Monday, October 13, 2008

मक्‍का

मक्‍का
मध्‍यप्रदेश में मक्‍का खरीफ के मौसम में बोई जाने वाली एक प्रमुख फसल है। मध्‍यप्रदेश के विभिन्‍न जिले जिनमें मक्‍का की खेती बहुतायत से की जाती है, उनमें छिंदवाड़ा, मंदसौर, धार, झाबुआ, रतलाम, सरगुजा, खरगौन, गुना, मंडला, शिवपुरी, शाजापुर एवं राजगढ़ जिले प्रमुख हैं। राज्‍य में क्षेत्र एवं उत्‍पादन की दृष्टि से छिंदवाड़ा अग्रणी जिला है।
भारत वर्ष के अनेक राज्‍य जिनमें मक्‍का की फसल प्रमुख रूप से ली जाती है उनमें उत्‍तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, मध्‍यप्रदेश इत्‍यादि प्रमुख हैं। भारत में मक्‍का की खेती 8.5 लाख हेक्‍टेयर में होती है और उत्‍पादन 14 लाख टन प्रति वर्ष होती है। वर्ष 2000 के आंकड़े के अनुसार कुल मक्‍का उत्‍पादन में मध्‍यप्रदेश का योगदान अन्‍य प्रदेशों की तुलना में चौथे स्‍थान पर है।
इसी तरह मध्‍यप्रदेश में भी अन्‍य जिलों की अपेक्षा छिंदवाड़ा जिले का योगदान मक्‍का उत्‍पादन में अधिक है। अकेले छिंदवाड़ा जिले का क्षेत्रफल पूरे मध्‍यप्रदेश के मक्‍का क्षेत्र का 10 प्रतिशत है। सतपुड़ा अंचल की जलवायु मक्‍का की खेती के अनुकूल है। अत: उन्‍नत जातियों की जानकारी व उनका चयन प्रदेश में मक्‍का का उत्‍पादन बढ़ाने की दिशा में एक सार्थक प्रयास होगा।
मध्‍यप्रदेश में मक्‍का के लिए जलवायु अनुकूलता, इसकी उपयोगिता एवं उत्‍पादन क्षमता के कारण इस फसल की लोकप्रियता बहुत अधिक है। वर्ष 1969-70 में इसका क्षेत्र मात्र 6.1 लाख हेक्‍टेयर था। वह बढ़कर वर्ष 2000-2001 में 17 लाख हेक्‍टेयर हो गया। इसी प्रकार उत्‍पादन 5.1 लाख टन से बढ्कर 1200 लाख टन हो गया और औसत उत्‍पादकता 551 क्विं./हेक्‍टेयर से बढ्कर 1468 क्विं./हेक्‍टेयर हो गई है।
मक्‍का का लगभग 55 प्रतिशत मात्रा भोजन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। लगभग 14 प्रतिशत पशुआहार, 18 प्रतिशत मुर्गीदाना, 12 प्रतिशत स्‍टार्च में, 1.2 प्रतिशत बीज के रूप में उपयोग होता है। मक्‍का के एक परिपक्‍व बीज में लगभग 65-75 प्रतिशत स्‍टार्च, 10-11 प्रतिशत प्रोटीन एवं 5 प्रतिशत तेल होता है। मक्‍का के दाने में 30 प्रतिशत तेल एवं 18 प्रतिशत प्रोटीन होता है। सफेद एंडोस्‍पर्म में लगभग 90 प्रतिशत स्‍टार्च पाया जाता है।
मक्‍का की फसल की शुरूआत के दिनों में भूमि में पर्याप्‍त नमी की आवश्‍यकता होती है। साथ ही पर्याप्‍त सूर्य के प्रकाश की भी आवश्‍यकता होती है। भूमि में पर्याप्‍त नमी की कमी हो जाने पर इसकी बढ़वार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जुलाई से अग्स्‍त माह की वर्षा का मक्‍का की फसल पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
