रामतिल
जगनी के नाम से आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में पहचानी जाने वाली फसल रामतिल है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती लगभग 220 हजार हेक्टेयर भूमि में की जाती है तथा उपज 44 हजार टन मिलती है। प्रदेश में देश के अन्य उत्पादक प्रदेशों की तुलना में औसत उपज अत्यंत कम (198 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ) है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती प्रधान रूप से छिंदवाडा , बैतूल, मंडला, सिवनी, डिन्डौरी एवं शहड़ोल जिलों में की जाती है।
रामतिल के बीजों में 35 – 45 प्रतिशत तेल एवं 25 से 35 प्रतिशत की मात्रा पायी जाती है। रामतिल की फसल विषम परिस्थितियों में भी उगाई जा सकती है। फसल को अनुपजाऊ एवं कम उर्वराशक्ति वाली भूमि में भी लिया जा सकता है। इसका तेल एवं बीज पूर्णत: विषैले तत्वों से मुक्त रहता है तथा यह कीडों बीमारियों जंगली जानवरों तथा पक्षियों से होने वाली क्षति से कम प्रभावित होती है। फसल भूमि का कटाव रोकती है। रामतिल की फसल के बाद उगाई जाने वाली फसल की उपज अच्छी आती है। प्रदेश में फसल की उपज को निम्नानुसार उन्नत कृषि तकनीकी अपनाकर बढ़ाया जा सकता है।
भूमि का चुनाव
फसल को आमतौर पर सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है। उत्तम जल निकासी वाली गहरी दुमट भूमि काश्त हेतु अच्छी होती है।
भूमी की तैयारी
खेत की तैयारी करते समय पिछली फसल की कटाई पश्चात हल से दो बाद गहरी जुताई करें तथा 3-4 बाद बखर एवं पाटा चलाकर भूमि को समतल एवं खरपतवार रहित करना चाहिये जिसमें बीज समान गहराई तक पहुंचकर उचित अंकुरण एवं पौध संख्या प्राप्त हो सके।
जातियों का चुनाव
प्रदेश में फसल की काश्त हेतु निम्नलिखित अनुशंसित उन्नत किस्मों को अपनाना चाहिये:
(1) उटकमंड़ – मध्यम अवधि में पककर तैयार होने वाली किस्म जो कि लगभग 110 दिनों में परिपक्व होकर तैयार होती है। बीजों में 43 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है तथा उपज क्षमता औसतन 500 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(2) नंबर 5 - बीजों का रंग काला मध्यम अवधि में (लगभग 105 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों में 40 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है तथा उपज क्षमता औसतन 475 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(3) आई .जी.पी 76 (सध्याढ़ी) मध्यम अवधि में (लगभग 105 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों का आकार छोटा होता है तथा बीजों में 40 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। किस्म ताप एवं प्रकाश काल हेतु संवेदनशील होती है तथा उपज क्षमता औसतन 475 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(4) नंबर 71 – जल्दी पकने वाली (लगभग 92 -95 दिनों में) किस्म है जिसका रंग गहरा काला चमकीला होकर दाना आकार में बड़ा होता है। बीजों में 42 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। पौधों की ऊंचाई ज्यादा होती है तथा औसत उपज क्षमता 475 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(5) बिरसा नाइजर – 1 – किस्म जब पककर तैयार होती है तब तने का रंग हल्का गुलाबी होता है। मध्यम अवधि में (95-100 दिनों में ) पक्कर तैयार होती है। बीजों में 41 प्रतिशत तेल पाया जाता है तथा औसत उपज क्षमता 600 – 700 किलोग्राम / हेक्टर है।
