गन्ना
गन्ना एक महत्वपूर्ण नगदी फसल है। यह मध्यप्रदेश में प्राय: सभी क्षेत्रों में लगाई जाती है जहां पर सिंचाई की उचित व्यवस्था तथा खेत में पानी का निकास अच्छा होता है।
खेत की तैयारी: दोमट भूमि जिसमें पानी का निकास अच्छा हो, गन्ने के लिये सर्वोत्तम होती है। खेत की तैयारी के लिये ग्रीष्म ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से दो बार आड़ी व खड़ी जुताई करें। अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में जुताई कर पाटा चलाकर खेत समतल करें। रिजर की सहायता से खेत में 3 फीट की दूरी पर नालियां बनायें। बसंतकालीन गन्ने जो फरवरी मार्च में लगाया जाता है, नालियों का अंतर 2 फीट तक रखना चाहिए।
उन्नत बीज: गर्म हवा से उपचारित (50 से.ग्र. पर 4 घंटे) स्वस्थ, कीट व रोग सहित बीज का उपयोग करें। गन्ना का बीज स्वस्थ फसल से प्राप्त करना चाहिए।
जातियॉं:
शीघ्र पकने वाली जातियॉं: को.सी. 671, को. 7314, को. 8383, को. 87008 एवं को. 87010, को. जवाहर 86-141 एवं को. जवाहर 86-572 लगायें। गुड़ बनाने के लिये को.सी. 671, को. जवाहर 86-141 एवं को. 86-572 सर्वोत्तम है। इन जातियों की उपज 800-900 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
मध्यम-देर से पकने वाली जातियॉं: को. 7318, को. 6304, को. 86032, को. 7219, को. जे.एन. 86-600 लगाई जाये। को. 7318 एवं को. 86032 गुड़ बनाने के लिये अधिक उपयुक्त है। इन जातियों की उपज 1000-1200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
बुवाई का समय: अधिक उपज के लिए बुवाई का सर्वोत्तम समय अक्टूबर-नवम्बर माह है। गन्ने की बोनी मार्च तक की जा सकती है। बसंतकालीन गन्ना फरवरी-मार्च में लगाना चाहिए।
अंतरवर्तीय फसलें: अक्टूबर-नवम्बर में 90 सेमी. की दूरी पर निकाली गरेड़ों में गन्ने की फसल बोते ही मेड़ों के दोनों ओर प्याज, लहसुन, आलू, रांजमा, ईसबगोल तथा सीधी बढ़ने वाली मटर लगाना बहुत उपयुक्त है। इन फसलों से गन्ने की फसल को कोई हानि नहीं होती है तथा इनसे किसान को अतिरिक्त नगद लाभ प्राप्त हो जाता है।
बसंतकालीन फसल में गरेड़ों की मेड़ों के दोनों ओर मूंग या उड़द लगाना बहुत लाभदायक है। इन अंतवर्तीय फसलों से अतिरिक्त लाभ मिल जाता है। अंतरवर्तीय फसलों की खाद की निर्धारित मात्रा गन्ने की फसल में दी मात्रा के अतिरिक्त देना चाहिए।
बीजोपचार व बुवाई: गन्ने के दो या तीन ऑंख वाले टुकड़े का कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम/लीटर के घोल में 15-20 मिनट तक डुबाना चाहिए। इसके पश्चात टुकड़ों को नालियों में रखकर मिट्टी से ढ़क कर सिंचाई कर दें या नालियों में सिंचाई करके टुकड़ों को हल्के से नालियों में दबा दें। बीज की मात्रा 1,25,000 ऑंखें (कलिकायें) या 100 से 125 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर लगायें।
खाद एवं उर्वरक: गन्ने में 300 किलोग्राम नत्रजन (650 किलोग्राम यूरिया) 80 किलोग्राम स्फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 60 किलोग्राम पोटाश (100 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश) प्रति हेक्टेयर देना चाहिऐ। स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के पूर्व गरेड़ों में दें। नत्रजन की मात्रा अक्टूबर में बोई गई फसल के लिए 4 भागों में बांट कर अंकुरण के समय (30 दिन), कल्ले निकलते समय (90 दिन), हल्की मिट्टी चढ़ाते समय (120 दिन) दें। गन्ने की फसल में नत्रजन की एक-चौथाई मात्रा की पूर्ति अच्छी सड़ी गोबर की खाद या हरी खाद से करना बहुत लाभप्रद होता है।
उर्वरक की बचत:
1. यूरिया उर्वरक पर नीम, महुआ या करंज की खली के बारीक पाउडर से यूरिया को उपचारित करने से नत्रजन की बचत होती है।
2. गन्ना मिल का व्यर्थ पदार्थ सल्फीनेटेड प्रेसमड केक की 6 टन मात्रा या 4 टन प्रेसमड केक तथा 5 किलोग्राम एजेक्टोबेक्टर जीवाणु खाद का प्रयोग करने से 75 किलोग्राम नत्रजन की बचत होती है।
जैव उर्वरक: जैविक खादें फसल के लिये पोषक तत्वों का पूरक स्रोत हैं। गन्ना की फसल में एजोस्पीरिलियम, ग्लूकोनाटोबेक्टर एवं फास्फोबेक्टेरिया की पहचान मुख्य खादों के रूप में की गई है। यह जैविक खादें 20 प्रतिशत नत्रजन एवं 25 प्रतिशत स्फुर की प्रतिपूर्ति प्रत्यक्ष रूप से कर सकते हैं एवं अप्रत्यक्ष रूप से गन्ना वृद्धि में सहायक होते हैं। एजोस्पीरिलियम एवं ग्लूकोनासेटोबेक्टर गन्ना की जड़ों पर उपनिसेचित होकर वायुमंडलीय नत्रजन का स्थिरीकरण करते हैं। फास्फोबेक्टेरिया जड़ों के आसपास की मिट्टी में रहते हुए मृदा की अघुलनशील, अनुपलब्ध स्फुर को घुलनशील, उपलब्ध स्फुर परिवर्तन में सहायक होता है।