विगत वर्षों में सोयाबीन फसल में कुछ विशेष कारकों से उत्‍पादन में कमी आने के कारण कृषकों का रूझान मक्‍का फसल की ओर बढ़ा है। मक्‍का फसल में अन्‍य खरीफ फसलों की तुलना में कुछ विशेषताएं है जैसे:
1. मक्‍का की उत्‍पादकता वर्षा पर आधारित खेतों में भी अत्‍यधिक है।
2. अन्‍तरण अधिक होने से खाली जगह में अन्‍तरवर्तीय फसल बोनस के रूप में लेना संभव है।
3. अन्‍तरण अधिक होने से खरपतवार नियंत्रण का खर्च सीमित होता है।
4. प्रति हेक्‍टेयर बीज लागत व्‍यय बहुत कम।
5. अनाज के साथ-साथ चारे की प्राप्ति।
6. आवश्‍यकता पड़ने पर हरे चारे (35 से 60 दिन) के रूप में उपयोग।
मक्‍का फसल की मुख्‍य आवश्‍यकताएं:
1. खेत में कभी भी पानी भरा न हो।
2. क्रांतिक अवस्‍थाओं में भूमि में नमी होना अति आवश्‍यक है।
3. विपुल उत्‍पादन के लिए आवश्‍यक उर्वरक देना जरूरी है।
मौसम: मक्‍का उत्‍पादन के लिए 26-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान उपयुक्‍त है किंतु विषम परिस्थितियों में 15 से 40 डिग्री सें.ग्रे. के तापामन में उत्‍पादन लिया जा सकता है। मैदानी क्षेत्र से लेकर पहाड़ी क्षेत्र में जहां ऊंचाई 2700 मीटर तक मक्‍का उगाई जा सकती है।
भूमि चुनाव: मध्‍यम से भारी भूमि जिसमें जल निकास अच्‍छा हो, सबसे उपयुक्‍त होती है। लवणीय, क्षारीय भूमि एवं निचली भूमि जहां पानी का भराव होता हो, वहां मक्‍का नहीं लगाना उचित होगा।
भूमि की तैयारी: भूमि की तैयारी के लिए दो बार हल, दो बार बखर चलाकर मिट्टी भुरभुरी कर पाटा से समतल करके बोनी हेतु खेत तैयार करें। जहां बुवाई के समय या पौध अवस्‍था में खेत में पानी भरता हो वहां जल निकास हेतु नालियॉं बनायें जो कि जमीन के प्रकार, ढाल के आधार पर 5 से 10 मीटर के अंतर से निकालना चाहिए जिससे वर्षा का अतिरिक्‍त पानी शीघ्रता से बाहर निकले। निचले भूमि में या जहां पानी भरने की दशा वाली भूमि में कूड़-नाली बनाकर कूड़ के बाजू में बुवाई करना लाभप्रद होता है। सामान्‍य रूप से मक्‍का काफी अंतर पर लगाया जाता है। इन स्थिति में गोबर खाद, कम्‍पोस्‍ट खाद या केचुआ खाद का प्रयोग कतारों में करना लाभप्रद होगा। इन खादों का प्रयोग कतार में करने में भूमि में नमी की कम उपलब्‍धता की दशा में पानी सोखकर रखने की क्षमता को बढ़ाती है तथा अधिक पानी के भराव की दशा में जल निकास हेतु सहायता मिलती है। इन खादों/उर्वरकों की उपलब्‍धता की कमी के कारण छिड़काव बिखेरना नहीं चाहिए, इसलिए जहां तक संभव हो कतार में ही दें।
उन्‍नत जातियॉं: क्षेत्र की उपयुक्‍कता, भूमि की दशा, सिंचाई की व्‍यवस्‍था, खाद की मात्रा देने की क्षमता, फसल चक्र में अवधि के अनुसार, साथ ही विभिन्‍न उद्वेश्‍यों के लिए उन्‍नत जातियों का चयन करना जरूरी होता है।