(6) श्रीलेखा – नई विकसित शीघ्र पकने वाली (86 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों में 41 प्रतिशत तेल पाया जाता है तथा औसत उपज क्षमता 500 किलोग्राम / हेक्टर है।
(7) पैयूर – 1 नई विकसित किस्म जो कि लगभग 90 दिनों में पककर तैयार होती है। पर्वतीय क्षेत्रों में काश्त हेतु उत्तम है। बीजों का रंग काला होता है तथा बीजों में 40 प्रतिशत तेल होता है। औसत उपज क्षमता 500 किलोग्राम/ हेक्टर है।
(8) जे.एन.सी सी 1 – इसके पकने की अवधि 95 -100 दिन है। बीजों के 35 -38 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। इस किस्म की उपज क्षमता औसत 5 -7 क्विंटल प्रति हेक्टर है। यह किस्म सूखा के लिये सहनशील होती है।
(9) जे.एन.सी -7 इसके पकने की अवधि 95 दिन है। इसका बीज पुष्ट तथा काले रंग का होता है। औसत उपज क्षमता 5-50 – 6.50 क्विंटल प्रति हेक्टर है। यह सूखा के लिये सहनशील है।
(10) जे.एन.सी. 9 – इसके पकने की अवधि 95 दिन है। इसका बीज पुष्ट तथा काले रंग का होता है। औसत उपज क्षमता 5.50 – 7 क्विंटल प्रति हेक्टर है। बीजों में 38 – 40 प्रतिशत तेल होता है। यह किस्म ताप एवं प्रकाश काल हेतु संवेदनशील होती है।
फसल चक्र
फसल को दलहनी , अनाजवाली फसलों तथा मोटे अनाज वाली फसलों के साथ बोया जाता है। एकल फसल में इसकी उपज मिश्रित फसल की अपेक्षा ज्यादा आती है। फसल हेतु कुछ लाभदायक फसल चक्र निम्नानुसार है:
फसल क्रम
कुटकी - रामतिल
रागी(अगेती) - रामतिल
उड़द(अगेती) - रामतिल
मिश्रित फसल प्रणाली
रामतिल + कोदो (2:2) रामतिल + कुटकी (2:2)
रामतिल + बाजरा (2:2) रामतिल + मूंग (2:2)
रामतिल + मूंगफली ( 6:2 अथवा 4:2)
बीजोपचार
फसल को भूमिजनित या बीजजनित बीमारियों से बचने के लिये बोनी के पूर्व बीजों को थाइरस अथवा केप्टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये।
बोने का समय
फसल की बोनी जुलाई माह के दूसरे सप्ताह से अगस्त माह के दूसरे सप्ताह तक की जा सकती है।
बोने की विधि
सामान्यत: 5 -8 किलोग्राम बीज / हेक्टर के मान से बोनी हेतु आवश्यक होता है। अंतरवर्तीय फसल हेतु बीज की दर कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है। बोनी करते समय बीजों को पूरे खेत (कतारों) में समान रूप से वितरण हेतु बीजों को 1:20 के अनुपात में गोबर की छनी हुई अच्छी सड़ी खाद के साथ मिलाकर बोनी करना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
फसल को 10 किलोग्राम नत्रजन + 20 किलोग्राम फास्फोरस / हेक्टेयर बोनी के समय ओर 10 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल में बोनी के 35 दिन बाद देवें। इसके अलावा स्फुर घुलनशील जैव उर्वरक कल्चर (पी.एस.बी) भूमि में अनुपलब्ध स्फुर को उपलब्ध कर फसल को लाभ पहुंचाता है। पी.एस.बी. कल्चर को बोनी के पूर्व आखरी बखरनी के समय मिटटी में 5 से 7 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से गोबर की खाद अथवा सूखी मिटटी में मिलाकर खेत में समान रूप से बिखेरें। इस समय खेत में नमी का होना आवश्यक होता है।
भूमि में उपलब्ध तत्वों के परीक्षण उपरांत यदि भूमि में गंधक तत्व की कमी पायी जाती है तो 20 – 30 किलोग्राम / हेक्टेयर की दर से गंधक का प्रयोग करने पर तेल के प्रतिशत एवं पैदावार में बढ़ोतरी होती है।