सूक्ष्म पोषक तत्व: गन्ना के शर्कर संचय, तंतु भाग एवं नत्रजन, स्फुर, पोटाश उपभोग क्षमता एवं गन्ना उत्पादकता में सूक्ष्म पोषक तत्वों का विशेष योगदान होता है। सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रबंधन जो कि समय-समय पर कराये गये मृदा परीक्षण पर आधारित हो अथवा फसल के लक्षणों पर आधारित हो, गन्ना उत्पादन बढ़ाता है। सामान्यत: गन्ना में लौह एवं जस्ता की कमी परिलक्षित होती है। इनकी कमी को पूरा करने हेतु फैरस सल्फेट/जिंक सल्फेट 0.5 से 2.0 प्रतिशत का घोल, फुहार, सप्रेद्ध ? के रूप में अथवा बोनी के समय फैरस सल्फेट 50 किलोग्राम/हेक्टेयर तथा जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम/हेक्टेयर मृदा में मिलाया जा सकता है।
निंदाई-गुड़ाई: बुवाई के लगभग 4 माह तक खरपतवारों की रोकथाम आवश्यक है। इसके लिये 3-4 निंदाई आवश्यक है। रासायनिक नियंत्रण के लिये एट्राजिन 1 किलो सक्रिय तत्व/हेक्टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़काव करना चाहिए। बाद में उगे चौड़ी पत्ती खरपतवारों के लिये 2-4, डी. सोडियम साल्ट 0.5 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय खेत में नमीं होना आवश्यक है।
मिट्टी चढ़ाना: गन्ने को गिरने से बचाने के लिये रिजर की सहायता से मिट्टी चढ़ाना चाहिए। अक्टूबर-नवम्बर माह में बोई फसल में प्रथम मिट्टी मई माह में चढ़ाना चाहिये। कल्ले फूटने के पहले मिट्टी न चढ़ायें।
सिंचाई: गर्मी के दिनों में 8-10 दिनों के अंतर पर एवं सर्दी के दिनों में 15 दिन के अंतर से सिंचाई करें। सिंचाई सर्पाकार विधि से करें। सिंचाई की मात्रा कम करने के लिये गरेड़ों में गन्ने की सूखी पत्तियों की 10-15 सेमी. तह बिछायें। गर्मी में पानी की मात्रा कम होने पर एक गरेड़ छोड़कर सिंचाई देकर फसल बचावें। कम पानी उपलब्ध होने पर ड्रिप (टपका विधि) से सिंचाई करने से 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
गर्मी के मौसम तक जब फसल 5-6 महीने तक की होती है स्प्रींकलर (फब्बारा) विधि से सिंचाई करके पानी की बचत की जा सकती है।
वर्षा के मौसम में खेत में उचित जल निकास का प्रबंध रखें। खेत में पानी के जमाव होने से गन्ने की बढ़वार एवं रस की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
बंधाई: गन्ना न गिरे इसके लिये गन्नों के झुण्डों को गन्ने की सूखी पत्तियों से बांधना चाहिये। यह कार्य अगस्त माह के अंत में या सितम्बर माह में करना चाहिए।
पौध सरंक्षण:
(अ) कीट: गन्ने की फसल को रोग व कीटों से बचाव के लिये पौध संरक्षण उपाय अपनायें।
1. अग्र तना छेदक के प्रकोप से बचाव हेतु सितम्बर-अक्टूबर में बोनी करें।
2. गन्ने के टुकड़ों को क्लोरपायरीफॉस 20 ई.सी. दवा के 0.1 प्रतिशत या मेलाथियान 50 ई.सी. दवा के 0.1 प्रतिशत घोल में 15 मिनट तक डुबोकर बीजोपचार करें।
3. अग्रतना छेदक के प्रकोप के नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी दानेदार या कार्बोफ्यूरान 3 जी दानेदार दवा को जड़ों के पास डालें। फोरेट दवा की मात्रा 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्व/हेक्टेयर या कार्बोफ्यूरान 1 किलोग्राम तत्व/हेक्टेयर उपयोग करें।
4. पइरिल्ला एवं सफेद मक्खी नियंत्रण के लिये मेलाथियान 50 ई. सी. का 0.05 प्रतिशत का घोल या मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल. दवा का 0.01 प्रतिशत घोल 600 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कें।
5. पायरिल्ला कीट के जैविक नियंत्रण हेतु जब 3-5 अंडे/शिशु/प्रौढ़ प्रति पत्ती हो तो एपीरिकेनिया के जीवित ककून 4000-5000 ककून या 4-5 लाख अंडे/हेक्टेयर की दर से छोड़ें।
6. शीर्ष तना छेदक का प्रकोप होने पर कार्बोफ्यरान 3 प्रतिशत दानेदार दवा का 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से जड़ों के पास डालें।
(ब) रोग
1. उकठा रोग: यह एक प्रमुख बीमारी है जो लगभग पूरे प्रदेश में व्याप्त है। इस बीमारी के कारण गन्ने के बीज के साथ रहते हैं जिससे बीमारी एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंचती है। इसके बीजाणु भूमि में फैल जाते हैं।
कारक: यह बीमारी फ्यूजेरियम मोनीलीफारमिस तथा एफ. आक्सीस्पोरम नामक फफूंद से होती है।
