोप्रोटोरोन की 0.75 कि.ग्रा / हे. मात्रा 500 ली. पानी में घोल कर अंकुरण के पूर्व खेत में छिड़काव करना चाहिये।
पौध संरक्षण
(अ) रोग
गेरूआ रोग
पत्तियों के शीर्ष तथा निचली सतहों पर एवं तना शाखाओं पर गोल , लम्‍बवत नारंगी भूरे रंग के धब्‍बे दिखाई देते हैं। रोग से बचने के लिये सल्‍फेक्‍स 0.05 प्रतिशत या कैलेकिसन 0.05 प्रतिशत या डायथेन एम-45 का 0.25 प्रतिशत घोल खड़ी फसल पर छिड़काव दो बार 15 दिन के अंतराल से करें। निरोधक जातियां – आर 552, किरण आदि बुवाई हेतु उपयोग में लायें।
उकठा रोग
उकठा रोग काफी हानिकारक रोग है, जो मिटटी जनित अर्थात खेत की मिटटी में रोग ग्रस्‍त पौधों के ठूठ से फैलता है। इस रोग का प्रकोप फसल के अंकुरण से लेकर पकने की अवस्‍था तक कभी भी हो सकता है। पौधा रोग ग्रस्‍त होने पर पत्तियों के किनारे अंदर की ओर मुंडकर मुरझा जाता है। उकठा रोग नियंत्रण के लिये 2 या 3 वर्ष का फसल चक्र अपनाये अर्थात उकटा ग्रस्ति खेत में लगातार 2 -3 वर्षो तक अलसी की फसल न लगाये। थीरम या टापसिन फफूंदनाशक दवा से 2.5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
बुकनी रोग या भभूतियां सफेद चूर्ण
इस रोग के कारण पत्तियों पर सफेद चूर्ण जम जाता है। रोग की तीव्रता अधिक हो जाने पर दाने सिकुड जाते है, उनका आकार छोटा हो जाता है। देर से बुवाई करने पर एवं शीतकालीन वर्षा होने पर अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने पर इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता है। नियंत्रण के लिये रोग की गंभीरता को देखते हुए 0.3 घुलनशील गंधक (सल्‍फेक्‍स) या केराथेन (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल से करें। फसल की बुवाई जल्‍दी करे। रोग निरोधक किस्‍में जैसे जवाहर-23, आर – 552 एवं किरण का उपयोग करे।
अल्‍अरनेरिया अंगमारी या अल्‍रनेरिया ब्‍लाइट रोग
जमीन के ऊपर अलसी पौधे के सभी अंग इस रोग से प्रभावित होते है। परन्‍तु विशेष रूप से फूलों के अंगो के रोग ग्रसित होने पर नुकसान सबसे अधिक होता है। फूलों की पंखुडियों (ब्राह दल पुंज) के नीचले हिस्‍से में गहरे भूरे रंग के लम्‍बवत धब्‍बे दिखाई देते हैं जो आकार में बढ़ने के साथ फूल के अन्‍दर तक पहुंच जाते है, जिसके कारण फूल खिलने के पूर्व ही मुरझाकर सूख जाते हैं। तथा दाने नहीं बनते। रोग से बचाव के लिये बीजों को थीरम या कार्बन्‍डाजिम दवा 2.5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित कर बोये। रोग की गंभीरता को देखते हुये रोबराल (0.2 प्रतिशत) या डाइथेन एम 45 (0.25 प्रतिशत) का छिड़काव 15 दिन के अंतराल से करें।
कीट नियंत्रण
अलसी की फसल पर विभिन्‍न अवस्‍थाओं पर कली मक्‍खी, अलसी की इल्‍ली, अर्धकुण्‍डलक इल्‍ली तथा चने की इल्‍ली का विशेष प्रकोप होता है।
कली मक्‍खी (बडलाई)
पहचान –
प्रौढ़ मक्‍खी आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती है। इसके पंख पारदर्शी होते है। इल्‍ली गुलाबी रंग की होती है।
नुकसान का प्रकार -
इल्लियां कलियों , फूलों विशेषकर अण्‍डाशयों को खाती है जिससे कैप्‍सूल नहीं बनते हैं एवं बीज भी नहीं बनते। सामान्‍य बोनी में 60-70 प्रतिशत तथा देर से बोने पर 82 से 88 प्रतिशत कलियॉं इस रोग के द्वारा ग्रसित देखी गई है। मादा मक्‍खी 1 से 10 तक अण्‍डे पंखुडी के निचले हिस्‍से में रखती है जिसमें इल्‍ली निकलकर कली के अंदर जनन अंगों विशेष रूप से अण्‍डाशयों को खाती है जिससे कली पुष्‍प के रूप में विकसित नहीं होती तथा कैप्‍सूल एवं बीजों का निर्माण ही नही होता है।
नियंत्रण