कतारों की दूरी
अच्दे उत्पादन हेतु कतारों में बोनी हेतु अनुशंसा की जाती है। अच्छी उपज लेने हेतु बुवाई 30 x 10 से.मी. दूरी पर करें तथा बीज को 3 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिये। पौधों की संख्या 3,00,000 पूरे खेत (कतारों) में समान रूप से वितरण हेतु 1:20 के अनुपात में गोबर की छनी हुई खाद के साथ मिलाकर बोनी करना चाहिये।
सिंचाई
रामतिल की फसलों को मुख्यत: खरीफ मौसम में वर्षा आधारित स्थिति में यदि सिंचाई का साधन उपलब्ध है तो सुरक्षा सिंचाई करना चाहिये। फूल आते समय एवं फल्लियॉ बनते समय सिंचाई देने से उपज में अच्छे परिणाम मिलते हैं।
निंदाई – गुडाई
बोनी के 15 -20 दिन पश्चात पहली निंदाई करना चाहिये तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को खेत से निकालना चाहिये। यदि आवश्यकता हुआ तो दूसरी निंदाई बोनी के करीब 35 -40 दिन बाद (नत्रजन युक्त उर्वरकों की खड़ी फसल में छिड़काव के पूर्व ) करना चाहिये। कतारों में बोयी गई फसल में हाथों द्वारा चलने वाला हो अथवा डोरा चलाकर नींदा नियंत्रण करें। रासायनिक नींदा नियंत्रण के लिये ‘’एलाक्लोर ‘’ 1.5 किलोग्राम सक्रिय घटक / हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में छिड़काव अथवा ‘’ लासो ‘’ दानेदार 20 किलोग्राम / हेक्टेयर की दर से बोनी के तुरंत बाद एवं अंकुरण के पूर्व भुरकाव करें।
अमरबेल परजीवी संक्रमित क्षेत्रों से प्राप्त बीजों का प्रयोग बोनी हेतु नहीं करना चाहिये। यदि अमरबेल के बीज रामतिल के साथ मिल गये हो तो बोनी पूर्व छलनी से छानकर इसे अलग कर देना चाहिये।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
रामतिल पर आनेवाले प्रमुख कीट रामतिल की सूंडी, सतही टिडडी माहों, बिहार रोमिल सूंडी सेमीलूपर आदि हैं। रामतिल की इल्ली हरे रंग की होती है जिस पर जामुनी रंग की धारियॉ रहती है। पत्तियों को खाकर पौधे की प्रारंभिक अवस्था में ही पौधे से रस चूसते हैं जिससे उपज में कमी आती है।
सतही टिडडी के शिशु एवं वयस्क फसल की प्रारंभिक अवस्थाओं में पत्तियों को काटकर हानि पहुंचाते हैं।
नियंत्रण
(1) रामतिल की इल्ली के नियंत्रण के लिये पेराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण का भुरकाव 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिये। इस चूर्ण के उपयोग से सतही टिडडी को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
(2) माहों कीट के नियंत्रण के लिये वावधानी रखकर कीटनाशक दवा का चयन करना चाहिये। क्योंकि इसका आक्रमण पौधे पर फूल आने पर होता है। चूंकि रामतिल में परागीकरण होता है अत: ऐसी दवा का प्रयोग नहीं करना चाहिये जिससे मधुमक्खियों को नुकसान हो। इण्डोसल्फान 35 सी.की 1 मिली लीटर मात्रा प्रति 1 लीटर पानी के मान से 600 – 700 लीटर पानी में अच्छी तरह से बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने पर माहों का प्रभावी ढंग से नियंत्रण किया जा सकता है। कीटनाशकों का प्रयोग सुबह या देर शाम न करें।
(ब) रोग
(1) सरकोस्पोरा पर्णदाग – इस रोग में पत्तियों पर छोटे धूसर से भूरे धब्बे बनते हैं जिसके मिलने पर रोग पूरी पत्ती पर फैल जाता है तथा पत्ती गिर जाती है। नियंत्रण हेतु बोनी पूर्व बीजों को 0.3 प्रतिशत थायरस से बीजोपचार करें।