लक्षण: वर्षा ऋतु के उपरांत पत्तियॉं पीली पड़ने व मुरझाने लगती हैं तथा बाद में धीरे-धीरे सूखने लगती हैं। प्रभावित पौधों की बढ़वार कम हो जाती है। उग्र अवस्था में पौधों का सूखना तथा पत्तियों में पीलापन आना है। यदि ग्रसित गन्ना फाड़ कर देखें तो अंदर के उत्तक व गॉंठों के पास के भाव का उत्तक मटमैला रंग का दिखाई देता है। रोग ग्रसित गन्ना खोखला हो जाता है तथा गन्ने के अंदर फफूंद की बढ़वार देखी जा सकती है।
नियंत्रण: स्वस्थ व रोग रहित गन्ने का बीज प्रयोग करें। उकठा अवरोधी किस्मों को उपयोग में लाये जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-171, सी.ओ.जे.एन. 866-600, सी.ओ. 94014, सी.ओ. 94015 तथा सी.ओ. 860321 गन्ना बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) दवा से बीजोपचार करें।
2. लाल सड़न: यह भी एक महत्वपूर्ण व अधिक हानि पहुंचाने वाली फफूंद बीमारी है। इस रोग का प्रभाव प्रदेश के उत्तर-पश्चिम भाग में ज्यादा पाया जाता है। यह बीमारी बीज जनक होती है। परंतु इसके पश्चात भूमि में तथा फसल अवशेष पर रहने लगता है। इस रोग का प्रकोप दोमट भूमि तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा होता है।
कारक: यह रोग को लेटोट्रइकम फाल्केटम नामक फफूंद के द्वारा होता है। इस रोग का प्रसारण रोग ग्रसित फसल की पेड़ी लेने व रोग ग्रसित बीज के उपयोग से होता है।
लक्षण: इस रोग का प्रथम लक्षण फसल पर वर्षा उपरांत रोगी पौधे की ऊपरी 2-3 पत्तियों के नीचे की पत्तियॉं किनारे से पीली पड़कर सूखने लगती हैं तथा नीचे की ओर झुक जाती हैं। पत्तियों की मध्य शिरा पर लाल कत्थई रंग के धब्बों का दिखना तथा बाद में राख के रंग का हो जाना। धब्बों के बीच में फफूंद के बीजाणुओं के समूह काले बिंदु के रूप में दिखाई देते हैं। रोगी गन्ना फाड़ कर देने पर अंदर का पूरा उत्तक चमकीला लाल रंग का दिखाई देता है तथा बीच-बीच में सफेद रंग की आड़ी पट्टी दिखाई देती है। रोग ग्रस्त भाग से सिरका या शराब जैसी दुर्गंध आती है। रोग की उग्र अवस्था में गठानों के निकट काले रंग के बिंदु दिखाई देते हैं।
नियंत्रण: लाल सड़न अवरोधी व सहनशील किस्में जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-141, सी.ओ. 86032, सी.ओ. पंत 84212, सी.ओ. 52101 तथा सी.ओ. 1148 को उपयोग करें। बुआई हेतु गर्म हवा से उपचारित बीज का उपयोग करें। खेत से पूर्व फसल के अवशेष को नष्ट करें। खेत में पानी निकास की उचित व्यवस्था करें। एक ही खेत में एक ही किस्म का उपयोग लगातार न करें। बीज को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) से उपचारित करें।
3. कंडवा रोग: यह रोग संपूर्ण मध्यप्रदेश में पाया जाता है। यह भी एक फफूंद जनित बीज जनक रोग है। इसका प्रभाव प्रमुख फसल की अपेक्षा पेड़ी की फसल पर अधिक होता है।
कारक: यह अस्टिलागो सिटामिनिया नामक फफूंद के द्वारा होता है। इसके विषाणु गन्ने के बीच में मौजूद रहते हैं तथा उसके द्वारा ही इनका प्रसारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर होता है। यह फफूंद अपना जीवन यापन रोग ग्रसित फसल के अवशेष पर भी करता है।
लक्षण: इस रोग का प्रभाव मई-जुलाई तथा अक्टूबर-दिसम्बर माह में अधिक होता है। रोगी पौधों के शिरे से काले रंग के चाबुक के आकार के समान संरचना निकलती है। काला चाबुक के आकार वाला भाग काले रंग के चूर्ण से भरा रहता है जो प्रारंभिक अवस्था में सफेद चमकदार झिल्ली से ढ़का रहता है। बाद में शुष्क मौसम में झिल्ली फट जाती है जिसके फलस्वरूप हजारों की संख्या में विषाणु वायु द्वारा स्वस्थ फसल पर गिरते हैं। रोग ग्रसित पौधों के नीचे से अनेक पतली शाखाएं निकलती हैं जिनकी पत्तियॉं छोटी, सकरी तथा गहरी हरी रहती हैं और इनके ऊपरी भाग से भी चाबुक के समान संरचना निकलती है। ग्रसित पौधे आमतौर पर पतले तथा लंब होते हैं।
नियंत्रण: कंडवा रोग अवरोधी व सहनशील जातियॉं जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-141, सी.ओ.जे.एन. 86-572, सी.ओ.जे.एन. 86-600, सी.ओ. 94012, सी.ओ. 86032, सी.ओ. 88230 एवं सी.ओ. पंत 84212 का उपयोग करें। बुवाई पूर्व बीजोपचार कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशक से 0.1 प्रतिशत की दर से करें। खेत में मौजूद पूर्व फसल के अवशेष को जलाकर नष्ट करें। रोग ग्रसित पौधों को खेत से निकालकर सावधानीपूर्वक जला दें। प्रमाणित एवं स्वस्थ बीज का प्रयोग करें।
4. पेड़ी का बौनापन: यह जीवाणु जनित रोग है इस रोग का प्रकोप कहीं-कहीं पेड़ी फसल पर भी दिखाई देता है।
कारक: यह रोग क्लेवीबैक्टर जाइली नामक जीवाणु से होता है।