संकुलित किस्‍में: इन्‍हें कम्‍पोजिट किस्‍मों के नाम से जाना जाता है। इन किस्‍मों के बीज को किसान दो-तीन वर्षों तक लगातार उपयोग कर सकता है।
संकर किस्‍में: इन किस्‍मों को हायब्रिड के नाम से जाना जाता है। किसान को संकर किंस्‍मों का उपयोग करते समय इस बात का अवश्‍य ध्‍यान रखना चाहिए कि प्रत्‍येक वर्ष बीज नया ही लेना है।
मध्‍यप्रदेश के लिये मक्‍का की अधिक उत्‍पादन देने वाली किस्‍मों की जानकारी निम्‍न प्रकार हैं:-
पकने की अवधि के आधार पर अनाज उत्‍पादन के लिए:
शीघ्र अवधि के पकने वाली (80 से 90 दिन)
जवाहर मक्‍का-8, जवाहर मक्‍का-12, सूर्या, किरण, पूसा कम्‍पोजिस्‍ट-2, पूसा अर्ली कम्‍पोजिट-2, हिम-129, जे.के.एस.एच.-175, कोहिनूर, अरूण
मध्‍यम अवधि में पकने वाली (90 से 100 दिन)
नवजोत, अरूणा, जवाहर मक्‍का-216, प्रो-311, जवाहर मक्‍का-13, सरताज, डेकन-107, पूसा कम्‍पोजिट-2, विजय
देरी से पकने वाली (100 से 130 दिन)
गंगा-3, प्रभात, त्रिसुलता, डेकन-103, डेकन-105, गंगा सफेद-2, गंगा-11, प्रभात

विभिन्‍न उद्वेश्‍यों के लिए:
पापकार्न हेतु (लाही)
अम्‍बर पाप, बजीरा पाप।
क्‍वलिटी प्रोटिन (शक्तिवर्धक)
शक्ति, शक्तिमान-1, शक्तिमान-2
मिठा मक्‍का (मधुर मक्‍का)
माधुरी, अम्‍बर मधुर मक्‍का-1, अम्‍बर मधुर मक्‍का-2
बेबी कार्न
वी.एल.’42, त्रिशुलता, प्रभात
चारा हेतु
अफ्रीकन टाल, जे.-1006, विजय
स्‍टार्च हेतु
हाई स्‍टार्च
रबी मौसम हेतु (अवधि 150 दिन)
गंगा-11, त्रिशुलता, सरताज, डेकन-103, डेकन-105, एच.-216/जवाहर मक्‍का-216
चारे के लिये मक्‍का
आफ्रीकन टाल, गंगा-7, गंगा-11, विजय कम्‍पोजिट

बीज की मात्रा: बोनी हेतु बीज की मात्रा 16 से 20 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर उपयोग करें। फसल अवधि के आधार पर बीज की मात्रा कम और अधिक हो सकती है।
बुवाई का समय: वर्षा आधारित क्षेत्रों में मानसून के प्रारंभ होते ही मक्‍का की बुवाई करें। जहां सिंचाई उपलब्‍ध हो तो मानसून आने के 20 दिन पूर्व भी बुवाई की जा सकती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पहली वर्षा के तुरंत बाद शीघ्रता से बुवाई करें।
बुवाई पद्धति: कतार में ही बुवाई करें। बीज छिड़ककर न बोयें। सबसे अच्‍छा होगा कि हाथ से टुपाई करें। बुवाई भूमि ढाल से आड़ी दिशा में करें। टुपाई करने पर समतल खेत में सरता से खाद की बुवाई करें एवं कतार में 20 सेमी. की अंतर पर 2 दाने थोड़ी दूर पर डालें, बाद में 15 दिन पर पौध विरलन कार्य करें। मक्‍का बीज की बुवाई के लिए गहराई 3 से 5 सेमी. होनी चाहिए।
पौध अंतरण और बीज की गहराई:
खरीफ के लिये
कतार से कतार अंतर (सेमी.)
पौध से पौध अंतर (सेमी.)