(2) अल्अरनेरिया पत्ती धब्बा – इस रोग में पत्तियों पर भूरे, अंडाकार , गोलाकार एवं अनियंत्रित वलयाकार धब्बे दिखते हैं। रोग के नियंत्रण हेतु बोनी पूर्व बीजों को 0.3 प्रतिशत थायरस से बीजोपचार करें। जीनेब (0.2 प्रतिशत) अथवा बाविस्टीन (0.05 प्रतिशत) या टापसिन (0.25 प्रतिशत) दवा का छिड़काव रोग आने पर 15 दिन के अंतराल से करें।
(3) जड़ सडन – तना अधार एवं जड़ का छिलका हटाने पर फफूंद के स्कलेरोशियम होने के कारण कोयले के समान कालापन होता है। नियंत्रण हेतु 0.3 प्रतिशत थायरम से बोनी के पूर्व बीजोपचार करें।
(4) भभूतिया रोग (चूर्णी फफूंद) – रोग में पत्तियों एवं तनों पर सफेद चूर्ण दिखता है। नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत घुलनशील गंधक का फुहारा पद्धति से फसल पर छिड़काव करें।
फसल कटाई
रामतिल की फसल लगभग 100 -120 दिनों में पककर तैयार होती है। जब पौधों की पत्तियां सूखकर गिरने लगे, फल्ली का शीर्ष भाग भूरे काले रंग का होकर मुड़ने लगे तब फसल को काट लेना चाहिये। कटाई उपरांत पौधों को गटठों में बॉधकर खेत में खुली धूप में एक सप्ताह तक सुखाना चाहिये उसके बाद खलिहान में लकड़ी / डंडों द्वारा पीटकर गहाई करना चाहिये। गहाई के बाद प्राप्त दानों को सूपे से फटककर साफ कर लेना चाहिये। बीजों को धूप में अच्छी तरह सुखाकर 9 प्रतिशत नमीं पर भंडारण करना चाहिये।
उपज
उचित प्रबंधन से रामतिल की उपज 600 -700 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है जो कि मुख्यत: अच्छी वर्षा एवं उन्नत तकनीक के अंगीकरण से प्राप्त होती है।
जगनी के नाम से आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में पहचानी जाने वाली फसल रामतिल है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती लगभग 220 हजार हेक्टेयर भूमि में की जाती है तथा उपज 44 हजार टन मिलती है। प्रदेश में देश के अन्य उत्पादक प्रदेशों की तुलना में औसत उपज अत्यंत कम (198 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर ) है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती प्रधान रूप से छिंदवाडा , बैतूल, मंडला, सिवनी, डिन्डौरी एवं शहड़ोल जिलों में की जाती है।
रामतिल के बीजों में 35 – 45 प्रतिशत तेल एवं 25 से 35 प्रतिशत की मात्रा पायी जाती है। रामतिल की फसल विषम परिस्थितियों में भी उगाई जा सकती है। फसल को अनुपजाऊ एवं कम उर्वराशक्ति वाली भूमि में भी लिया जा सकता है। इसका तेल एवं बीज पूर्णत: विषैले तत्वों से मुक्त रहता है तथा यह कीडों बीमारियों जंगली जानवरों तथा पक्षियों से होने वाली क्षति से कम प्रभावित होती है। फसल भूमि का कटाव रोकती है। रामतिल की फसल के बाद उगाई जाने वाली फसल की उपज अच्छी आती है। प्रदेश में फसल की उपज को निम्नानुसार उन्नत कृषि तकनीकी अपनाकर बढ़ाया जा सकता है।
भूमि का चुनाव
फसल को आमतौर पर सभी प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है। उत्तम जल निकासी वाली गहरी दुमट भूमि काश्त हेतु अच्छी होती है।
भूमी की तैयारी
खेत की तैयारी करते समय पिछली फसल की कटाई पश्चात हल से दो बाद गहरी जुताई करें तथा 3-4 बाद बखर एवं पाटा चलाकर भूमि को समतल एवं खरपतवार रहित करना चाहिये जिसमें बीज समान गहराई तक पहुंचकर उचित अंकुरण एवं पौध संख्या प्राप्त हो सके।