लक्षण: रोग ग्रसित पौधों कमजोर तथा छोटा रह जाते हैं। पत्तियॉं सामान्यत: पीली तथा गन्ने के पोरों की लंबाई कम हो जाती है। गन्ने को फाड़कर देखने पर गठान के उत्तक नारंगी लाल या पीला नारंगी या भूरे रंग के दिखाई देते हैं।
नियंत्रण: गन्ने की कटाई करते समय स्वच्छ साफ धारदार चाकू का प्रयोग करें। ग्रसित फसल से बीज बुवाई हेतु न लें। फसल में पोषक तत्वों व पानी की कमी न होने दें। पेड़ी की फसल दो बार से ज्यादा न लें। बुवाई हेतु बीज को नम गर्म हवा से 4 घंटे उपचारित करें।
5. घसी या प्ररोह रोग (ग्रासी शूट): यह रोग मध्यप्रदेश के कई भागों में पाया जाता है। इस रोग का विपरीत प्रभाव गन्ने की उपज तथा शक्कर की मात्रा पर सीधा पड़ता है। रोग का प्रभाव जून-सितम्बर तक होता है।
कारक: यह रोग माइक्रोप्लाजमा द्वारा होता है।
लक्षण: गन्ने के तने घास के समान पतला तथा नीचे से एक साथ समूह में तनों का निकलना। रोगी गन्ना पतला पत्तियॉं हल्की पील से सफेद रंग की हो जाती हैं। ग्रसित गन्ने की गठानों की दूरी कम होती है तथा खड़े गन्ने से ऑंखों का अंकुरण होना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
नियंत्रण: बुवाई से पूर्व बीज को गर्म नम हवा से 4 घंटे उपचारित करें। गन्ना काटने का औजार स्वच्छ होना चाहिये। फसल में पोषक तत्वों की कमी न होने दें।
कटाई पश्चात प्रबंधन: गन्ना की खेती मुख्यत: शक्कर प्राप्त करने हेतु की जाती है। यदि गन्ने का उपयोग रस निकालने हेतु चौबिस घंटों के अंदर न किया जाये तो रस एव रस में शर्करा की मात्रा में कमी आ जाती है। इस क्षति को रोकने हेतु गन्ने को छाया में रखें एवं पानी का छिड़काव करें।
जड़ी फसल से भरपूर पैदावार: गन्ना उत्पादक यदि जड़ी फसल पर भी बीजू फसल की तरह ही ध्यान दें और बताये गये कम लागत वाले उपाय अपनायें, तो जड़ी से भरपूर पैदावार ले सकते हैं:-
समय पर गन्ने की कटाई: मुख्य फसल को समय पर काटने से पेड़ी की अधिक उपज ली जा सकती है। नवम्बर माह में काटे गये गन्ने की पेड़ी से अधिक उपज प्राप्त होती है। फरवरी माह में भी गन्ने की फसल काटने पर कल्ले अधिक निकलते हैं और पेड़ी की अच्छी उपज प्राप्त होती है। मार्च के बाद काटे गये गन्ने की पेड़ी अच्छी नहीं होती है।
जड़ी फसल दो बार से अधिक न लें: बीजू फसल के अलावा जड़ी फसल दो बार से अधिक न लें अन्यथा कीट और रोगों का प्रकोप बढ़ने से पैदावार कम हो जाती है।
गन्ने की कटाई सतह से करें: गन्ने की कटाई जमीन की सतह से करना चाहिए, जिससे कल्ले अधिक फूटेंगे और उपज अधिक होगी।ठूंठ अवश्य काटें: यदि कटाई के बाद गन्ने के ठूंठ रह जायें तो उनकी कटाई अवश्य करें नहीं तो कल्ले कम फूटेंगे।
गरेड़े तोड़े: सिंचाई देने के बाद खेत में बतर आने पर गरेड़ो को बाजू से हल चलायें। इससे पुरानी जड़े टूटेंगी और नई जड़ें दिये गये खाद का पूरा उपयोग करेगी।
खाली जगह भरें: खेत में खाली स्थान का रहना ही कम पैदावार का मुख्य कारण है। अत: जो जगह एक फुट से अधिक खाली हो उसमें नये गन्ने के टुकड़े लगाकर सिंचाई करें।
पर्याप्त उर्वरक दें: जड़ी का उत्तम उत्पादन लेने के लिये मुख्य फसल की तरह 15-20 गाड़ी सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालें। बीजू फसल की तरह ही जड़ी फसल में भी 300 किलोग्राम नत्रजन (650 किलो ग्राम यूरिया), 80 किलोग्राम स्फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट), 60 किलोग्राम पोटश (100 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा गरेड़ तोड़ते समय हल की सहायता से नाली में देना चाहिये। नत्रजन की बची हुई मात्रा आखिरी मिट्टी चढ़ाते समय दें। नाली में खाद देने के बाद रिजर या देशी हल में पोटली बांध कर हल्की मिट्टी चढ़ायें।
सूखी पत्ती बिछायें: प्राय: किसान भाई कटाई के बाद सूखी पत्ती खेत में जला देते हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायता होती है। उक्त सूखी पत्तियां जलायें नहीं उन्हें गरेड़ों में बिछा दें। इससे खेत से पानी का भाप बनकर उड़ने में कमी आती है। सूखी पत्तियॉं बिछाने के बाद 1.5 प्रतिशत क्लोरपायरीफॉस या 1.3 प्रतिशत लिंडेन का प्रति हेक्टेयर दवा का भुरकाव करें।
पौध संरक्षण अपनायें: कटे हुये ठूंठों पर कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम मात्रा 250 लीटर पानी में घोलकर झारे की सहायता से ठूंठों के कटे हुये भाग पर छिड़कें।
उपयुक्त जातियॉं: जड़ी की अधिक पैदावार लेने हेतु उन्नत जातियॉं जैसे को. 7318, को. 6304 तथा को. 86033 का चुनाव करें।