पौध संख्‍या प्रति हेक्‍टेयर
शीघ्रता से पकने वाली जातियों के लिये
60
20
80,000
मध्‍यम अवधि से पकने वाली जातियों के लिये
60
22
57,000
देरी से पकने वाली जातियों के लिये
75
20
65,000
अंतरवर्तीय फसल पद्धति में (1:1 कतार)
60
20
80,000

बीज उपचार: बीज उपचार हेतु 2 ग्राम थाइरम एवं 1 ग्राम कार्बन्‍डाजिम प्रति किलो ग्राम बीज हेतु प्रयोग करें।
बीज अंकुरण: मक्‍का फसल के बीज शीघ्रता से अपनी अंकुरण क्षमता खो देते हैं। साथ ही भंडारण में कीट की समस्‍या अधिक आती है। अत: यह जरूरी है कि बुवाई पूर्व बीज की अंकुरण क्षमता जरूर ज्ञात करें।
पौध विरलन: यह क्रिया मक्‍का फसल में अति आवश्‍यक है क्‍योंकि 60 से 70 प्रतिशत किसान भाइयों के खेत में वांछित पौध संख्‍या न होने से उत्‍पादन में कमी आती है। इसलिए बुवाई के समय कतार का अंतर तो निश्चित रहता है परंतु पौध से पौध के अंतर बीज टुपाई में या बुवाई में कम अंतर पर डालते हैं। बाद में 15 से 20 दिन पर प्रथम गुड़ाई के तुरंत बाद पौध विरलन का कार्य किया जाता है। इससे पौधे 20 से 22 सेमी. के अंतर पर बनाये रखते हुए कमजोर पौधों को खेत से निकाल दिया जाता है। साथ ही जहां जगह खाली हो वहां स्‍वस्‍थ पौधों को रोपित किया जाता है। आवश्‍यक है कि इस क्रिया के समय हल्‍की वर्षा का मौसम होना चाहिए।
कम्‍पोस्‍ट खाद: उपलब्‍ध सड़ी हुई गोबर की खाद, कम्‍पोस्‍ट या केंचुआ द्वारा बनी खाद का प्रयोग करना जरूरी है क्‍योंकि मक्‍का फसल खेत में पानी का भराव एवं पानी की कमी इन दोनों दशाओं के प्रति अति संवेदनशील है। खाद बुवाई के समय कतारों में दें, जिससे फसल को सीधा फायदा होगा। अनुमानत: 8 से 10 टन खाद प्रति हेक्‍टेयर देना चाहिए।
रासायनिक खाद:

पोषक तत्‍व, किग्रा./हेक्‍टेयर
खरीफ के लिये
नत्रजन
स्‍फुर
पोटाश
शीघ्र पकने वाली जातियों के लिये
60
40
30
मध्‍यम अवधि में पकने वाली जातियों के लिये
90
50
30
देरी से पकने वाली जातियों के लिये
120
60
40
अंतरवर्तीय फसल पद्धति में (1:1 कतार)
150
80
60
रबी एवं जायद के लिये
120
60
40

नत्रजन की एक-तिहाई मात्रा एवं स्‍फुर तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई करते समय सरते से कतार में दें। शेष दो-तिहाई से क्रमश: एक-तिहाई नत्रजन 25-30 दिनों पर एवं 45-50 दिनों पर खड़ी मक्‍का फसल में दे। खेत में पानी भरने की दशा में एवं निंदाई-गुड़ाई में देरी होने पर नत्रजन 20 किलोग्राम प्रति हेक्‍टेयर निश्चित रूप से दें। खड़ी फसल में नत्रजन का प्रयोग निंदाई उपरांत ही करें।
रासायनिक खाद की संतुलित मात्रा मिट्टी परीक्षण परिणाम के आधार पर देना अधिक लाभप्रद होगा।
सूक्ष्‍म तत्‍व: जिेक सल्‍फेट 20 किग्रा./हेक्‍टेयर बुवाई के समय देना चाहिए।
जैविक खाद: कम खर्च में अधिक फायदे व आर्थिक उद्देश्‍य के मद्देनजर रखते हुए एजेटोबेक्‍टर, एजोस्‍प्रेलियम एवं पी.एस.बी. जैव उर्वरकों का प्रयोग करें। जैविक खाद तथा रासायनिक खाद को यथा संभव कतारों में दें।