जातियों का चुनाव
प्रदेश में फसल की काश्त हेतु निम्नलिखित अनुशंसित उन्नत किस्मों को अपनाना चाहिये:
(1) उटकमंड़ – मध्यम अवधि में पककर तैयार होने वाली किस्म जो कि लगभग 110 दिनों में परिपक्व होकर तैयार होती है। बीजों में 43 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है तथा उपज क्षमता औसतन 500 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(2) नंबर 5 - बीजों का रंग काला मध्यम अवधि में (लगभग 105 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों में 40 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है तथा उपज क्षमता औसतन 475 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(3) आई .जी.पी 76 (सध्याढ़ी) मध्यम अवधि में (लगभग 105 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों का आकार छोटा होता है तथा बीजों में 40 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। किस्म ताप एवं प्रकाश काल हेतु संवेदनशील होती है तथा उपज क्षमता औसतन 475 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(4) नंबर 71 – जल्दी पकने वाली (लगभग 92 -95 दिनों में) किस्म है जिसका रंग गहरा काला चमकीला होकर दाना आकार में बड़ा होता है। बीजों में 42 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। पौधों की ऊंचाई ज्यादा होती है तथा औसत उपज क्षमता 475 किलोग्राम प्रति हेक्टर है।
(5) बिरसा नाइजर – 1 – किस्म जब पककर तैयार होती है तब तने का रंग हल्का गुलाबी होता है। मध्यम अवधि में (95-100 दिनों में ) पक्कर तैयार होती है। बीजों में 41 प्रतिशत तेल पाया जाता है तथा औसत उपज क्षमता 600 – 700 किलोग्राम / हेक्टर है।
(6) श्रीलेखा – नई विकसित शीघ्र पकने वाली (86 दिनों में) पककर तैयार होती है। बीजों में 41 प्रतिशत तेल पाया जाता है तथा औसत उपज क्षमता 500 किलोग्राम / हेक्टर है।
(7) पैयूर – 1 नई विकसित किस्म जो कि लगभग 90 दिनों में पककर तैयार होती है। पर्वतीय क्षेत्रों में काश्त हेतु उत्तम है। बीजों का रंग काला होता है तथा बीजों में 40 प्रतिशत तेल होता है। औसत उपज क्षमता 500 किलोग्राम/ हेक्टर है।
(8) जे.एन.सी सी 1 – इसके पकने की अवधि 95 -100 दिन है। बीजों के 35 -38 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है। इस किस्म की उपज क्षमता औसत 5 -7 क्विंटल प्रति हेक्टर है। यह किस्म सूखा के लिये सहनशील होती है।
(9) जे.एन.सी -7 इसके पकने की अवधि 95 दिन है। इसका बीज पुष्ट तथा काले रंग का होता है। औसत उपज क्षमता 5-50 – 6.50 क्विंटल प्रति हेक्टर है। यह सूखा के लिये सहनशील है।
(10) जे.एन.सी. 9 – इसके पकने की अवधि 95 दिन है। इसका बीज पुष्ट तथा काले रंग का होता है। औसत उपज क्षमता 5.50 – 7 क्विंटल प्रति हेक्टर है। बीजों में 38 – 40 प्रतिशत तेल होता है। यह किस्म ताप एवं प्रकाश काल हेतु संवेदनशील होती है।
फसल चक्र
फसल को दलहनी , अनाजवाली फसलों तथा मोटे अनाज वाली फसलों के साथ बोया जाता है। एकल फसल में इसकी उपज मिश्रित फसल की अपेक्षा ज्यादा आती है। फसल हेतु कुछ लाभदायक फसल चक्र निम्नानुसार है:
फसल क्रम
कुटकी - रामतिल
रागी(अगेती) - रामतिल
उड़द(अगेती) - रामतिल
मिश्रित फसल प्रणाली
रामतिल + कोदो (2:2) रामतिल + कुटकी (2:2)
रामतिल + बाजरा (2:2) रामतिल + मूंग (2:2)