गन्ना एक महत्वपूर्ण नगदी फसल है। यह मध्यप्रदेश में प्राय: सभी क्षेत्रों में लगाई जाती है जहां पर सिंचाई की उचित व्यवस्था तथा खेत में पानी का निकास अच्छा होता है।
खेत की तैयारी: दोमट भूमि जिसमें पानी का निकास अच्छा हो, गन्ने के लिये सर्वोत्तम होती है। खेत की तैयारी के लिये ग्रीष्म ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से दो बार आड़ी व खड़ी जुताई करें। अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में जुताई कर पाटा चलाकर खेत समतल करें। रिजर की सहायता से खेत में 3 फीट की दूरी पर नालियां बनायें। बसंतकालीन गन्ने जो फरवरी मार्च में लगाया जाता है, नालियों का अंतर 2 फीट तक रखना चाहिए।
उन्नत बीज: गर्म हवा से उपचारित (50 से.ग्र. पर 4 घंटे) स्वस्थ, कीट व रोग सहित बीज का उपयोग करें। गन्ना का बीज स्वस्थ फसल से प्राप्त करना चाहिए।
जातियॉं:
शीघ्र पकने वाली जातियॉं: को.सी. 671, को. 7314, को. 8383, को. 87008 एवं को. 87010, को. जवाहर 86-141 एवं को. जवाहर 86-572 लगायें। गुड़ बनाने के लिये को.सी. 671, को. जवाहर 86-141 एवं को. 86-572 सर्वोत्तम है। इन जातियों की उपज 800-900 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
मध्यम-देर से पकने वाली जातियॉं: को. 7318, को. 6304, को. 86032, को. 7219, को. जे.एन. 86-600 लगाई जाये। को. 7318 एवं को. 86032 गुड़ बनाने के लिये अधिक उपयुक्त है। इन जातियों की उपज 1000-1200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
बुवाई का समय: अधिक उपज के लिए बुवाई का सर्वोत्तम समय अक्टूबर-नवम्बर माह है। गन्ने की बोनी मार्च तक की जा सकती है। बसंतकालीन गन्ना फरवरी-मार्च में लगाना चाहिए।
अंतरवर्तीय फसलें: अक्टूबर-नवम्बर में 90 सेमी. की दूरी पर निकाली गरेड़ों में गन्ने की फसल बोते ही मेड़ों के दोनों ओर प्याज, लहसुन, आलू, रांजमा, ईसबगोल तथा सीधी बढ़ने वाली मटर लगाना बहुत उपयुक्त है। इन फसलों से गन्ने की फसल को कोई हानि नहीं होती है तथा इनसे किसान को अतिरिक्त नगद लाभ प्राप्त हो जाता है।
बसंतकालीन फसल में गरेड़ों की मेड़ों के दोनों ओर मूंग या उड़द लगाना बहुत लाभदायक है। इन अंतवर्तीय फसलों से अतिरिक्त लाभ मिल जाता है। अंतरवर्तीय फसलों की खाद की निर्धारित मात्रा गन्ने की फसल में दी मात्रा के अतिरिक्त देना चाहिए।
बीजोपचार व बुवाई: गन्ने के दो या तीन ऑंख वाले टुकड़े का कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम/लीटर के घोल में 15-20 मिनट तक डुबाना चाहिए। इसके पश्चात टुकड़ों को नालियों में रखकर मिट्टी से ढ़क कर सिंचाई कर दें या नालियों में सिंचाई करके टुकड़ों को हल्के से नालियों में दबा दें। बीज की मात्रा 1,25,000 ऑंखें (कलिकायें) या 100 से 125 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर लगायें।
खाद एवं उर्वरक: गन्ने में 300 किलोग्राम नत्रजन (650 किलोग्राम यूरिया) 80 किलोग्राम स्फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 60 किलोग्राम पोटाश (100 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश) प्रति हेक्टेयर देना चाहिऐ। स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोनी के पूर्व गरेड़ों में दें। नत्रजन की मात्रा अक्टूबर में बोई गई फसल के लिए 4 भागों में बांट कर अंकुरण के समय (30 दिन), कल्ले निकलते समय (90 दिन), हल्की मिट्टी चढ़ाते समय (120 दिन) दें। गन्ने की फसल में नत्रजन की एक-चौथाई मात्रा की पूर्ति अच्छी सड़ी गोबर की खाद या हरी खाद से करना बहुत लाभप्रद होता है।
उर्वरक की बचत:
1. यूरिया उर्वरक पर नीम, महुआ या करंज की खली के बारीक पाउडर से यूरिया को उपचारित करने से नत्रजन की बचत होती है।
2. गन्ना मिल का व्यर्थ पदार्थ सल्फीनेटेड प्रेसमड केक की 6 टन मात्रा या 4 टन प्रेसमड केक तथा 5 किलोग्राम एजेक्टोबेक्टर जीवाणु खाद का प्रयोग करने से 75 किलोग्राम नत्रजन की बचत होती है।
जैव उर्वरक: जैविक खादें फसल के लिये पोषक तत्वों का पूरक स्रोत हैं। गन्ना की फसल में एजोस्पीरिलियम, ग्लूकोनाटोबेक्टर एवं फास्फोबेक्टेरिया की पहचान मुख्य खादों के रूप में की गई है। यह जैविक खादें 20 प्रतिशत नत्रजन एवं 25 प्रतिशत स्फुर की प्रतिपूर्ति प्रत्यक्ष रूप से कर सकते हैं एवं अप्रत्यक्ष रूप से गन्ना वृद्धि में सहायक होते हैं। एजोस्पीरिलियम एवं ग्लूकोनासेटोबेक्टर गन्ना की जड़ों पर उपनिसेचित होकर वायुमंडलीय नत्रजन का स्थिरीकरण करते हैं। फास्फोबेक्टेरिया जड़ों के आसपास की मिट्टी में रहते हुए मृदा की अघुलनशील, अनुपलब्ध स्फुर को घुलनशील, उपलब्ध स्फुर परिवर्तन में सहायक होता है।