1 . बोनी अक्‍टूबर मध्‍य के पूर्व करने से कीट से साधारणत: नुकसान नहीं होता है।
2 . निरोधक किस्‍में जैसे आर 552, जवाहर 23 लगाना चाहिये।
3 . प्रकाश प्रपंच का उपयोग करें। कीट रात्रि में प्रकाश की ओर आकर्षित होते हैं। रोज सुबह इनको इकटटा कर नष्‍ट करें।
4 . इस कीट की इल्लियों को एक मित्र कीट ( सस्‍टसिस हेंसिन्‍यूरी) 50 प्रतिशत परजवी युक्‍त कर मार देता है। इसके अतिरिक्‍त इलासमय यूरोटोमा, टीरीमस टेट्रास्टिक्‍स आदि कीट प्राक़ृतिक रूप से इस कीट के मेगट पर अपना निर्वाह करते हुये कली मक्‍खी की इल्लियों को बढ़ने से रोकते हैं।
5 . एक किलो ग्राम गुड को 75 लीटर पानी में घोलकर मटटी के बर्तनों की सहायता से कई स्‍थानों पर रखें। इस कीट के प्रौढ गुड के घोल की ओर आकर्षित होते हैं।
6 . कीट की संख्‍या अधिक होने पर फास्‍फोमिडान 85 एस.एव 300 मि.ली. पानी में अथवा इण्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी 1500 मि.ली. / हे. का प्रथम छिड़काव इल्लियों के प्रकोप प्रारंभ होने पर दूसरा 15 दिन बाद करें। आवश्‍यकता पड़ने पर तीसरा छिड़काव 15 दिन बाद पुन: करें।
अलसी की इल्‍ली
पहचान –
प्रौढ़ कीट मध्‍यम आकार का गहरे भूरे रंग का या घूसर रंग का होता है। अगले पंख गहरे घूसर रंग के पीले धब्‍बों से युक्‍त होते है तथा पिछले पंख सफेद चमकीले अर्ध पारदर्शक होकर बाहरी सतह घूसर रंग की होती है। इल्लियां लम्‍बी भूरे रंग की होती है।
नुकसान का प्रकार
ये कीट अधिकतर पत्तियों की बाहर की सतह को खाती है। इस कीट की इल्लियां तने के ऊपर भाग में पत्तियों को चिपका कर खाती रहती है। इस कारण कीट से ग्रसित पौधों की बाढ़ रूक जाती है।
नियंत्रण
इस कीट की 92 प्रतिशत इल्लियां मरर्तिर इंडिका नामक मित्र कीट के परजीवी युक्‍त होती है तथा ये बाद में मर जाती है।
अर्ध कुण्‍डलक इल्‍ली
पहचान – इस कीट के प्रौढ शलभ (पतंगा) के अगले पंखों पर सुलहरे धब्‍बे रहते हैं। इल्लियां हरे रंग की होती है।
नुकसान का प्रकार
इल्लियां पत्तियों को खाती हैं बाद में फल्लियों को भी इस कीट की इल्लियां नुकसान पहुंचाती है।
चने की इल्‍ली
पहचान – इस कीट के प्रौढ़ भूरे रंग के होते है तथा अगले पंखों में सेंम के बीज के समान काला धब्‍बा रहता है। इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती है। जैसे पीले हरें, गुलाबी, नारंगी, भूरे या काली आदि शरीर के किनारों पर इल्लियों में हल्‍की एवं गहरी धारियां होती हैं।
नुकसान के प्रकार
छोटी इल्लियां पौधे के हरे पदार्थो को खुरचकर खाती है। बड़ी इल्लियां कलियों, फूलों एवं फलियों को नुकसान पहुंचाती है। इल्लियां फल्लियों में छेदकर अपना सिर अंदर घुसाकर दानों को खाती है। एक इल्‍ली अपने जीवन काल में 30 - 40 फल्लियों को नुकसान पहुंचाती है।
निंयत्रण
1 . फेरोमेन प्रपंचों का उपयोग करें। एक हेक्‍टेयर के लिये 5 प्रपंचों की आवश्‍यकता होती है।
2 . खेत में प्रकाश प्रपंच का उपयोग करें। प्रपंच से एकत्र हुये कीड़ों को नष्‍ट करें।
3 . क्‍लोरपायरीफास 20 ई.सी. की 750 से 1000 मि.ली. मात्रा प्रति हे. के हिसाब से छिड़काव करें।
4 . न्‍यूक्लियर पाली हेड्रोसिस विषाणु 250 एल ई का छिड़काव करें।
5 . कीट संख्‍या अधिक होने पर मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी 750 मि.ली अथवा इण्‍डोसल्‍फान 35 ईसी 1000 मि.ली का छिड़काव करें या कार्बोरिल 50 प्रतिशत पाउडर का 20 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टेयर के हिसाब से छिड़काव करें।

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