अंतर सस्‍य क्रियाएँ: खेत को 35 से 40 दिन तक नींदा रहित रखना जरूरी है। अत: फसल अंकुरण के 15-20 एवं 25-30 दिन पर खेत में डोरा चलाना जरूरी है। इसके बाद मिट्टी चढ़ाने का कार्य डोरा में फट्टी लगाकर (सारपाटी) खेत में चलाने से कम लागत में मिट्टी चढ़ाने का कार्य किया जा सकता है। गुड़ाई के तुरंत बाद निंदाई करने से मिट्टी से दबे पौधे निकालना एवं खेत नींदा रहित करने में कम खर्च आता है। अत: गुड़ाई के बाद निंदाई अवश्‍य करें। नींदा जड़ से निकालते समय उसे जल्‍दी में तोड़े या काटे नहीं अन्‍यथा खरपतवार शीघ्रता से बढ्कर फसल से प्रतिस्‍पर्धा करेंगे। संभव होने पर निंदाई किया गया कचरा खेत से बाहर मेंड़ पर निकाले या केचुआ, नाडेप, कम्‍पोस्‍ट खाद बनाने में इसका प्रयोग करें।
रासायनिक नींदा नियंत्रण: मक्‍का फसल में एट्राजीन 1 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर बुवाई के बाद परंतु उगने के पूर्व उपयोग करें। अंतरवर्ती (मक्‍का+दलहन/तिलहन) फसल व्‍यवस्‍था में पेंडीमिथिलिन 1.5 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर बुवाई के बाद परंतु उगने के पूर्व रसायन का प्रयोग करें। मक्‍का फसल में चौड़ी पत्‍ती वाले खरपतवारों की अधिकता होने पर 30-35 दिन पर 2,4-डी का 1.0 किग्रा. प्रति हेक्‍टेयर उगे हुए खरपतवारों पर छिड़काव कर नियंत्रण किया जा सकता है।
सिंचाई एवं जल निकास: वर्षा आधारित क्षेत्रों में खेतों में नमी की कमी होने पर सिंचाई की जानी चाहिए। विशेष रूप से उन क्रांतिक अवस्‍थाओं पर जहां फसल अधिक संवदेनशील होती है।
सिचांई एवं जल निकास हेतु क्रांतिक अवस्‍था
1. पौधे की अवस्‍था
(5 से 15 दिन)
2. घुटने की ऊंचाई वाली अवस्‍था
(30 से 35 दिन)
3. पुष्‍पन की अवस्‍था
(50 से 55 दिन)
4. दाना बनने की प्रारंभिक अवस्‍था
(70 से 75 दिन)

इन अवस्‍थाओं में भूमि में नमी की कमी होने पर फसल उत्‍पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसी समय खेत में पानी की अधिकता एवं पानी का भराव होने पर फसल को काफी नुकसान होता है। पौध की अवस्‍था पानी भरने के लिए एवं पुष्‍पन अवस्‍था भूमि में नमी की कमी होने के प्रति अति संवदेनशील है।
अंतरवर्तीय फसलें: अंतरवर्तीय फसलों में 2:2, 2:4, 2:6 अनुपात में फसल लगाई जा सकती है। परंतु 1:1 सबसे उपयुक्‍त पाया गया है क्‍योंकि इस पद्धति में मक्‍का की 100 प्रतिशत पौध संख्‍या होती है एवं अंतरवर्तीय फसल की 50 प्रतिशत उपज बोनस के रूप में प्राप्‍त होती है।
खरीफ मौसम में:
मक्‍का : दलहन में उड़द, बरबटी, ग्‍वार एवं मूंग
मक्‍का : तिलहन में सोयाबीन एवं तिल
मक्‍का : सब्‍जी में सेम, भिंडी, हरी धनियॉं
मक्‍का : चारा (पौष्टिक) ग्‍वार, बरबटी एवं मक्‍का
मक्‍का : हरी खाद, ढेंचा, सन
रबी मौसम में:
मक्‍का: मटर, मेथी, पालक, धनियॉं एवं मूली
1 कतार : हरी खाद, ढेंचा, सन
जायद में:
मक्‍का : मूंग, हरी धनियॉं एवं पालक
पौध संरक्षण
(अ) रोग
1. पर्ण अंगमारी