सूक्ष्म पोषक तत्व: गन्ना के शर्कर संचय, तंतु भाग एवं नत्रजन, स्फुर, पोटाश उपभोग क्षमता एवं गन्ना उत्पादकता में सूक्ष्म पोषक तत्वों का विशेष योगदान होता है। सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रबंधन जो कि समय-समय पर कराये गये मृदा परीक्षण पर आधारित हो अथवा फसल के लक्षणों पर आधारित हो, गन्ना उत्पादन बढ़ाता है। सामान्यत: गन्ना में लौह एवं जस्ता की कमी परिलक्षित होती है। इनकी कमी को पूरा करने हेतु फैरस सल्फेट/जिंक सल्फेट 0.5 से 2.0 प्रतिशत का घोल, फुहार, सप्रेद्ध ? के रूप में अथवा बोनी के समय फैरस सल्फेट 50 किलोग्राम/हेक्टेयर तथा जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम/हेक्टेयर मृदा में मिलाया जा सकता है।
निंदाई-गुड़ाई: बुवाई के लगभग 4 माह तक खरपतवारों की रोकथाम आवश्यक है। इसके लिये 3-4 निंदाई आवश्यक है। रासायनिक नियंत्रण के लिये एट्राजिन 1 किलो सक्रिय तत्व/हेक्टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़काव करना चाहिए। बाद में उगे चौड़ी पत्ती खरपतवारों के लिये 2-4, डी. सोडियम साल्ट 0.5 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय खेत में नमीं होना आवश्यक है।
मिट्टी चढ़ाना: गन्ने को गिरने से बचाने के लिये रिजर की सहायता से मिट्टी चढ़ाना चाहिए। अक्टूबर-नवम्बर माह में बोई फसल में प्रथम मिट्टी मई माह में चढ़ाना चाहिये। कल्ले फूटने के पहले मिट्टी न चढ़ायें।
सिंचाई: गर्मी के दिनों में 8-10 दिनों के अंतर पर एवं सर्दी के दिनों में 15 दिन के अंतर से सिंचाई करें। सिंचाई सर्पाकार विधि से करें। सिंचाई की मात्रा कम करने के लिये गरेड़ों में गन्ने की सूखी पत्तियों की 10-15 सेमी. तह बिछायें। गर्मी में पानी की मात्रा कम होने पर एक गरेड़ छोड़कर सिंचाई देकर फसल बचावें। कम पानी उपलब्ध होने पर ड्रिप (टपका विधि) से सिंचाई करने से 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है।
गर्मी के मौसम तक जब फसल 5-6 महीने तक की होती है स्प्रींकलर (फब्बारा) विधि से सिंचाई करके पानी की बचत की जा सकती है।
वर्षा के मौसम में खेत में उचित जल निकास का प्रबंध रखें। खेत में पानी के जमाव होने से गन्ने की बढ़वार एवं रस की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
बंधाई: गन्ना न गिरे इसके लिये गन्नों के झुण्डों को गन्ने की सूखी पत्तियों से बांधना चाहिये। यह कार्य अगस्त माह के अंत में या सितम्बर माह में करना चाहिए।
पौध सरंक्षण:
(अ) कीट: गन्ने की फसल को रोग व कीटों से बचाव के लिये पौध संरक्षण उपाय अपनायें।
1. अग्र तना छेदक के प्रकोप से बचाव हेतु सितम्बर-अक्टूबर में बोनी करें।
2. गन्ने के टुकड़ों को क्लोरपायरीफॉस 20 ई.सी. दवा के 0.1 प्रतिशत या मेलाथियान 50 ई.सी. दवा के 0.1 प्रतिशत घोल में 15 मिनट तक डुबोकर बीजोपचार करें।
3. अग्रतना छेदक के प्रकोप के नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी दानेदार या कार्बोफ्यूरान 3 जी दानेदार दवा को जड़ों के पास डालें। फोरेट दवा की मात्रा 1.5 किलोग्राम सक्रिय तत्व/हेक्टेयर या कार्बोफ्यूरान 1 किलोग्राम तत्व/हेक्टेयर उपयोग करें।
4. पइरिल्ला एवं सफेद मक्खी नियंत्रण के लिये मेलाथियान 50 ई. सी. का 0.05 प्रतिशत का घोल या मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल. दवा का 0.01 प्रतिशत घोल 600 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कें।
5. पायरिल्ला कीट के जैविक नियंत्रण हेतु जब 3-5 अंडे/शिशु/प्रौढ़ प्रति पत्ती हो तो एपीरिकेनिया के जीवित ककून 4000-5000 ककून या 4-5 लाख अंडे/हेक्टेयर की दर से छोड़ें।
6. शीर्ष तना छेदक का प्रकोप होने पर कार्बोफ्यरान 3 प्रतिशत दानेदार दवा का 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से जड़ों के पास डालें।
(ब) रोग
1. उकठा रोग: यह एक प्रमुख बीमारी है जो लगभग पूरे प्रदेश में व्याप्त है। इस बीमारी के कारण गन्ने के बीज के साथ रहते हैं जिससे बीमारी एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंचती है। इसके बीजाणु भूमि में फैल जाते हैं।
कारक: यह बीमारी फ्यूजेरियम मोनीलीफारमिस तथा एफ. आक्सीस्पोरम नामक फफूंद से होती है।