रामतिल + मूंगफली ( 6:2 अथवा 4:2)
बीजोपचार
फसल को भूमिजनित या बीजजनित बीमारियों से बचने के लिये बोनी के पूर्व बीजों को थाइरस अथवा केप्टान 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये।
बोने का समय
फसल की बोनी जुलाई माह के दूसरे सप्ताह से अगस्त माह के दूसरे सप्ताह तक की जा सकती है।
बोने की विधि
सामान्यत: 5 -8 किलोग्राम बीज / हेक्टर के मान से बोनी हेतु आवश्यक होता है। अंतरवर्तीय फसल हेतु बीज की दर कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है। बोनी करते समय बीजों को पूरे खेत (कतारों) में समान रूप से वितरण हेतु बीजों को 1:20 के अनुपात में गोबर की छनी हुई अच्छी सड़ी खाद के साथ मिलाकर बोनी करना चाहिये।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा एवं देने की विधि
फसल को 10 किलोग्राम नत्रजन + 20 किलोग्राम फास्फोरस / हेक्टेयर बोनी के समय ओर 10 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से खड़ी फसल में बोनी के 35 दिन बाद देवें। इसके अलावा स्फुर घुलनशील जैव उर्वरक कल्चर (पी.एस.बी) भूमि में अनुपलब्ध स्फुर को उपलब्ध कर फसल को लाभ पहुंचाता है। पी.एस.बी. कल्चर को बोनी के पूर्व आखरी बखरनी के समय मिटटी में 5 से 7 किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से गोबर की खाद अथवा सूखी मिटटी में मिलाकर खेत में समान रूप से बिखेरें। इस समय खेत में नमी का होना आवश्यक होता है।
भूमि में उपलब्ध तत्वों के परीक्षण उपरांत यदि भूमि में गंधक तत्व की कमी पायी जाती है तो 20 – 30 किलोग्राम / हेक्टेयर की दर से गंधक का प्रयोग करने पर तेल के प्रतिशत एवं पैदावार में बढ़ोतरी होती है।
कतारों की दूरी
अच्दे उत्पादन हेतु कतारों में बोनी हेतु अनुशंसा की जाती है। अच्छी उपज लेने हेतु बुवाई 30 x 10 से.मी. दूरी पर करें तथा बीज को 3 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिये। पौधों की संख्या 3,00,000 पूरे खेत (कतारों) में समान रूप से वितरण हेतु 1:20 के अनुपात में गोबर की छनी हुई खाद के साथ मिलाकर बोनी करना चाहिये।
सिंचाई
रामतिल की फसलों को मुख्यत: खरीफ मौसम में वर्षा आधारित स्थिति में यदि सिंचाई का साधन उपलब्ध है तो सुरक्षा सिंचाई करना चाहिये। फूल आते समय एवं फल्लियॉ बनते समय सिंचाई देने से उपज में अच्छे परिणाम मिलते हैं।
निंदाई – गुडाई
बोनी के 15 -20 दिन पश्चात पहली निंदाई करना चाहिये तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को खेत से निकालना चाहिये। यदि आवश्यकता हुआ तो दूसरी निंदाई बोनी के करीब 35 -40 दिन बाद (नत्रजन युक्त उर्वरकों की खड़ी फसल में छिड़काव के पूर्व ) करना चाहिये। कतारों में बोयी गई फसल में हाथों द्वारा चलने वाला हो अथवा डोरा चलाकर नींदा नियंत्रण करें। रासायनिक नींदा नियंत्रण के लिये ‘’एलाक्लोर ‘’ 1.5 किलोग्राम सक्रिय घटक / हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में छिड़काव अथवा ‘’ लासो ‘’ दानेदार 20 किलोग्राम / हेक्टेयर की दर से बोनी के तुरंत बाद एवं अंकुरण के पूर्व भुरकाव करें।
अमरबेल परजीवी संक्रमित क्षेत्रों से प्राप्त बीजों का प्रयोग बोनी हेतु नहीं करना चाहिये। यदि अमरबेल के बीज रामतिल के साथ मिल गये हो तो बोनी पूर्व छलनी से छानकर इसे अलग कर देना चाहिये।
पौध संरक्षण