(अ) मैडिस पर्ण अंगमारी: अंकुरण के 4-5 सप्‍ताह के बाद इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। प्रारंभिक अवस्‍था में छोटे गोलाकार/अंडाकार धब्‍बे भूरे कत्‍थई रंग के अधिक संख्‍या में बनते हैं जिनके किनारे भूरे बैंगनी रंग के होते हैं। मौसम की अनुकूलता से ये धब्‍बे बड़े होकर आपस में मिल जाते हैं। जिससे पत्तियों पर धारियॉं बन जाती हैं। ग्रसित पौधे की बढ़वार रूक जाती है। यह मृदा जनित रोग है जो हेलमेन्‍योपोरियम मेडिस नामक फफूंद द्वारा फैलता है। इस रोग के तीव्र प्रकोप की अवस्‍था में 90 प्रतिशत तक हानि हो जाती है।
(ब) टर्सिकम पर्ण अंगमारी: अंकुरण के 4-5 सप्‍ताह बाद इस रोग के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। सर्वप्रथम इस रोग के लक्षण नीचे की प‍त्तियों पर दिखते हैं। लम्‍ब वृत्‍ताकार या नाव के आकार के धूसर हरे रंग के 15 सेमी. लम्‍बे व 3-4 सेमी. चौड़े होते हैं। तीव्र प्रकोप की अव‍स्‍था में पत्तियां पूरी तरह से सूख जाती हैं एवं भुट्टे की संख्‍या एवं वजन में कमी आ जाती है। यह मृदा जनित रोग है जो हेलमेन्‍योस्‍पोरियम टर्सिकम नामक फफूंद द्वारा फैलता है। इस रोग के प्रकोप से उपज में 30 प्रतिशत तक कमी आ जाती है।
नियंत्रण:
1. पुराने पौधों के अवशेषों को जलाकर नष्‍ट करें।
2. रोग सहनशील जातियां- गंगा-21, एच-216, जय किसान इत्‍यादि लगायें।
3. बोने के पूर्व बीजों को थायरम फफूंदनाशक दवा 3 ग्राम/किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
4. खड़ी फसल पर प्रारंभिक लक्षण दिखते ही डायथेन जेड-78 या डायथेन एम-45 दवा का 3 ग्राम/लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग की तीव्रता को देखते हुए 15 दिनों के अंतराल से छिड़काव दुहरायें।
5. ताम्रयुक्‍त फफूंदनाशक दवा जैसे ब्लिटाक्‍स- 50 या फाइटोलान दवा 3 ग्राम/लीटर की दर से छिड़काव करें।
2. भूरी चित्‍ती: पत्तियों, पर्णछेदक, तने एवं भुट्टे के बाहरी छिलके पर हल्‍के पीले रंग के 1-5 मि.मी. व्‍यास के गोलाकार/अंडाकार धब्‍बे बनते जाते हैं। तीव्र प्रकोप की अवस्‍था में धब्‍बे अधिक संख्‍या में बनते हैं और आपस में मिल जाते है व भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं और आपस में मिल जाते हैं। रोग ग्रस्‍त भाग जंग लगा सा दिखता है। तीव्र प्रकोप की अवस्‍था में पत्तियां विकसित हुए बिना ही सूख जाती हैं तथा धब्‍बे भुट्टों पर बन जाते हैंं। अत्‍यधिक प्रकोप से उपज में 25 प्रतिशत तक हानि हो जाती है। यह बीज जनित रोग है जो फाइसोर्मा मेडिस नामक फफूंद से होता है।
नियंत्रण:
1. खेतों को खरपतवारों से मुक्‍त रखें।
2. फसल चक्र अपनाएं।
3. बोनी के पूर्व बीजों को थायरम या डाययेन एम-45 फफूंदनाशक दवा 3 ग्राम/किलो ग्राम की दर से उपचारित करें।
4. रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही ताम्रयुक्‍त फफूंदनाशक दवा, फाइटोलान या ब्लिटाक्‍स-50 का 3 ग्राम/लीटर के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग की तीव्रता को देखते हुए 10-15 दिनों के अंतराल से छिड़काव दुहरायें।