लक्षण: वर्षा ऋतु के उपरांत पत्तियॉं पीली पड़ने व मुरझाने लगती हैं तथा बाद में धीरे-धीरे सूखने लगती हैं। प्रभावित पौधों की बढ़वार कम हो जाती है। उग्र अवस्था में पौधों का सूखना तथा पत्तियों में पीलापन आना है। यदि ग्रसित गन्ना फाड़ कर देखें तो अंदर के उत्तक व गॉंठों के पास के भाव का उत्तक मटमैला रंग का दिखाई देता है। रोग ग्रसित गन्ना खोखला हो जाता है तथा गन्ने के अंदर फफूंद की बढ़वार देखी जा सकती है।
नियंत्रण: स्वस्थ व रोग रहित गन्ने का बीज प्रयोग करें। उकठा अवरोधी किस्मों को उपयोग में लाये जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-171, सी.ओ.जे.एन. 866-600, सी.ओ. 94014, सी.ओ. 94015 तथा सी.ओ. 860321 गन्ना बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) दवा से बीजोपचार करें।
2. लाल सड़न: यह भी एक महत्वपूर्ण व अधिक हानि पहुंचाने वाली फफूंद बीमारी है। इस रोग का प्रभाव प्रदेश के उत्तर-पश्चिम भाग में ज्यादा पाया जाता है। यह बीमारी बीज जनक होती है। परंतु इसके पश्चात भूमि में तथा फसल अवशेष पर रहने लगता है। इस रोग का प्रकोप दोमट भूमि तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में ज्यादा होता है।
कारक: यह रोग को लेटोट्रइकम फाल्केटम नामक फफूंद के द्वारा होता है। इस रोग का प्रसारण रोग ग्रसित फसल की पेड़ी लेने व रोग ग्रसित बीज के उपयोग से होता है।
लक्षण: इस रोग का प्रथम लक्षण फसल पर वर्षा उपरांत रोगी पौधे की ऊपरी 2-3 पत्तियों के नीचे की पत्तियॉं किनारे से पीली पड़कर सूखने लगती हैं तथा नीचे की ओर झुक जाती हैं। पत्तियों की मध्य शिरा पर लाल कत्थई रंग के धब्बों का दिखना तथा बाद में राख के रंग का हो जाना। धब्बों के बीच में फफूंद के बीजाणुओं के समूह काले बिंदु के रूप में दिखाई देते हैं। रोगी गन्ना फाड़ कर देने पर अंदर का पूरा उत्तक चमकीला लाल रंग का दिखाई देता है तथा बीच-बीच में सफेद रंग की आड़ी पट्टी दिखाई देती है। रोग ग्रस्त भाग से सिरका या शराब जैसी दुर्गंध आती है। रोग की उग्र अवस्था में गठानों के निकट काले रंग के बिंदु दिखाई देते हैं।
नियंत्रण: लाल सड़न अवरोधी व सहनशील किस्में जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-141, सी.ओ. 86032, सी.ओ. पंत 84212, सी.ओ. 52101 तथा सी.ओ. 1148 को उपयोग करें। बुआई हेतु गर्म हवा से उपचारित बीज का उपयोग करें। खेत से पूर्व फसल के अवशेष को नष्ट करें। खेत में पानी निकास की उचित व्यवस्था करें। एक ही खेत में एक ही किस्म का उपयोग लगातार न करें। बीज को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) से उपचारित करें।
3. कंडवा रोग: यह रोग संपूर्ण मध्यप्रदेश में पाया जाता है। यह भी एक फफूंद जनित बीज जनक रोग है। इसका प्रभाव प्रमुख फसल की अपेक्षा पेड़ी की फसल पर अधिक होता है।
कारक: यह अस्टिलागो सिटामिनिया नामक फफूंद के द्वारा होता है। इसके विषाणु गन्ने के बीच में मौजूद रहते हैं तथा उसके द्वारा ही इनका प्रसारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर होता है। यह फफूंद अपना जीवन यापन रोग ग्रसित फसल के अवशेष पर भी करता है।
लक्षण: इस रोग का प्रभाव मई-जुलाई तथा अक्टूबर-दिसम्बर माह में अधिक होता है। रोगी पौधों के शिरे से काले रंग के चाबुक के आकार के समान संरचना निकलती है। काला चाबुक के आकार वाला भाग काले रंग के चूर्ण से भरा रहता है जो प्रारंभिक अवस्था में सफेद चमकदार झिल्ली से ढ़का रहता है। बाद में शुष्क मौसम में झिल्ली फट जाती है जिसके फलस्वरूप हजारों की संख्या में विषाणु वायु द्वारा स्वस्थ फसल पर गिरते हैं। रोग ग्रसित पौधों के नीचे से अनेक पतली शाखाएं निकलती हैं जिनकी पत्तियॉं छोटी, सकरी तथा गहरी हरी रहती हैं और इनके ऊपरी भाग से भी चाबुक के समान संरचना निकलती है। ग्रसित पौधे आमतौर पर पतले तथा लंब होते हैं।
नियंत्रण: कंडवा रोग अवरोधी व सहनशील जातियॉं जैसे सी.ओ.जे.एन. 86-141, सी.ओ.जे.एन. 86-572, सी.ओ.जे.एन. 86-600, सी.ओ. 94012, सी.ओ. 86032, सी.ओ. 88230 एवं सी.ओ. पंत 84212 का उपयोग करें। बुवाई पूर्व बीजोपचार कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशक से 0.1 प्रतिशत की दर से करें। खेत में मौजूद पूर्व फसल के अवशेष को जलाकर नष्ट करें। रोग ग्रसित पौधों को खेत से निकालकर सावधानीपूर्वक जला दें। प्रमाणित एवं स्वस्थ बीज का प्रयोग करें।
4. पेड़ी का बौनापन: यह जीवाणु जनित रोग है इस रोग का प्रकोप कहीं-कहीं पेड़ी फसल पर भी दिखाई देता है।
कारक: यह रोग क्लेवीबैक्टर जाइली नामक जीवाणु से होता है।