(अ) कीट
रामतिल पर आनेवाले प्रमुख कीट रामतिल की सूंडी, सतही टिडडी माहों, बिहार रोमिल सूंडी सेमीलूपर आदि हैं। रामतिल की इल्ली हरे रंग की होती है जिस पर जामुनी रंग की धारियॉ रहती है। पत्तियों को खाकर पौधे की प्रारंभिक अवस्था में ही पौधे से रस चूसते हैं जिससे उपज में कमी आती है।
सतही टिडडी के शिशु एवं वयस्क फसल की प्रारंभिक अवस्थाओं में पत्तियों को काटकर हानि पहुंचाते हैं।
नियंत्रण
(1) रामतिल की इल्ली के नियंत्रण के लिये पेराथियान 2 प्रतिशत चूर्ण का भुरकाव 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिये। इस चूर्ण के उपयोग से सतही टिडडी को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
(2) माहों कीट के नियंत्रण के लिये वावधानी रखकर कीटनाशक दवा का चयन करना चाहिये। क्योंकि इसका आक्रमण पौधे पर फूल आने पर होता है। चूंकि रामतिल में परागीकरण होता है अत: ऐसी दवा का प्रयोग नहीं करना चाहिये जिससे मधुमक्खियों को नुकसान हो। इण्डोसल्फान 35 सी.की 1 मिली लीटर मात्रा प्रति 1 लीटर पानी के मान से 600 – 700 लीटर पानी में अच्छी तरह से बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने पर माहों का प्रभावी ढंग से नियंत्रण किया जा सकता है। कीटनाशकों का प्रयोग सुबह या देर शाम न करें।
(ब) रोग
(1) सरकोस्पोरा पर्णदाग – इस रोग में पत्तियों पर छोटे धूसर से भूरे धब्बे बनते हैं जिसके मिलने पर रोग पूरी पत्ती पर फैल जाता है तथा पत्ती गिर जाती है। नियंत्रण हेतु बोनी पूर्व बीजों को 0.3 प्रतिशत थायरस से बीजोपचार करें।
(2) अल्अरनेरिया पत्ती धब्बा – इस रोग में पत्तियों पर भूरे, अंडाकार , गोलाकार एवं अनियंत्रित वलयाकार धब्बे दिखते हैं। रोग के नियंत्रण हेतु बोनी पूर्व बीजों को 0.3 प्रतिशत थायरस से बीजोपचार करें। जीनेब (0.2 प्रतिशत) अथवा बाविस्टीन (0.05 प्रतिशत) या टापसिन (0.25 प्रतिशत) दवा का छिड़काव रोग आने पर 15 दिन के अंतराल से करें।
(3) जड़ सडन – तना अधार एवं जड़ का छिलका हटाने पर फफूंद के स्कलेरोशियम होने के कारण कोयले के समान कालापन होता है। नियंत्रण हेतु 0.3 प्रतिशत थायरम से बोनी के पूर्व बीजोपचार करें।
(4) भभूतिया रोग (चूर्णी फफूंद) – रोग में पत्तियों एवं तनों पर सफेद चूर्ण दिखता है। नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत घुलनशील गंधक का फुहारा पद्धति से फसल पर छिड़काव करें।
फसल कटाई
रामतिल की फसल लगभग 100 -120 दिनों में पककर तैयार होती है। जब पौधों की पत्तियां सूखकर गिरने लगे, फल्ली का शीर्ष भाग भूरे काले रंग का होकर मुड़ने लगे तब फसल को काट लेना चाहिये। कटाई उपरांत पौधों को गटठों में बॉधकर खेत में खुली धूप में एक सप्ताह तक सुखाना चाहिये उसके बाद खलिहान में लकड़ी / डंडों द्वारा पीटकर गहाई करना चाहिये। गहाई के बाद प्राप्त दानों को सूपे से फटककर साफ कर लेना चाहिये। बीजों को धूप में अच्छी तरह सुखाकर 9 प्रतिशत नमीं पर भंडारण करना चाहिये।
उपज
उचित प्रबंधन से रामतिल की उपज 600 -700 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है जो कि मुख्यत: अच्छी वर्षा एवं उन्नत तकनीक के अंगीकरण से प्राप्त होती है।
2 comments:
hi sunder,
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मलिक जी,
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