3. मृदरोमिल आसिता (डाउनी मिल्‍डयू): प्रारंभ में निचली पत्तियों पर लम्‍बवत 3 मि.मी. चौड़ी पीले रंग की धारियां समानान्‍तर रूप में बनती है। बाद में धारियां भूरे रंग में परिवर्तित होती है व इन धारियों पर सफेद रंग की कवर वृद्धि दिखाई देती हैं। कुछ समय पश्‍चात ऊपर की पत्तियों पर भी दिखाई देने लगते हैं। पौधे की प्रारंभिक अवस्‍था में रोग की तीव्रता अधिक हो जाये तो पौधे समय से पूर्व ही मर जाते है। इस रोग से 20-60 प्र‍तिशत तक हानि होती है। यह बीज एवं मृदा जनित रोग है जो स्‍कलेरोस्‍पोरा टैसीनामक फफूंद द्वारा होता है।
नियंत्रण:
1. फसल अवशेषों को इकट्ठा कर जलायें।
2. फसल चक्र अपनायें।
3. खेतों में जल निकासी की उचित व्‍यवस्‍था कर समय-समय पर खेत से पानी की निकासी करें।
4. रोग रोधी किस्‍में गंगा-2, तरूण, जवाहर, किसान आदि लगाये।
5. खड़ी फसल में रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही ताम्रयुक्‍त फफूंदनाशक जैसे फाइटोलान या क्लिटाक्‍स-50 का 3 ग्राम/लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करें। रोग की तीव्रता देखते हुए 10-15 दिनों के अंतराल से छिड़काव दुहराये।
(ब) कीट
1. सफेद लट: सफेद रंग की अंगूठी के समान मोटी मांसल इल्‍ली जिसका सिर भूरे रंग का होता है, पौधे की जड़ों को खाकर नुकसान पहुंचाती है। ये इल्लियां नमीयुक्‍त जमीन में 5-10 सेमी. तथा सूखी जमीन में 30-60 सेमी. गहराई तक पाई जाती हैं। क्षतिग्रस्‍त पौधे मुरझा कर सूख जाते हैं जिसे आसानी से खीचकर भूमि में निकाला जा सकता है।
नियंत्रण: फोरेट 10 जी. दवा की 10 किलो ग्राम/हेक्‍टेयर मात्रा बोनी से पूर्व खेतों में प्रयोग करें।
2. तना छेदक मक्‍खी: यह गहरे भूरे रंग की मक्‍खी घरेलू मक्‍खी से छोटी होती है। पत्तियों की निचली सतह पर दिये अंडों से 2 दिन बाद छोटे-छोटे हल्‍के सफेद रंग की गिहारे निकलती हैं। गिहारे रेंगकर पर्णच्‍छेद में पहुंच जाते हैं तथा उसे भेदकर तने में प्रवेश कर जाते हैं। पौधे का मुख्‍य प्ररोह कट जाने से मृत केन्‍द्र (डेडहार्ट) बन जाता है तथा पौधा मर जाता है। प्रकोपित पौधे में बाजू से कल्‍ले निकल जाते हैं। प्रकोप से लगभग 20 प्रतिशत तक उपज में कमी आंकी गई है। इस कीट का प्रकोप पौधे की तीन पत्‍ती की अवस्‍था से 25 दिन की अवस्‍था तक होता हैं।
नियंत्रण: नियंत्रण के निम्‍नलिखित उपाय एक साथ अपनाने से अच्‍छे परिणाम प्राप्‍त होते है:-
1. शीघ्र बोनी (जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक) से कीट का प्रकोप कम होता है।
2. बीज दर में थोड़ी सी वृद्धि कर बाद में पौध संख्‍या में विरलन करें।
3. कार्बोप्‍यूरान 50 एस.पी. 100 ग्राम/किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजोपचार करें।
4. फोरेट 10 जी दानेदार 10 किलोग्राम/हेक्‍टेयर भूमि में बोनी से पूर्व प्रयोग करें।
3. तना छेदक कीट