लक्षण: रोग ग्रसित पौधों कमजोर तथा छोटा रह जाते हैं। पत्तियॉं सामान्यत: पीली तथा गन्ने के पोरों की लंबाई कम हो जाती है। गन्ने को फाड़कर देखने पर गठान के उत्तक नारंगी लाल या पीला नारंगी या भूरे रंग के दिखाई देते हैं।
नियंत्रण: गन्ने की कटाई करते समय स्वच्छ साफ धारदार चाकू का प्रयोग करें। ग्रसित फसल से बीज बुवाई हेतु न लें। फसल में पोषक तत्वों व पानी की कमी न होने दें। पेड़ी की फसल दो बार से ज्यादा न लें। बुवाई हेतु बीज को नम गर्म हवा से 4 घंटे उपचारित करें।
5. घसी या प्ररोह रोग (ग्रासी शूट): यह रोग मध्यप्रदेश के कई भागों में पाया जाता है। इस रोग का विपरीत प्रभाव गन्ने की उपज तथा शक्कर की मात्रा पर सीधा पड़ता है। रोग का प्रभाव जून-सितम्बर तक होता है।
कारक: यह रोग माइक्रोप्लाजमा द्वारा होता है।
लक्षण: गन्ने के तने घास के समान पतला तथा नीचे से एक साथ समूह में तनों का निकलना। रोगी गन्ना पतला पत्तियॉं हल्की पील से सफेद रंग की हो जाती हैं। ग्रसित गन्ने की गठानों की दूरी कम होती है तथा खड़े गन्ने से ऑंखों का अंकुरण होना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
नियंत्रण: बुवाई से पूर्व बीज को गर्म नम हवा से 4 घंटे उपचारित करें। गन्ना काटने का औजार स्वच्छ होना चाहिये। फसल में पोषक तत्वों की कमी न होने दें।
कटाई पश्चात प्रबंधन: गन्ना की खेती मुख्यत: शक्कर प्राप्त करने हेतु की जाती है। यदि गन्ने का उपयोग रस निकालने हेतु चौबिस घंटों के अंदर न किया जाये तो रस एव रस में शर्करा की मात्रा में कमी आ जाती है। इस क्षति को रोकने हेतु गन्ने को छाया में रखें एवं पानी का छिड़काव करें।
जड़ी फसल से भरपूर पैदावार: गन्ना उत्पादक यदि जड़ी फसल पर भी बीजू फसल की तरह ही ध्यान दें और बताये गये कम लागत वाले उपाय अपनायें, तो जड़ी से भरपूर पैदावार ले सकते हैं:-
समय पर गन्ने की कटाई: मुख्य फसल को समय पर काटने से पेड़ी की अधिक उपज ली जा सकती है। नवम्बर माह में काटे गये गन्ने की पेड़ी से अधिक उपज प्राप्त होती है। फरवरी माह में भी गन्ने की फसल काटने पर कल्ले अधिक निकलते हैं और पेड़ी की अच्छी उपज प्राप्त होती है। मार्च के बाद काटे गये गन्ने की पेड़ी अच्छी नहीं होती है।
जड़ी फसल दो बार से अधिक न लें: बीजू फसल के अलावा जड़ी फसल दो बार से अधिक न लें अन्यथा कीट और रोगों का प्रकोप बढ़ने से पैदावार कम हो जाती है।
गन्ने की कटाई सतह से करें: गन्ने की कटाई जमीन की सतह से करना चाहिए, जिससे कल्ले अधिक फूटेंगे और उपज अधिक होगी।ठूंठ अवश्य काटें: यदि कटाई के बाद गन्ने के ठूंठ रह जायें तो उनकी कटाई अवश्य करें नहीं तो कल्ले कम फूटेंगे।
गरेड़े तोड़े: सिंचाई देने के बाद खेत में बतर आने पर गरेड़ो को बाजू से हल चलायें। इससे पुरानी जड़े टूटेंगी और नई जड़ें दिये गये खाद का पूरा उपयोग करेगी।
खाली जगह भरें: खेत में खाली स्थान का रहना ही कम पैदावार का मुख्य कारण है। अत: जो जगह एक फुट से अधिक खाली हो उसमें नये गन्ने के टुकड़े लगाकर सिंचाई करें।
पर्याप्त उर्वरक दें: जड़ी का उत्तम उत्पादन लेने के लिये मुख्य फसल की तरह 15-20 गाड़ी सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालें। बीजू फसल की तरह ही जड़ी फसल में भी 300 किलोग्राम नत्रजन (650 किलो ग्राम यूरिया), 80 किलोग्राम स्फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट), 60 किलोग्राम पोटश (100 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा गरेड़ तोड़ते समय हल की सहायता से नाली में देना चाहिये। नत्रजन की बची हुई मात्रा आखिरी मिट्टी चढ़ाते समय दें। नाली में खाद देने के बाद रिजर या देशी हल में पोटली बांध कर हल्की मिट्टी चढ़ायें।
सूखी पत्ती बिछायें: प्राय: किसान भाई कटाई के बाद सूखी पत्ती खेत में जला देते हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायता होती है। उक्त सूखी पत्तियां जलायें नहीं उन्हें गरेड़ों में बिछा दें। इससे खेत से पानी का भाप बनकर उड़ने में कमी आती है। सूखी पत्तियॉं बिछाने के बाद 1.5 प्रतिशत क्लोरपायरीफॉस या 1.3 प्रतिशत लिंडेन का प्रति हेक्टेयर दवा का भुरकाव करें।
पौध संरक्षण अपनायें: कटे हुये ठूंठों पर कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम मात्रा 250 लीटर पानी में घोलकर झारे की सहायता से ठूंठों के कटे हुये भाग पर छिड़कें।
उपयुक्त जातियॉं: जड़ी की अधिक पैदावार लेने हेतु उन्नत जातियॉं जैसे को. 7318, को. 6304 तथा को. 86033 का चुनाव करें।
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