1. धारीदार तना छेदक: इल्लियां हल्‍के पीले रंग की काले सिर वाली होती हैं जिनके शरीर पर लंबाई में भूरी धारियां पाई जाती हैं। पूर्ण विकसित इल्‍ली 2-3 सेमी. लंबी होती है। इल्लियां पहले पत्‍ती को खुरच-खुरच कर खाती हैं और बाद में इस प्रकार से क्षति करती हैं जिससे मृत केन्‍द्र (डेड हार्ट) बन जाता है। इस कीट के प्रकोप से 80 प्रतिशत तक हानि आंकी गई है।
नियंत्रण:
1. कीट ग्रस्‍त पौधों को उखाड़ कर नष्‍ट कर देना चाहिए।
2. फसल कटाई के बाद बचे हुए ठूंठों को जला देना चाहिए।
3. गंगा-5 तथा संकुलित जातियों में इस कीट का प्रकोप कम होता है।
4. छोटी अवस्‍था में पौधों पर फासफोमिडान 100-150 मि.ली./हेक्‍टेयर का छिड़काव करें।
5. इण्‍डोसल्‍फान 4 जी. अथवा कार्बोफ्यूरान 3 जी, 10 किलोग्राम/हेक्‍टेयर के हिसाब से पोंगली में डाले।
4. गुलाबी तना छेदक: इस कीट की इल्लियां हल्‍की गुलाबी रंग की लाल भूरे सिर वाली होती हैं। ये लगभग 2.5 सेमी. लंबी होती हैं। अंडे से बाहर निकलने के बाद इल्‍ली पर्णच्‍छेद में छेद कर तने में प्रवेश करके उसे खाती है। फलस्‍वरूप पौधे पीले पड़ जाते हैं तथा मध्‍य की पत्तियां सूख कर मृत केन्‍द्र बन जाता है।
नियंत्रण: पूर्व में बताये गये धारीदार तना छेदक कीट के नियंत्रण के लिए दिये गये उपायों के समान।
5. माहू: हरे काले रंग के माहू कीट झुंडों में रहते हैं जो ऊपरी नाजुक पत्तियों तथा मांझर से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते हैं। रस चूसने से पत्तियों पीली पड़ जाती हैं तथा पराग भी झड़ता है।
नियंत्रण: मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. अथवा डायमिथोयेट 30 ई.सी. का 1 मि.ली./लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
6. भुट्टे की इल्‍ली (चने की इल्‍ली): ये इल्‍ली हल्‍के भूरे रंग की होती हैं जिसके पृष्‍ठ भाग पर तथा बाजू में एक-एक रेखाएं होती हैं। पूर्ण विकसित इल्‍ली लगभग 3.5 सेमी. लंबी होती हैं। इल्लियां भुट्टे के अग्र भाग, मांझर तथा कलीकाओं के साथ ही नरम दानों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैं।
नियंत्रण: कार्बोरिल 10 प्रतिशत 20 किलोग्राम/हेक्‍टेयर का भुरकाव अथवा इण्‍डोसल्‍फान 35 ई.सी; 1200 मि.ली./हेक्‍टेयर का छिड़काव करें।
गहाई: मक्‍का फसल में सबसे महत्‍वपूर्ण कार्य गहाई है क्‍योंकि अधिक उत्‍पादन के बाद गहाई करना एक मुख्‍य समस्‍या के रूप में सामने आती है। दाने निकालने हेतु सेलर उपलब्‍ध है। साधारण थ्रेसर में थोड़ा सुधार कर मक्‍का की गहाई की जा सकती है। इसमें मक्‍के के भुट्टे के छिलके निकालने की आवश्‍यकता नहीं है। सीधे भुट्टे सूखे जाने पर थ्रेसर में डालकर गहाई की जा सकती है, साथ ही दाने का कटाव भी नहीं होता।
कड़बी एवं भुट्टे खेत में काफी सूख जाते हैं। इस दशा में सीधे कड़बी भुट्टे सहित थ्रेसर में डालने से भी दाने आसानी से निकाले जा सकते हैं एवं कड़बी का भूसा जानवरों के खाने योग्‍य बन जाते हैं।

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